दूसरी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में इसे प्रथम पारितोषिक प्राप्त हुआ। इस कहानी को लेकर जितना मतभेद दिखाई देता है उतना शायद किसी ही कहानी को लेकर हुआ हो । किसीको यह कहानी भुलाए नही भूलती। किसीको मेरी यह सबसे रद्दी कहानी माल होती है । कुछ लोग इसे निहायत गन्दी कहानी कहते है और कुछ लोग 'रश्मि ' को आदर्श मानते हैं । लोकप्रियता का यह काफी प्रमाण है । लेकिन मुझे यह कहानी इसकी कमियों के बावजूद प्रिय है। जब भी प्रिय रहती यदि इसको पारितोषिक न मिला होता । इसका प्रेरणा के स्रोत की है। उनमें विचार भी है और व्यक्ति भी । यह कहानी लिखकर मैने बहुत कुछ सीखा है और में समझता हूं अब भी मै बहुत कुछ लिख सकता हूं ।
प्रदीप
रश्मि मुझसे पहली बार कब मिली यह आज मुझे ठीक-ठीक याद नहीं । शायद वह नदी किनारे किसी पिकनिक पार्टी में मिल गई थी। तब उसके साथ उसका छोटा बेटा था। मेरी ओर संकेत करते हुए रश्मि ने उससे कहा था- 'देखो, वह प्रदीप है, जिनका मैं तुमसे जिकर किया करती हूं।'
यह बात मैंने चलते-चलते सुन ली थी और तब मैंने उसे कुछ गौर से देखा था । प्रथम दृष्टि में उसे सुन्दर कहना बीसवीं सदी के सौन्दर्य का अपमान हो सकता है । हां, यदि किसीके पास दूसरी दृष्टि हो, तो वह निस्सन्देह रूपवती थी । उसके पतले ओठों पर और काली प्रांखों में एक मुसकान थी जो नितान्त स्वाभाविक थी - जैसे एक प्रेमिल ज्योति से उसका मुख सदा देदीप्यमान रहता था। मुझे यह भी याद है कि तब उसने साड़ी पहन रखी थी और उसकी चाल- ढाल में स्वाभाविक अल्हड़ता थी । पल्ला जब अपने स्थान से हट जाता था तब वह उसे बार-बार उठाकर, अतिशय जागरूक नारा की तरह इधर-उधर नहीं देखती थी, बल्कि लापरवाही से उसे ऊपर फेंककर बातों में व्यस्त हो जाती थी।
दूसरी बार रश्मि मुझे अचानक सड़क पर मिल गई। दूसरी बार मैं केवल आपके सुभीते के लिए कह रहा हूं। वरना इन मुलाकातों के गणित के बारे में मैं बिल्कुल सही होने का कतई दावा नहीं करता । वह सड़क वाली मुलाकात काफी लम्बी हो गई थी । तब वह अकेली थी और मुझे भी कोई विशेष काम नहीं था । बातें क्या-क्या हुई; उसका ब्योरा मेरे पास नहीं है, पर उस दिन ज़्यादातर बोलने का काम उसीने किया था। मैं तो लगभग सारा समय उसके
मुख 'को ही देखता रहा था। न जाने कौन-सी बात के बाद उसने कहा था, 'मैं तुम्हें युग-युग से जानती हूं ।'
मैंने कहा, 'मुझे तो याद नहीं पड़ता कि हम कभी मिले हों ।'
वह बोली, 'किसीको जानने के लिए क्या उससे मिलना जरूरी है ?" मैंने सहसा कुछ नहीं कहा, वही बोली, 'बताओ न ?'
