यह मेरे अपने जीवन का एक पृष्ठ है।
निशिकांत की प्रांखें रह-रहकर सजल हो उठतीं और वह मुंह फेरकर सड़क की श्रोर देखने लगता, मानो अपने प्रांसुत्रों को पीने की चेष्टा कर रहा हो । सड़क पर सदा की तरह अनेक नर-नारी पैदल, तागे, कार, सायकिल या दूसरे यानों पर, इधर से उधर श्रा जा रहे थे। उनमें अमीर-गरीब, स्वस्थ- अस्वस्थ, सुन्दर-असुन्दर, दाता - भिखारी, अच्छे और बुरे, सभी थे । कुछ चुपचाप चल रहे थे, कुछ ऊंचे स्वर में चिल्ला रहे थे। उनके स्वर की गूज दूर-दूर तक फैल रही थी। कुछ फैशन की नितलियां, यौवन की प्रतिमाएं, खोए जीवन की याद लिए कुछ वृद्धाएं, कुछ अल्हड़ बालक-बालिकाएं, सिनेमा में सुने हुए गीत को गाने की चेष्टा करते हुए कुछ मस्त युवक, कुछ युग के भार से दबे हुए सिनरसीदा लोग । सभी आते और लिप्त अलिप्त से, एक अदृश्य चक्कर में घूमते- घूमते, विलीन हो जाते ।
यह सब देखकर निशिकांत हठात् सोच बैठता - श्राखिर यह सब क्या है ? यह सृष्टि क्यों बनी है ? उस अव्यक्त प्रगोचर परमात्मा को क्यों यह ख़ब्त सवार हुआ ? क्यों उसने मकड़ी की तरह यह ताना-बाना बुन डाला ? फिर इस जाले में कितना तेज आकर्षण - स्त्री और पुरुष एक दूसरे की तरफ इस प्रकार खिंचते हैं जैसे कभी वे एक रहे हों और फिर किसीके क्रूर हाथों द्वारा अलग कर दिए गए हों और - बिलकुल उस काल्पनिक अर्द्धनारीश्वर की तरह । लेकिन वे एक हो कहां पाते हैं—केवल एक क्षणिक, अपरिमेय, श्रद्भुत और भ्रानन्दमय श्रावेग के बाद अलस- उदास और धीर-गम्भीर होकर अपने ही समान अपने अनेक स्वरूपों का निर्माण करने में लग जाते हैं। स्वयं स्रष्टा बनकर नियन्ता की बेव- कूफ़ी को दोहराने लगते हैं और इस कार्य में उन्हें इतना आनन्द मिलता है कि मृत्यु के समान प्रसव पीड़ा भी उनके प्राणों में उन्माद पैदा कर देती है। उनका मिट्टी का घरौंदा जब उनके अपने स्वरूपों की किलकारियों से गूंजने लगता है तो आनन्द-विभोर होकर कह उठते हैं - यही तो स्वर्ग है । और कभी न समाप्त होने वाले इस सृष्टि-क्रम का एकमात्र कार्य है जीवन के एकमात्र और अन्तिम सत्य को प्रमाणित करना । जीवन का वह सत्य है मृत्यु !
निशिकांत हठात् चौंक उठा, 'तो क्या सत्यभामा भी मर जाएगी बेशक मर जाएगी... !'
वह फिर कातर हो उठा। जिन श्रांसुत्रों को पीने के लिए उसने इतना सोचा था, वे फिर दुगने वेग से उमड़ आए। उसने गरदन को ज़ोर से झटका दिया और इस बार फिर अपनी प्रांखें उस विशाल बिल्डिङ्ग की ओर घुमा दीं जिसके एक कमरे में. उसकी पत्नी सत्यभामा को लेकर मृत्यु और जीवन के बीच एक भयंकर संघर्ष छिड़ा हुआ था । उसने देखा, उस ब्रह्मलोक (मैटरनिटी हास्पिटल) में अन्दर ही अन्दर एक सुप्त कोलाहल, एक मधुर वेदना, एक मीठा दर्द, जागता चला श्रा रहा है। सफेद बगुले जैसे कपड़ों में कसी नसें, तेजी से खटखट करती डाक्टरनियां; स्ट्रेचर या इनवैलिड चेयर थामे सहायक दाइयां और बार-बार दरवाज़े पर चाकर पुकारती हुई मिसरानी सभी एक नियम में बंधे, सदा की तरह मशीन के समान अपना काम करती चली जाती है ।
सहसा दाई ने आकर पुकारा, 'मालती का घर वाला है !'
