हानी मेरे बड़े भाई ने मुझे सुनाई थी। शायद इसकी नायिका अभी भी जीवित है । मेरी कल्पना में कुछ रंगना, हो सकता है, आ गई हो, लेकिन मूल घटना वैसी की कैसी ही है। दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में इसको तीसरा स्थान मिला था । लेकिन मैंने इसे वापिस ले लिया था। दो कहानियां नहीं जा सकती थी। बहुत-से लोगो का विचार है कि यह कहानी मेरी उस कहानी से भी अच्छी है जिसे प्रथम पुरस्कार मिला है। उस कहानी का रेडियो रूपान्तर भी प्रसारित हो चुका है ।
भूमिका
आपरेशन के बाद भी लगभग एक माह अस्पताल में रहना पड़ा । अचानक एक सन्ध्या को सोकर ग्रांख खुली तो क्या देखता हूं-नई नर्स बैठी हुई मेरी कहानी पढ़ रही है । वह इतनी तन्मय थी कि उसे मेरे जागने का पता नहीं लगा और मुझे भी उसका सौम्य मुख इतना प्रिय लगा कि मैं जान-बूझकर मोने का नाट्य करता हुआ लेटा रहा । सहसा उसकी दर्दभरी श्रांखें, जिनसे सदा एक प्रकार की आत्मीयता टपका करती थी, गदराई और फिर उनसे प्रांसू झरने लगे । तभी न जाने कैसी आहट हुई कि उसने चौंककर मेरी ओर देखा । जैसे चोर चोरी करता हुआ पकड़ा गया हो । सकपकाकर बोली- 'आप जाग गए ?"
'हां तुम रो रही हो ?"
'नहीं तो, नहीं, ऐसे ही कहानी पढ़कर ।'
'कैसी लगी कहानी ?"
'बड़ा दर्द है इसमें | क्या सच्ची है ?"
'काफी सच्ची है । बस भाषा मेरी है ।'
' तभी इतना दर्द है ।'
कहकर वह सहसा गम्भीर हो श्राई। मुझे लगा, दर्द इसके भीतर भी है । जबसे वह श्राई थी तभी से उसके श्रात्मविश्वास और आत्मीयता ने मुझे प्रभा- वित किया था। अब मैंने उसके समीप थाने का और भी प्रयत्न किया। और एक दिन उसकी कहानी जानने में सफल हो गया। उसी कहानी को मैं अपने शब्दों में नीचे दे रहा हूं । काश कि इसे उसीके शब्दो में दे पाता पर अपने
अज्ञान का क्या करू ?
कहानी
रेवती का जन्म उस प्रदेश में हुआ था जहां पहाड़ों की चोटियां हमेशा बर्फ से ढकी रहती है और जहां अब भी लोगों का विश्वास है, कि पार्वती रैमासी के फूलों को, अपने पावन दुकूल में भरकर, शंकर के चरणो में अर्पित किया करती है । इसी प्रदेश के अनुरूप था उसका रूप । हिम की कठोरता-सा बदन, सूर्य की किरणों से आलिंगन करते सजल बादलों की अरुणाभा सा मुख, वनश्री की सुषमा सा मानस, वह हंसती मानो निर्भर खिलखिलाते । श्रम की प्रतिमा वह कभी फेंटा कसे भैसों के पीछे घूमती, कभी खेत में जल्दी-जल्दी हसियां चलाती तो कभी पुप्राल का भारी बोझ उठाकर, जीवन के उतार-चढ़ाव जैसे पथरीले मार्गों पर दौड़ती। इसी तरह दौड़ते-दोड़ते न जाने किस अनजाने क्षरण में झरनों का छलछलाता हुआ संगीत, प्रेम के मंदिर संगीत में रूपान्तरित हो अब वह कभी श्रीधर के साथ बैठकर प्रेमालाप करती, तो कभी कुशला- नन्द उसे प्रेम-संगीत सुनाता ।
श्रीधर का गोरा चिट्टा रंग और लम्बा मुख आंखों को बड़ा प्यारा लगता था लेकिन उसमें एक अवगुण था, वह था उसका एकान्त भोलापन । वह ऐसे धीरे-धीरे बातें करता था मानो पुरवैया सरसराती हो। उसकी बातें सुनकर रेवती अक्सर मुंह में कपड़ा ठूंसकर हंस पड़ती
कुशलानन्द सुदृढ़, गेहुंघा उसका रंग और नक्श तीखे । उसकी प्रांखों में विश्वास बोलता । यद्यपि रेवती कभी-कभी उसके श्रभिमान से खीझ उठती पर उसकी बातें उसे अच्छी लगतीं। वह उससे मिलने पहाड़ी पार करके, खेतों के नीचे वाली पगडंडी पर जाया करती। उसके पास ही एक झरना बहता था, उसकी फुहारों में बैठकर वह कभी-कभी घण्टों कुशलानन्द की बातें सुनती रहती ।
वह कहता - 'मैं सेना में बड़ा अफसर बनूगा ।'
'मुझे शहर ले चलेगा ?'