मैंने उसे देखते हुए कहा, 'नहीं, कोई जरूरी नहीं ।'
तब वह हंस पड़ी थी और उसने कहा था, 'तुम्हारी सब रचनाएं पढ़ चुकी हूं और मैंने ऐसा महसूस किया है कि जैसे तुम्हारी कलम के साथ मेरा तादात्म्य भाव रहा है ।'
'मैं भाग्यशाली हूं,' मैंने मुस्कराकर कहा ।
वह बोली, 'शिष्टाचार की भाषा बडी कृत्रिम होती है और मैंने कहीं पढ़ा है कि कृत्रिम प्रौर कुरूप परस्पर समान हैं ।'
इस चोट से मैं तिलमिला उठा था, पर फिर भी उसे पीकर मैंने कहा था, 'तुम बहुत पढ़ती हो ।'
'ऊ हूं । पढ़ने लायक बहुत कहां मिलता है ? बहुत कुछ तो दाल पर के उफान की तरह का होता है ।'
लेकिन उस दिन की एक खास बात जो मुझे याद है वह यह है कि बातों के बीच में अचानक वह हड़बड़ाकर बोली, 'प्रोह, देर हो गई । वह राह देखेंगे ।'
और फिर हंसती हुई वह जैसे आई थी वैसे ही चली गई । उसके बाद हम अक्सर मिलते रहे। मैं उसके घर भी गया। उसके बच्चों से मेरा अच्छा सम्बन्ध हो गया, पर उसके पति से मैं देर तक नहीं मिल सका। वह सरकार के किसी विभाग में एक बड़े अफसर थे । सबेरे कार में बैठकर जाते थे और अन्धेरा होने पर लौटते थे । दूर होने के कारण लंच वगैरह का प्रबन्ध भी उन्होंने दफ्तर के पास ही कर लिया था ।
पर एक दिन अचानक उनसे भेंट हो ही गई । रश्मि, बच्चे और मै बैठे चाय पी रहे थे कि वे श्रा गए। रश्मि सहसा हड़बड़ाकर उठी । यह सब एक क्षरण से भी कम समय में हुआ, क्योंकि जब वह बोली तब उसका स्वर बिल्कुल स्वाभाविक था । उसने कहा, 'आ गए ?'
'हां, कुछ जल्दी लौट आया।' कहकर उन्होंने एक उड़ती नजर सबपर डाली, मुझपर अटक गए ।
रश्मि बोली, 'प्रदीप है ।'
सुनकर सहसा उनके चेहरे पर अनेक रंग आए और गए ।
पर वह तुरन्त ही बोले, 'तो आप हैं प्रदीप ? '
और फिर दृढ़ता से आगे बढ़कर उन्होंने मेरा हाथ झंझोड़-सा डाला, 'तो आप प्रदीप हैं। मिलकर खुश हुआ, बहुत खुश ! भाग्यशाली हो दोस्त । यहां तो सरकारी मालगाड़ी के डिब्बे हैं । प्राप हैं कि जीते हैं ।'
और मुझे कुछ भी कहने का अवसर न देकर वह बाहर जाने को मुड़े । रश्मि ने कहा, 'चाय नहीं पियोगे ?'
'नहीं'
'प्रदीप क्या कहेंगे ? कहां जा रहे हो ?'
'प्रदीप कलाकार हैं । वह हमारी दुनिया के इन छोटे-छोटे शिष्टाचारों की चिन्ता नहीं करेंगे ।'
और वह चले गए। जैसे धुएं का एक बादल उमड़ा और एक घुटन छोड़- कर चला गया । अच्छा नहीं लगा, पर रश्मि थी कि हंस पड़ी, 'गजेटिड ग्राफिसर हैं। अपना स्वभाव कैसे छोड़ें ? अपनी करेंगे ।'
कुछ देर बाद मैं भी चला आया और फिर कई दिन तक रश्मि से नहीं मिला । जानबूझकर टालता रहा, पर एक दिन वह अचानक दफ्तर में श्रा धमकी, बोली 'बहुत नाराज हो ?'
'नहीं, नहीं तो ।'
'झूठ मत बोलो।' 'झूठ ?"
'झूठ तो है ही । नहीं है ?"
'है ।' -- मैंने सहसा मुस्कराकर कहा ।
वह तब अपने स्वभाव के विपरीत दो क्षरण चुप रही, फिर बोली, 'कोई किसीको इतना प्यार क्यों करता है ?"
मैंने सहसा उसे देखा । वह उसी तरह मुस्करा रही थी, पर जैसे ग्राज वह कुछ-कुछ तरल हो । मैंने कहा, 'जो प्यार करने वाला है वही इस बात को जानता है ।'
'ना, वह नही जानता ।'
'तो शायद वह प्यार नही करता ।'
'क्या प्यार के लिए उसके काररण का ज्ञान जरूरी है ?"