बेंच पर ऊंघता-सा एक व्यक्ति बोला, 'जी, मैं हूं !'
'लड़का हुआ है !'
‘लड़का' ं' !' नींद एकाएक खुल गई, 'दूध लाऊं ?'
'हां, और फल भी,' उसने कहा और यंत्रवत् चली गई । क्षण बीता । लान में अनेक स्त्री-पुरुष आए और गए । दाई फिर बाहर श्राई — 'करुणा !'
एक स्त्री दौड़ी, 'जी... !'
'लड़की !'
स्त्री के साथ एक उत्सुक - उत्तेजित श्रधेड़ सज्जन भी थे। सन्न रह गए। दूसरे क्षण फीकी मुस्कान से बोले, 'लड़का और लड़की, दो में से एक ही तो होना था । जाओ, मैं दूध लाता हूं ।'
निशिकांत रोज इसी तरह सुनता और देखता। रोज भागे हुए स्त्री-पुरुष श्राते और खिलौने की तरह अपना ही-सा स्वरूप लेकर चले जाते। रात ही कोई दो बजे एक स्त्री आई। बोली, 'मेरे बच्चा होने वाला है।'
नर्स ने कहा, 'बेड खाली नहीं है । और कहीं जाइए ।'
'लेकिन...!' स्त्री के पति ने घबराकर कहा ।
नर्स खिजी, मुस्कराई, स्त्री को लेकर अन्दर चली गई और कोई बीस मिनट बीते होंगे कि लौटकर आई - ' जाइए, दूध ले आइए। आपके लड़का हुआ है ।'
निशिकांत ने देखा - एक युवक बहुत दुखी, संतप्त, अलग एक कोने में ऐसे बैठा है जैसे कि अभी रो पड़ेगा। उसने पूछा, 'क्या बात है ?'
वह चौंका, 'क्या बताऊं कि क्या बात है ।'
'आखिर..?'
'पांच दिन से दर्द उठ रहे हैं। बच्चा नहीं होता ।'
'आपकी पत्नी है ?'
'जी...!'
'और कौन है ?"
'कोई भी नहीं ।'
उसने गम्भीर होने की चेष्टा की और ठीक इसी समय आवाज लगी, 'रानी के साथ कौन आया है ?”
'मैं हूं,' वह युवक शीघ्रता से धागे बढ़ा ।
नर्स ने कहा, 'बच्चा घटक गया है। आपरेशन होगा ।'
युवक के पैर लड़खड़ाए और वह बेंच पर ऐसे लुढ़क गया जैसे दरख्त से कोई टहनी टूटकर गिर पड़ी हो। नर्स फिर आई और एक पर्चा पकड़ाते हुए बोली, 'घबराइए नहीं । सब ठीक हो जाएगा। जाकर दवा ले भाइए ।'
वह उठा और अवरुद्धकण्ठ निशिकांत से बोला, 'सच कहता हूं, इस बार रानी बच गई तो ..!'
निशिकांत ने टोककर कहा, 'जाइए, इंजेक्शन ले भाइए। जो कुछ भाप करेंगे, वह सब दुनिया जानती है ।'
वह गया कि वहां एक तीखी करुणा भरी आवाज गूंज उठी, 'मां, तुमसे बढ़कर मेरा सहारा कौन है। तुम मां हो, तुम जगन्माता हो, तुम !'