'हां, मैं तुझे दिल्ली ले चलूंगा ।'
'दिल्ली !' - वह खिलखिलाती - 'सुना, वहा मोटरें चलती हैं। वहां की सड़कें ऊंची-नीची नहीं है।'
'ऊची-नीची ! पगली, वे बिल्कुल सीधी है ।'
'हाय ! राम । कैसे चलते हैं वहा के लोग ?'
श्रीधर खेत पर जाते हुए मार्ग में मिल जाता और दूर तक बातें करता हुआ साथ-साथ चलता । वह अक्सर कहा करता, 'मैं यात्रा के रास्ते पर एक बड़ी दूकान सोलूगा और खूब पैसा कमाऊंगा ।'
'पैसा ! ' — रेवती अनजान बनकर हंसती- 'पैसे से क्या होगा ?'
‘पैसे से क्या होगा ? पैसे से तेरे लिए सोने के गहने आवेगे, रेशमी कपड़े आवेगे, नया घर बनेगा। पैसे में बडा ज़ोर होता है पगली ।'
श्रीधर जब कभी पैसे की महिमा का बखान करता, तो रेवती सहसा श्राविर्भूत हो जाती । इसीलिए उसका रुझान यद्यपि कुशलानन्द की ओर था पर वह श्रीधर को भी एकाएक मन से हटा न सकी। और इसी उलझन में उसने एक दिन पाया कि वह मां बनने जा रही है। वह सहसा डर गई लेकिन वह डर भूचाल जैसा था । दूसरे ही क्षरण जैसे वह मिट गया, पर कम्पन अभी शेष था। वह दौडी-दौड़ी कुशलानन्द के पास पहुंची। तब उसका रक्तिम मुख लाज से और भी लाल हो गया था और वह बार-बार हंसते-हंसते रुक जाती थी।
'क्या हुआ तुझे ?' कुशलानन्द ने विस्मय से पूछा ।
'ऊहूं, नहीं बताती ।'
'तो मैं जाता हूं ।'
'नहीं, नहीं, बताती हूं । ठहर |..."
वह ठहर गया और रेवती हाथ से फेंटे को ऐंठती हुई कई क्षरण बाद बोली, 'जरा पास आओ ।'
वह पास आ गया ।
'और पास ।'
वह और पास भा गया। तब रेवती बोलने चली पर हुआ यह कि वह एक- टक देखती रह गई । वह और भी विमूढ़-सा बोला- 'क्या बात है ? बोलती क्यों नहीं ?"