देखा - एक अधेड़ पुजारी, माथे पर त्रिपुण्ड, गले में राम-नामी साफा, करुणा से विगलित, नर्स के पैरों पर झुका जा रहा है, 'मैं लुट जाऊंगा, मेरी बाग- बाड़ी उजड़ जाएगी, मेरे छोटे बच्चे धूल में मिल जाएंगे ... !'
अस्पताल में क्या नहीं होता । नर्स अभ्यस्त है सो बीच में ही तेजी से उसने कहा, 'शोर मत मचाओ । इलाज हो रहा है।'
फिर दूसरे ही क्षण धीमा पड़कर फिर बोली, 'आज पहले से आराम है । सब्र करना चाहिए। सब कुछ ठीक होगा ।'
'ठीक होगा, मां... ?'
हां-ना में जवाब दिए बिना नर्स फिर चली गई। तभी लान के पीछे वाले बंगले में बड़ी डाक्टरनी तेजी से स्टेथेस्कोप लिए निकली। निशिकांत दौड़कर उसके पास गया। डाक्टरनी ने देखा, रुकी और बोली, 'क्या बात है ?"
...
'सत्यभामा के ?'
'हां हां, वह आज बेहतर है। खतरा भी है परन्तु श्राशा है...' 'आपकी कृपा है, देखिए श्राप पैसे की चिन्ता मत करना.. ''
डाक्टरनी लापरवाही से बोली, 'पैसा कभी हम लोगों के लिए चिन्ता का विषय नहीं रहा । आप!'
कहती - कहती बड़ी तेजी से वह अन्दर चली गई ।
पास खड़े एक सज्जन ने पूछा, 'केस बहुत सीरियस है ?"
'जी, दस दिन से न जीती है, न मरती है ।'
'बच्चा हुआ था ?'
'जी, बच्चा तो ठीक हो गया।'
'फिर....
'फिर क्या जी, अपने कर्म का लेख । बच्चा होने के सात दिन बाद इतना रक्त बाहर निकल गया कि ब्लड प्रेशर शून्य पर आा गया। खून के इंजेक्शन लगाने की बात चल रही है ।'
'खून के इंजेक्शन !' साथी अचरज से बोले ।
'जी हां,' निशिकांत ने कहा धौर तेजी से उठ खड़ा हुआ। धन्दर से उसकी मां घ्रा रही थी। उसके चेहरे पर घबराहट थी और प्रांखों में तरल निराशा ।
'क्या बात है ?' उसने शीघ्रता से अपने को सम्भाल कर मां से पूछा ।
मां कुछ नहीं बोली, केवल हाथ हिलाकर मानो कहा – 'क्या पूछते हो, पूछने का विषय ही अब समाप्त होने वाला है ।'
'फिर उठने लगी है ?'
'भागती है । नर्सों ने बांध दिया है और दूर कमरे में जहां कि...'
..........
'रह-रहकर कह उठती है— बच्चा ''मेरा बच्चा कहां है ?"
'मैंने कहा – 'बेटी, तेरा बच्चा घर पर है। लेकिन वह मानती नहीं । उठ- उठकर भागती है ।''
मां रोने लगी । निशिकांत नीचे देखने लगा। उसका हृदय जैसे फटना चाहता हो, प्रांखें जलने लगी हों। आंसू अन्दर ही अन्दर घुघां बनकर घुट गए। मां फिर आंसू पोंछते हुए बोली, 'मैं घर जा रही हूं। बच्चे के लिए किसी दूध पिलाने वाली को देखना है। दूध के बिना क्या वह बचने वाला'''''''
लेकिन जैसे ही वह जाने को मुड़ी, निशिकांत का छोटा भाई तेजी से साइ- किल पर आकर बोला, 'जल्दी घर चलो मां !'
मां चौंककर बोली, 'क्यों रे...?'
'चलो तो ।'
'आखिर...?'
वह बोल नहीं सका । रो पड़ा ।
निशिकांत समझा और समझकर हंस पड़ा, 'अरे रोता है, इतना बड़ा होकर । दुनिया में मरना जीना तो लगा ही रहता है...!'
लेकिन मां बावली-सी बोली, 'तू कहता क्या है ?”
फिर पागलों की तरह घर की तरफ दौड़ी। सड़क पर मोटर सन्नाटे से निकल गई। भाई ने साइकिल सम्भाली और निशिकांत सदा की तरह, हाथ कमर के पीछे बांधे, टहलने और सोचने लगा, 'यह दुनिया, यह सृष्टि, जीवन से मृत्यु, मृत्यु से जीवन, यह कैसा निर्माण चक्र । यह प्रेम, यह वासना, सबका वही
एक धन्न.....उसका मस्तिष्क चकराने लगा। उसे याद आया, युद्ध भूमि के उस महान दार्शनिक नित्शे ने एक स्थान पर लिखा है, 'स्त्री एक पहेली है जिसका हल बच्चा है !"
इतने में कई नसें मुस्कराती हुई उसके पास से निकल गई। एक ने निशि- कांत को देखा और कहा, 'आज सत्यभामा बेहतर है ।'
'थैंक्स, सब श्रापकी मेहरबानी है ।'
'लेकिन उसके बेबी का ख्याल रखिएगा ।'
निशिकांत एकदम कांपा । नर्स ने उसी तरह कहा, 'जब तक आप धाय का इन्तज़ाम करें, तब तक अपनी भावज का दूध पिलाइए । सत्यभामा हर वक्त बच्चा-बच्चा कहती रहती है !'
'जी' निशिकांत ने कहा, 'बच्चा बिलकुल ठीक है । धाय का प्रबन्ध कर लिया है ।'
दूसरी नर्स बोली, 'कभी यहां भी लाइए । '
'ज़रूर लाएंगे जी ।'
वे चली गई । निशिकांत की प्रांखें एक बार फिर प्रांसुत्रों से भर आईं । वह गुनगुनाया, 'स्त्री एक पहेली है और बच्चा उसका हल..!'
छोटी डाक्टरनी मुस्कराती हुई वहां आई । निशिकांत को देखकर ठिठकी और अंगरेजी में बोली, 'मिस्टर निशिकांत, सत्यभामा श्राज बेहतर है ।'
निशिकांत ने हाथ जोड़े और कृतकृत्य होकर कहा, 'बहुत-बहुत धन्यवाद ! वह आपके कारण जीवित है। आप कितनी मेहरबान हैं !'
डाक्टरनी ने सुना-अनसुना करते हुए कहा, 'उसका बच्चा कैसा है ? ' 'बिलकुल ठीक है...?'
'यह अच्छा है, क्योंकि सत्यभामा बच्चे के लिए जरूरत से ज्यादा चिन्तित है । '
इधर-उधर की दो-चार बातें करके वह चली गई और फिर सन्नाटा छा गया । धूप में भी तेजी आने लगी। निशिकांत उसी तरह सोचता हुआ टहलने लगा । परदेश से आई कोई स्त्री एक कोने में खड़ी थी। उसने भी निशिकांत को देखा। पूछ बैठी, 'क्यों भैया, बहू का क्या हाल है ?"
'अभी तो चल ही रहा है ।'
स्वर को संयत बनाकर वह बोली, 'मैं कहती हूं, इतनी देर जो लगी है, इसमें भला है । यह तो मरने में ही देर नहीं लगा करती । लेकिन बच्चा तो ठीक है न...?”