रेवती ने तब जाकर कहा, 'बात क्या ? इतना भी नही समझते ।'
सहसा दृष्टि मिल गई । कुशलानन्द अवाक् रह गया। एक ऐसा तरल- पदार्थ रेवती के नयनों से छलक रहा था जिसने उसे ऊपर से नीचे तक एक अनिवर्चनीय रोमांस से गुदगुदा दिया। अब समझने को कुछ शेष नहीं रहा । कई क्षण भावावेश में वह रेवती से बातें करता रहा और चलते समय उसने उसे विश्वास दिलाया कि वह शीघ्र ही उससे विवाह कर लेगा ।
रेवती उस गौरव के भार से पुलक उठी और तीसरे दिन जब उसे नह समाचार मिला कि कुशलानन्द नीचे चला गया है तो उसे शंका करने का कोई भी कारण नहीं रह गया। मन ही मन उसने सोचा- अवश्य ही वह मेरे लिए गहने-कपड़े लेने गया है ।
श्रीर वह उत्सुकता से उसकी राह देखने लगी लेकिन एक-एक करके कई दिन बीत गए, कुशलानन्द नहीं लौटा। बस एक दिन इतना समाचार आया कि वह सेना में भरती होकर लाभ पर चला गया है। रेवती उस एक रात में कलंकिनी हो गई । कुशलानन्द के कपट श्राचरण और पाखण्डी जैसे प्रविश्वस- नीय व्यवहार ने उसकी सुषमा पर जैसे स्याही पोत दी । धीरे-धीरे वह अपवाद बाढ़ के पानी की तरह ऐसा बढ़ा कि आलोचना का विषय हो गया । और समाज के शब्द-बारा उसके कलेजे को बींधने लगे पर उसके प्रांसू तो शाश्वत हिम की तरह जम गए थे। वह स्वयं पत्थर बन गई थी। न हंसती न रोती । श्रीधर ने सब कुछ सुना। चोर की तरह उसी दिन वह उससे मिलने श्राया पर उस तिरस्कृता ने उसकी ओर देखा तक नहीं। वह उस दिन लौट गया पर फिर आने के लिए। और जब वह दूसरी बार आया तो उसने स्पष्ट कहा, 'मैं तुझसे आज ही शादी कर सकता हूं।'
रेवती सहसा इस प्रस्ताव का कोई जवाब नहीं दे सकी। वह तब खेत से लौट रही थी और उसके सिर पर पुमाल का एक बड़ा गट्ठर था। वह श्रीधर का मुख नहीं देख सकती थी । यद्यपि देखने की चाह उसे सिर का बोझ फेंक देने को कह रही थी। बहुत दूर तक वह मौन उसकी बात सुनती चली गई ।
फिर एक बारगी बोली, 'नहीं, यह नहीं होगा ।'
'क्यों ?'
'नहीं होगा। नहीं, यह नही होगा । उसने भावावेश में की चढ़ाई पर ऐसे चढ़ने लगी मानो उससे दूर भाग जाना चहात मे वह गिरते-गिरते बची क्योंकि श्रीधर ने आगे बढ़कर उसे ए तरह अपने हाथो में थाम लिया और सहज भाव से कहा, ध्यान रखना चाहिए ।'
इसी क्षण में रेवती की दृष्टि सहसा श्रीधर के मुख पर ज रह गई — कितनी शान्ति, कितनी गरिमा थी उस गोरे मुख पर 'क्या कहती हो ?' श्रीधर ने उसी सहज भाव से पूछा ।
रेवती एक क्षरण के लिए ठिठकी फिर एक बारगी उसने कहा - मुझे यहाँ से ले चलो।'
'कहां ?'
'कहीं भी।'
'अच्छा।'
श्रीधर और रेवती का विवाह हो गया और पति-पत्नी दो हरिद्वार में रहने लगे । यहीं रेवती के बेटे किशुन का जन्म हुआ। सुलभ व्रीड़ाओं से उस शिशु ने उस दम्पति के जीवन को र पूरा प्रयत्न किया और इसी प्रयत्न में पांच वर्ष बीत गए ।
लेकिन ये पांच वर्ष रेवती और श्रीधर को एक दूसरे का न बना सके । रेवती अक्सर एकान्त में झुमैलो के वेदनामय गीत गाया करती थी और गोरे मुख वाला श्रीधर शराब पिया करता था, जुआ खेला करता था । वैसे वे कभी आपस में नही लड़ते थे। बल्कि एक दूसरे को प्यार करने का पूरा प्रयत्न करते थे । वे किशुन को भी प्यार करते थे । जैसे वे दो किनारे हों और किशुन धारा हो, धारा जो किनारों की होकर भी उन्हें कभी नहीं मिलने देती । किशुन को देखकर दोनों को कुशलानन्द की याद आ जाती। वही रूप रंग, वही हाव- भाव, रेवती का दिल दर्द से टीस उठता और श्रीधर को लगता जैसे वह पराया है ।
रेवती इस अवस्था के लिए श्रीधर को कभी दोष नहीं देती। वह बार-बार अपने को धिक्कारती और कहती- यह ठीक हुआ। मुझ जैसी पापिष्ठा के लिए इसकी जरूरत थी ।
एक दिन एकान्त पाकर वह भुमैलो की कडियां गुनगुना रही थी 'ऋतुएं चक्कर लगाकर लौट आई, वनों में ग्वीराल और वुराम फूल गए । झालदार पेड़ों पर झुकी हुई डालियों में 'घुगती' धू धू कर रही है और नदियों की गहरी घाटियों में 'मेलोडी' वियोगिनी की भांति अपनी व्यथा सुना रही है, कि सहसा उसकी सिसकी फूट निकली। उसने दोनो हाथों में अपना मुंह छिपा लिया और तकिए पर गिरकर देर तक रोती रही। तब तक रोती रही जब तक उसने द्वार पर जोर की आहट नहीं सुनी। कोई उसे पुकार रहा था। उसे लगा जैसे वह उस स्वर को पहचानती है । वह हडबडा कर उठी और तुरन्त बाहर भागती चली गई । देखा - रामलाल है। पति की दूकान के बराबर ही उसकी दूकान है। उसने तीव्रता से हाफते हुए एक सांम में कहा, 'श्रीधर ट्रक के नीचे आ गया।'
'क्या ?'
'किशुन सड़क पर खेल रहा था कि एक ट्रक दौड़ती हुई आई। वह किशुन को कुचल देती पर श्रीधर ने भांप लिया। वह दौड़कर उसके पास पहुंचा पर इससे पहले वह निकल पाता ट्रक उसकी टांगों को कुचलती हुई भूकम्प की तरह निकल गई...।'
जितनी देर रामलाल बोलता रहा उतनी देर भी वह वहां नही रुकी रही। पागल सी दौड़ती हुई वहां पहुंची जहां लोगों की भीड़ में किशुन चीख-चीखकर रो रहा था और श्रीधर पड़ा था संज्ञाहीन, रक्त से लथपथ । उसे देखकर भीड़ काई की तरह फटती चली गई। भय और प्रातंक से हतबुद्धि एक क्षरण उसने सब कुछ देखा, दूसरे क्षरण एक हाथ से किशुन को छाती से चिपकाकर वह श्रीधर के पास जा बैठी और पागल-सी प्रवाक् उसके शरीर को टटोलने लगी '''।
तीसरे दिन अस्पताल में श्रीधर की एक टांग काट देनी पड़ी। अपनी सारी कोशिशों के बावजूद रेवती उसे अपंग होने से न बचा सकी। एक बार तो उसने उसकी वाणी कठोर थी जैसे बर्फीली वायु बदन को छेद रही हो। कहकर वह तेजी से अन्दर भागती चली गई पर किवाड़ बन्द करना भूल गई। उसी खुले द्वार से कुशलानन्द अन्दर चला श्राया । सबसे पहले उसकी दृष्टि सोते हुए किशुन पर पड़ी। वह ठिठक गया। रेवती भी तब उसीको देख रही थी । कम्पित स्वर में कुशलानन्द ने पूछा, 'तुम्हारा बच्चा है ?"