'बिलकुल ठीक !' उसने एकदम कहा और फिर चुप हो गया ।
दोपहर भी बीतने लगी । मिलने का समय भी आने लगा । फिर कोलाहल शुरू हो गया । नर-नारी फिर बातें करने लगे । इस बार बहुत-से बच्चे भी तोतली वाणी में अपने छोटे भाई-बहनों की चर्चा करने लगे। कुछ हंस रहे थे, कुछ के चेहरों पर चिन्ता की गहरी रेखा थी। कोई लड़के की बात कहता, कोई लड़की की । कोई-कोई मौत की चर्चा भी छेड़ देता। निशिकांत ने सबकी बातें सुनीं और अपनी सुनाई। कहा, 'भाई साहब, दुनिया का चक्कर इसी तरह चलता है। लड़का-लड़की, जिन्दगी मौत, सुख-दुख – ये सब अपनी-अपनी बारी से श्राया ही करते हैं ।'
'जी' उसकी बात सुनकर एक बोल उठा, 'आप ठीक कहते हैं ।'
दूसरे ने कहा, 'आप कहते तो ठीक हैं, परन्तु हमने तो कभी जिन्दगी में सुख देखा नहीं..."
एक तीसरा व्यक्ति बीच में ही बोल उठा, 'तो फिर आपके लिए जीना बेकार है'''!'
बहस तेजी से चलती, लेकिन घण्टी बज उठी और भीड़ बड़ी तेजी से अन्दर की तरफ भागी । निशिकांत आज अकेला था। भाई अन्य रिश्तेदारों के साथ जमुना पर चला गया था। मां श्र नहीं सकती थी। वह अकेला ही चुपचाप सत्यभामा के कमरे की ओर चला गया। उसने देखा - चारों ओर हंसी-खुशी का कोलाहल गूंज उठा है ।
केवल सबेरे वाले पुजारी ने व्यग्रता से गुमसुम पड़ी अपनी पत्नी को देखा और रो पड़ा, 'सोना, मेरी सोना, तू बोल तो ...!'
नर्स चिल्लाई, 'खबरदार जो यहां रोये !'
दूसरी तरफ एक युवती ने घबराकर पति से कहा, 'मैं जाऊंगी। यहां डर लगता है ।'
दूसरी स्त्री ने पति से पूछा, 'बच्चे को देखा है ?"
'नहीं ।'
'वह देखो, नम्बर चार के पालने में है । बिलकुल तुमपर पड़ा है।' 'सच !' और फिर वे दोनों मुस्करा उठे ।
तीसरी स्त्री अपनी भावज से चुपचाप बातें करने लगी। चौथी स्त्री की मां श्राई थी। पूछने लगी, 'डाक्टरनी क्या कहती है ?'
'ठीक हो जाएगा ।' 'कब तक ?'
'दो-चार दिन लगेंगे ।'
पांचवीं युवती ने पति से शिकायत की, 'तुम बड़े शैतान हो । मुझे किस मुसीबत में फंसा दिया !'
पति
'मुस्कराया, 'दो-चार महीने बीत जाने दो, तब पूछूंगा !"
दोनों हंस पड़े । लेकिन इन सबसे बचकर दूर एक एकान्त कमरे में निशि- कांत अपनी पत्नी के सामने जाकर खड़ा हो गया । वह पलंग पर लेटी थी मानो सफेद चादर को किसीने फुला दिया हो । नितान्त रक्तहीन चेहरा, कोई स्पन्दन नहीं, गति नहीं। कई क्षरण बाद प्रांख उठाकर ऐसे देखा जैसे अबोध बालक अपने चारों तरफ देखता है । शायद मुस्कराना चाहा, शायद मुस्कराई भी, चेहरे
पर एक अव्यक्त-सा भाव श्राकर चला गया ।
फिर धीरे से बोली, 'तुम'
'तुम'...?’
निशिकांत का दिल टूट रहा था, पर उसने अपनी सारी कोमल शक्ति बटोर- कर कहा, 'अब तो तुम ठीक हो ?'
वह बोली नहीं, बायें हाथ को उठाकर ज़ोर से पटक दिया । 'नहीं-नहीं,' निशिकांत ने कहा, 'ऐसे नहीं करते ।'
सत्यभामा बोली, 'बच्चा'...!'
वह बोला, 'हां, तुम्हारा बच्चा बिलकुल ठीक है ।' 'झूठ !'