वह सिंहनी-सी मुडी । बोली, 'हां, मेरा बच्चा है । तुम यहां क्यो याए ? चले जाओ। जाओ ।'
कुशलानन्द गया नही बैठ गया। कहने लगा, 'जाना तो है ही। श्रीधर को देखने प्राया था ।'
'दूर से ही देखना हुआ । बेचारा।'
रेवती तड़पकर बोली, 'तुम्हे वहां जाने का ''
पर वह वाक्य पूरा कर पाती इससे पूर्व क्या देखती है कि कुशलानन्द उसके चरणों को जकड़कर पकड़े हुए है और अपना सिर उनपर दे देकर मार रहा है। इस आकस्मिक घटनाचक्र के कारण रेवती से संभलना कठिन हो गया । उसे लगा कि वह संज्ञा खोती जा रही है। जब उसकी संज्ञा लौटी तो श्रांखें फाड़-फाड़कर देखा, वहां कोई नही था । देर तक इस सबको अविश्वसनीय और अकल्पनीय मानती हुई वह द्वार की दिशा में देखती रही। फिर वही बच्चे के पास लेट गई और फफक-फफककर रो उठी। द्वार उसी तरह खुला पड़ा रहा ।
उसने किशुन को बार-बार अपनी छाती मे समेटा फुसफुसाई, 'कपटी, छलिया, चोर अब तो पहले से भी पहले से भी''।' सहसा उसने अपनी जीभ काट ली ।
कुशलानन्द अगले दिन फिर श्राया। रेवती जानती थी कि वह आएगा पर वह उससे बोली नहीं । वह सारा समय क्षमा मांगता रहा, 'मैं बहुत कमजोर निकला - बहुत कमजोर। मैं घर वालों का विरोध न कर सका।' पर रेवती ने कोई जवाब नहीं दिया । उसने किशुन को प्यार करना चाहा पर वह पास नहीं आया । जब वह चला गया तो किशुन ने मां से पूछा, 'अम्मा यह कौन था ?' 'कौन ?' - वह चौंकी ।
'यह जो प्राया था।'
'यह' ''यह अपने गांव का एक आदमी था ।'
कहकर वह हंस पड़ी और बार-बार उसका मुह चूमने लगी। फिर दो दिन कुशलानन्द नहीं आया, पर तीसरे दिन काफी रात गए रेवती ने द्वार पर आट सुनी। वह नहीं उठी । श्राहट फिर हुई, वह नहीं उठी। एक लम्बे क्षरण के बाद आहट फिर हुई। इस बार उसने किवाड़ खोल दिए। वह अन्दर प्राकर बहुत देर तक कुण्ठित मन मौन बैठा रहा। फिर बोला, 'मै अब जा रहा हूं। मैंने बहुत बड़ा पाप किया हैं ।'
रेवती अन्धकार की ओट में मूर्तिवत बैठी रही। उसने फिर कहा, 'मेरे कारण तुम इतने कष्ट में हो ।'
रेवती अब भी नही बोली । उसीने कुछ क्षरण रुककर कहा, 'मैं अब और तो क्या कर सकता हूं पर पर मेरे पास कुछ रुपए हैं और तुम्हे" रेवती अब तड़पी, 'मुझे रुपयों की जरूरत नही है ।'
'नहीं ।'
वातावरण फिर मौन हो गया। इस वार रेवती बोली, 'श्रीर कुछ कहना
'हा ।'
'क्या' ।'
उसने कहना चाहा पर बार-बार प्रयत्न करने पर भी वह हकलाने लगा । रेवती वैसे ही देखती रही, देखती रही। प्राखिर वह बोला, 'मुझे माफ कर दो । मैं अब भी अब भी'''''
वह एक सांस में सब कुछ कह गया। रेवती का शरीर तीव्रगति से सिहर उठा । लेकिन अचरज, तब वह क्रुद्ध नहीं हुई, न रोई मानो जो कुछ उसने सुना उसे सुनने की उसे श्राशा थी क्षण भर बाद उसने बड़े विनम्र स्वर में कहा, 'तुम यहां से चले जाओ। क्यों बेकार वक्त खोते हो ।'
शब्दों में इतनी श्रात्मीयता, इतनी स्निग्धता थी कि कुशलानन्द विस्मय और लज्जा से गड़ गया, बहुत समय तक विमूढ़-सा बैठा रहा। अन्त में थककर उठा और रुंधे कंठ से बोला, 'जाऊं ?'
'हां, फिर मत आना ।'
वह मुड़ा पर किशुन को देखता हुआ ठिठक गया मानो प्रार्थना करता हो, क्या एक बार बच्चे को ... ।
रेवती ने मना करना चाहा पर कर न सकी। कुशलानन्द ने धीरे-धीरे पास श्राकर बच्चे को चूमा, फिर वह मुड़ा और चला गया, सैनिक की भांति बढ़, शान्त और मौन । रेवती उसी दिशा में देखती बैठी रही। वह अन्धकार में खो गया तब भी देखती रही। बहुत समय बाद उठी, द्वार बन्द किया और बेटे के पास लेट गई। उसका सिर अपनी छाती पर रख लिया और उसके बदन को अपने बदन से ऐसे सटा लिया मानो अपने भीतर समेट लेना चाहती हो !
इसके बाद कुशलानन्द नहीं आया। हां, एक टांग खोकर श्रीधर अस्पताल से लौट आया। उसके स्वभाव में काफी परिवर्तन आ गया था । क्रोध और खीझ का आवरण ओढकर दुर्बलता उसके अन्तस्तल पर कनखजूरे की तरह चिपक गई थी। वह रेवती को अपने लिए पिसते देख रहा था फिर भी वह उसके और अपने बीच की अदृश्य खाई को नहीं पाट सका। जाने-अनजाने यही विवशता उसके दुर्बल मन को अब और भी पथभ्रष्ट करने लगी । वह धीरे-धीरे और भी अधिक जुआ खेलने लगा, और भी अधिक शराब पीने लगा । घर पर कभी-कभी मार-पीट की नौबत श्रा जाती । किसी दिन कहीं से अधिक चढ़ा आता तो उस दिन तूफान मचा देता । रेवती रो-रो पड़ती, 'तुम्हें यह क्या हो गया है ?'
एक दिन शराब की झोंक में श्रीधर मस्ती से बोला, 'दुनिया में औरों की बीवियां है जो अपने पतियों से बेवफाई करती हैं पर तुम हो कि बेवफा भी नहीं हो सकतीं ।'
स्तब्ध - मौन रेवती तब उसे देखती रह गई और जब अगले दिन सवेरे ही उठकर उसने सदा की तरह माफी मांगी तो उसे प्यार से डांटकर बोली, 'चुप करो ।'
'काश कि मैं चुप हो जाता। हमेशा के लिए चुप । ...
'कैसे प्रादमी हो जी, जो ऐसे कहते हो। तुम क्या नहीं कर सकते ?" सदा की तरह सन्ध्या होते-होते यह रोमांस भी समाप्त हो गया और श्रीधर फिर दुर्बलताओं के चक्रव्यूह में फंस गया। रेवती सोचती कि यह सब ठीक-ठीक इलाज न होने के कारण है। काश कि उसके पास पैसा होता । होता तो वह मन के अनुसार इलाज करवाती। पर्वत की बेटी श्रम से नहीं डरती पर श्राज युग में पैसा श्रम से नही मिलता...लेकिन जोर पैसे का है। तो वह क्या करे ...क्या करे... कहां से लाए पैसा ?