'नहीं नहीं, वह घर पर है। उसे दूध पिलाने के लिए धाय रखी है।'
वह श्रांखें गड़ाकर देखने लगी, लेकिन उन श्रांखों में क्या था, यह बिना देखे कोई नहीं बता सकता। निशिकांत ने सहसा उन श्रांखों पर अपना हाथ धर दिया। कहा, 'एक दिन उसे यहां लाएंगे ।'
उसने महसूस किया कि सत्यभामा की आंखों की पुतलियां जोर से घूमीं ।
कुछ गीला-गीला लगा । उसने हाथ उठा लिया । धांसू की एक बूंद उसके हाथ से चिपककर रह गई। उसने हठात् अपने को संभाला । बोला, 'सत्यभामा !' 'जानो.... !'
'रस पीप्रोगी ?' 'नहीं...!'
'कैसी बातें करती हो, पी लो..."
वाणी एकाएक तीव्र हुई, 'तुम अभी तक गए नहीं । जाओ, नहीं ये तो नर्से तुम्हें जहर दे देंगी !'
निशिकान्त ने कुछ कहना चाहा, परन्तु वह बाहर चला गया। बाहर फिर वही कोलाहल, बच्चों की किलबिल, स्त्रियों का धारा प्रवाह प्रेम, स्नेह और चिन्ता, पुरुषों की गम्भीर मन्त्ररणा । कभी नर्सों का खटखट करते आना, दवा पिला जाना, कभी इनवैलिड चेयर पर किसी स्त्री का दर्द से कराहते हुए जाना । यह सब देखता निशिकान्त अन्दर के लान में टहलता रहा कि वक्त खतम होने से पहले एक बार फिर पत्नी को देख जाए, लेकिन जैसे ही वह अन्दर गया, सत्यभामा ने अजीब घबराहट से भरकर कहा, 'फिर श्रा गए ?" निशिकान्त बिना बोले सिर पर हाथ फेरने लगा ।
'सब मर गए, नर्सों ने सबको मार डाला !'
'नहीं'..!'
'जाओ !'
'सब खत्म - बच्चा भी खत्म !'
'बच्चा बिलकुल ठीक है । तुम देख लेना ।'
तभी नर्स ने कहा, 'बहुत मत बोलिए, मिस्टर निशिकान्त !'
दो-चार शब्द सान्त्वना के कहकर वह बाहर चला गया। उसका दिल भर आया । उसने प्रांसू पोंछ डाले । सब कोलाहल समाप्त हो गया। केवल रात का चपरासी बरामदे में टहल रहा था। उसने निशिकांत को देखा, 'बाबू जी, अब ठीक है न ?'
'कुछ है तो..."
'बस बाब जी. अब सब ठीक हो जाएगा। मैंने इससे कहीं बरे केस देखे हैं । एक लाला जी आए थे। उनकी लड़की सूजकर मांस का पिण्ड बन गई थी...."
रोज की तरह फिर वह अपनी कहानी सुनाने लगा, जिसमें घूम-फिरकर अपनी तारीफ करना उसका लक्ष्य रहता । कहता, 'आदमी की पहचान किसी- किसीको होती है । सच कहता हूं, आप हैं जो श्रादमी की कदर करते हैं । कभी खाली हाथ नहीं आते, हर वक्त दुआ मांगता हूं कि खुदाबन्द करीम इन बाबू जी का भला करना ।'
पूछ बैठा, 'बच्चा कैसा है ?" 'बिलकुल ठीक ।'
'खुदा का शुक्र है । बहू जी भी बिलकुल ठीक होंगी ।'
निशिकांत कांप उठा, न जाने क्यों । तभी बाहर की सड़क पर खोमचे वाले ने आवाज़ लगाई | नर्स ने खिड़की से झांककर कहा, 'श्रो शरीफ !' हुजूर !' चपरासी भागा ।
'खोमचे वाले को ज़रा बुलाओ। उसके पास चाट है न ?'