कभी-कभी वह खीझ उठती, 'कितना करती हूं इनके लिए फिर भी यह हाल है। इनसे तो किशुन अच्छा है। पास पड़ौस में क्या नहीं देखता। मांगता भी है पर जब मैं एक बार मना कर देती हूं तो फिर नहीं बोलता और ये हैं कि जीना दूभर कर रखा है।' लेकिन दूसरे ही क्षरण वह कांप उठती, 'नहीं, नहीं, उस चोट ने इन्हें ऐसा कर दिया है नहीं तो ये कितने बड़े है, कितने बड़े !'
और तब वह पश्चात्ताप की ग्लानि से रो रो पड़ती।
एक दिन श्रीवर शराब पीकर नहर के किनारे-किनारे लोट रहा था, सामने से सरकारी ट्रक आ गई। उससे बचने की कोशिश मे वह लड़खड़ा गया और फिर लुढका हुआ नहर में जा गिरा।
तीसरे दिन एक पुल मे अटकी हुई उसकी लाश मिली। तब रेवती ने जो विलाप किया उससे सुनने वालों के हृदय विदीर्ण हो गए। लेकिन उससे क्रिया- कर्म का झमेला तो रुक नहीं सकता था। किसी तरह उससे निबटने के बाद रेवती ने पाया कि अब वह निपट अकेली है। उसे वेदनामय गीतों की फिर याद आने लगी। उसके अर्थो के सहारे वह फिर दूर पहुंच जाती लेकिन अब उसे किशुन की चिन्ता है। वह बाहर से
वह सिसक-सिसककर नहीं रोती।
खेलता-खेलता श्राता और पूछ बैठता 'अम्मा ! काका कहां चले गए ?" 'काका तेरे बहुत दूर चले गए हैं। बहुत-सा पैसा लावेंगे ।'
'और खिलौने लावेंगे ?'
'हां ।'
'किताब लावेंगे ?'
'हां ।'
किशुन हंस पड़ता और मां की गोद में बन्दर की तरह कूद-कूदकर कहता 'अब मैं पढ़ने जाऊंगा। अम्मा, अब मैं पढ़ने जाऊंगा । है न ? मुन्ना, रामू, गोपाल और हरि और दीनू सब जाते है ।'
'हा, हां, एक दिन मैं तुझ पाठशाला ले चलूंगी।'
और फिर रेवती उसे लेकर उलझ जाती । जान-बूझकर शैशव की बातें कुरेदती श्रीर बहुत सा समय इसी तरह हंसते-हंसाते बिता देती। पर जीवन केवल हसने रोने की प्रांख-मिचौनी का नाम नही है। रेवती सोचती है-वह अब क्या करे ? क्या पति की दूकान चलावे या कहीं और चली जावे । क्या वहीं लौट जावे, जहां से एक दिन वह चुपचाप चली आई थी या या फिर कुशलानन्द
कुशलानन्द का नाम याद आते ही वह एक बार मलेरिया की जूड़ी की तरह कापी, फिर अस्फुट स्वर मे कुछ अस्पष्ट-सा बोली। फिर मौन हो गई पर मौन तो सहस्र जिल्ह्वाओं से बोलता है। कोई कान में सुना गया, 'तुम्हारा बेटा उसका बेटा है। तुम अब अकेली हो । तुम उसीकी हो।' उसने मन ही मन कहा, 'जो अब तक न हो सका वह क्या अब होगा "
और अगले दिन उसने क्या देखा, 'कुशलानन्द उसके सामने खड़ा है । वही रंग, वही रूप, वही वेश । वह सिहर उठी । बोली- 'श्राप तुम कब श्राए ?'
'अभी ।'
फिर दोनों बहुत देर शोकाकुल मौन बैठे रहे। जब वह बोला भी तो बस शोक प्रकट करके चला गया। फिर तीन दिन तक उसका श्राना नहीं हुआ। हां, अपरोक्ष रूप से उसका सन्देशा थाया। चौथे दिन वह स्वयं प्राया । रेवती ने कनखियों से उसे देखा और सिर झुकाकर बोली, 'बैठी ।'
कुशलानन्द बैठ गया । कुछ समय मौन बैठा रहा फिर पश्चात्तापदग्ध स्वर में बोला, 'जो कुछ हुमा बुरा हुआ पर अब उस सब कुछ को भूल जानो ।'
रेवती सहसा दोनों हाथों से मुंह छिपाकर रो पड़ी। हतबुद्धि कुशलानन्द एक क्षण तो घबराया फिर उसके चरणों के पास आ बैठा, और उसके मुह की ओर मुंह करके कहने लगा, 'न, न रोयो मत। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा । जब भी....
एकाएक रेवती ने सिर उठाकर, रुंधे स्वर से कहा, 'तुम क्यों आ गए !'
'क्योंकि ''" क्योंकि मैं अब भी तुमसे प्रेम करता हूं।'
फिर कई क्षण तक रेवती कांपती रही, उसका वक्षस्थल अनियमित वेग से उठता रहा, गिरता रहा ।
'मैं सच कहता हूं। मैं बहुत सज्जा पा चुका ।'
रेवती नहीं बोली।
'क्या तुम मुझे मेरे बेटे को बेटा कहने का अधिकार नही दोगी ?"
रेवती अब भी मौन रही ।
'क्या तुम मुझसे प्रेम नहीं करती, बोलो ?'
इस बार रेवती ने दृढ़ स्वर में कहा, 'करती हूं !'
वह हर्षविभोर हो उठा, 'मैं जानता था, मैं जानता था ।'
लेकिन फिर वही अशुभ मौन । कुशलानन्द विह्वल होकर कहा, 'अब क्या सोच रही हो ? उठो, चलो, श्रभी चलो ।'
रेवती पहले जैसे दृढ़ स्वर में बोली, 'एक बात सुनो।'
'मैं अब कुछ नहीं सुनूगा ।'
'वह तो सुनना होगा । तुमने कुछ भी किया हो, मैं तुम्हे हमेशा चाहती रही, अब भी चाहती हूं। चाहती हू काश कि वे दिन लौट आवें पर एक बात सोचती हूं, तुम्हारे प्यार की निशानी तुम्हारा बेटा मेरे पास है लेकिन "
'लेकिन क्या ?'
'लेकिन जिसने दो-दो बार तुम्हारे बेटे के शरीर में अपने प्राण उंडेले उसकी तो मेरे पास याद ही बाकी है"
वाक्य पूरा करते-करते रेवती गीले बादल-सी बोझिल हो उठी, बोली, 'हाथ जोड़ती हूं। उसे अपवित्र मत करो। तुम चले जाम्रो । चले जाम्रो ।'
विस्मय-विमूढ़ कुशलानन्द को लगा जैसे उसका सिर ब्रह्माण्ड की गति से घूम रहा है । निमिष मात्र में प्यार करने का पुराना इतिहास रत्ती रत्ती याद प्रा गया और याद भा गई अपनी लज्जा की कहानी, पर इस दृढ़ नारी के सामने वह सारा व्यतीत जैसे घुल-पुछ गया हो। उस निमिष रेवती का मुख भी एकाएक बदल गया । देखा, 'विषाद, निराशा, प्रशान्ति वहां कुछ नहीं है, अभि- मान भी नहीं है । है, केवल प्रगाध विश्वास और उससे भी बढ़कर अपूर्व शान्ति... कई क्षरण श्रात्मविभोर वह उसे देखता ही रह गया फिर निश्शब्द बाहर चला गया । चला गया तो रेवती ने उस ओर देखा । फिर दांतों से ओठों को दबाकर श्राती हुई रुलाई को बलपूर्वक रोका, 'नहीं, अब वह अपने प्रांसू किसीको नहीं दिखाएगी। अब वह अपनी व्यथा को आप पिएगी और जिएगी। हां, वह जिएगी ।'