लेकिन वह रसगुल्ले बेच रहा था। बड़ी-बड़ी प्रांखों वाली नर्स ने कहा, 'हम चाट मांगता है
शरीफ ने कहा, 'खाइए, मिस साहेब, बड़ा मीठा है !'
'अच्छा तो ले आओ, लेकिन पैसे तुम देना । मेरे पास इस समय नहीं
'पैसे !' शरीफ हंस पड़ा, 'मेरे पास पैसे !'
एक क्षरण का वह सन्नाटा ! खोमचे वाले ने नर्स को देखा, नर्स ने शरीफ को और शरीफ ने बाबू निशिकांत को । निशिकांत का दिल टूटा पड़ा था । उसे इन सबसे नफ़रत हो रही थी। खोमचे वाले ने फिर कहा, 'जाऊं हुजूर ?' निशिकांत एकाएक बोल उठा, 'जाओ नहीं, पैसे मैं दूंगा ।'
'नहीं - नहीं', नर्स ने शीघ्रता से कहा ।
'कोई बात नहीं । अरे, मिस साहब को मीठे रसगुल्ले दो ।'
नर्स मुस्कराई, बोली, 'तुम बड़े अच्छे हो । सत्यभामा श्राज बेहतर है । आपका बच्चा कैसा है ?"
निशिकांत ने कहा, 'सब ठीक है, फिर मुड़कर बोला, 'लो शरीफ, तुम भी लो !'
'अजी नहीं बाबू जी ', शरीफ ने नन्न करते हाथ फैला दिए ।
नर्स थैंक्स देकर मुस्कराती अन्दर चली गई। शरीफ वहीं खड़ा खड़ा खाने लगा ।
चारों ओर अच्छा-खासा धुंधलापन छाया था । निशिकांत के दिमाग में कल्पना का बवण्डर फिर उमड़ने लगा । सोचने लगा, 'बच्चे को पत्थर से बांध- कर जमुना में डाल दिया होगा जल के जन्तु उसे खाने दौड़े होंगे वह मेरा बेटा था... मेरा अंग मेरा स्वरूप मेरे और सत्यभामा के प्रेम का साकार प्रतीक !'
...
शरीफ बोल उठा, 'अरे, प्राप नहीं खा रहे हैं, बाबू जी !' निशिकांत चौंका, 'मैं....!'
'हां, आप भी खाइए न ?”
'मेरे पेट में जोर का दर्द है, शरीफ, मैं नहीं खा सकता ।'
कहकर निशिकांत वहां से हट गया। उसकी कल्पना कभी उसे अपने निष्पन्द, निष्प्राण, जमुना के तल में समाए बच्चे को देखने को विवश करती; कभी मृत्युशय्या पर पड़ी सत्यभामा दिखाई पड़ती जो खोई-खोई-सी अपनी रिक्त प्रांखों से कुछ ढूंढने की व्यर्थं चेष्टा में लगी है और इन कल्पनाओं में डूबा वह चौंक पड़ता जैसे कोई पूछ रहा हो, 'बच्चा कैसा है ?"
तभी वह मुस्कराकर यंत्रवत् उत्तर देता, 'बिलकुल ठीक है !'
सारे कम्पाउण्ड में निशिकान्त के अतिरिक्त अब और कोई नहीं रहा था । उसने गम्भीर होकर अपने श्राप से कहा, 'सत्यभामा को बचाने के लिए मेरे अन्दर इतनी तीव्र लालसा क्यों क्यों मैं उसे मरने नहीं देना चाहता क्यों मैं...?'
और फिर अपने श्राप इस 'क्यों' का सम्भावित उत्तर सोचकर वह बड़े जोर से हिल उठा, 'नहीं-नहीं..!'
लेकिन उसकी वह तीव्र 'नहीं' भी 'क्यों' के सम्भावित उत्तर की सचाई से इनकार नहीं कर सकी ।