मैने घबराकर कहा, 'रश्मि, ज्ञान जरूरी न हो, पर होता तो वह जरूर है ।'
'होता है, पर क्या उसे जानना जरूरी है ? यह मैं तुमसे पूछती हूं।' 'मुझे इसका जवाब एकाएक नहीं सूझता ।'
'ऐसा अक्सर होता है, पर जब तुम कोई कहानी लिखोगे, तब इस प्रश्न का उत्तर तुम्हारी कलम की नोक पर ऐसे ही श्रा जाएगा जैसे सूर्योदय होते ही प्रकाश फूट पड़ता है ।'
फिर उठती हुई बोली, 'उठो, कहीं घूम आएं।'
मैंने आपत्ति नहीं की और कुछ देर बाद दूर एकांत में नदी किनारे हम फिर बातों में रम गए । रात्रि और दिवस के उस संधिकाल में वह मुझे बड़ी प्रिय लगी। वह बातों में तन्मय थी और मुझसे सटकर बैठी हुई थी। न जाने कब और कैसे मैंने उसके मुंह को अपने दोनों हाथों में पाया तो मैंने एकाएक उसे चूम लिया। उस क्षण उसने तनिक भी प्रतिरोध नहीं किया पर जैसे ही मैंने उसे मुक्त किया वह द्रवित होकर बोली, 'यह तुमने क्या किया ?'
'मैं स्वयं नहीं जानता ।'
'नहीं, नहीं,' उसने श्रौर भी विह्वल होकर कहा, 'मुझे अपने से दूर मत करो ।'
'क्या कहती हो ?'
'कहती हूं अब क्या इज्जत रहेगी मेरी, तुम्हारी दृष्टि में ?"
और वह तीव्र गति से कांपने लगी। उसका मुख विवर्ण हो आया । नेत्रों की ज्योति फीकी पड़ गई और उसने सहारे के लिए धरती पर जोर से हाथ दबाया। मैं इतना घबरा उठा कि न तो चिल्ला सका, न उसे छू सका । पर कुछ ही क्षण में वह शान्त हो गई और स्वाभाविक स्वर में बोली, 'मैं तो सदा तुम्हारे साथ रहती हूं । तुमने मुझे दूर क्यों समझा प्रदीप ? मैं तुम्हें चाहती हूं, शरीर को नहीं। शरीर तुम नहीं हो ।'
जैसे सहस्र बिच्छु ने एक साथ काटा हो, मैने चीखकर कहा, 'रश्मि, तुम इतनी रहस्यमयी हो ?'
'कहां, प्रदीप ? मैं मन्दिर में पूजा के प्रदीप कहां जलाती फिरती हूं। मैं तुम्हें चाहती हूं, केवल तुम्हें !'
'और अपने पति को नहीं ?' मैं कुछ कठोर यन्त्रवत चिल्लाया ।
'पति को चाहती हूं। वह तो कर्तव्य है । उसकी मैंने प्रतिज्ञा ली है ।' 'उस कर्तव्य में क्या प्रेम की शर्त नहीं है ?"
'है, पर निस्सीम स्वार्थ ने उसे सीमित कर दिया है। प्रेम जब सीमा का बंधन स्वीकार करता है तभी वह कर्तव्य बन जाता है। और फिर तुम क्या वही चाहते हो जो स्वामी को दे चुकी हूं ? देवता पर क्या निर्माल्य चढ़ाया जाता है ?"
मैं कई क्षण चुप रहा। वह मुझे देखती रही। मैंने कहा, 'तुम मेरे पास मत आया करो।'
'नाराज होकर कहते हो या प्रेम से ?'
'मुझे तुमसे प्रेम करने का कोई हक नहीं है । तुम्हारे पति हैं और वे बड़े ईर्ष्यालु हैं ।'
'तुम्हें क्रोध भा रहा है प्रदीप ।'
'क्या वह ईर्ष्यालु नहीं हैं ?"
'बेहद हैं ।'
'फिर ?'
'फिर भी मैं उन्हें प्यार करती हूं।'
'रश्मि !'
'सच कहती हूं। मै उन्हें प्यार करती हूं। बेशक वे ईर्ष्या करते हैं, क्योंकि उनमें स्वामित्व की भूख है; पर प्रदीप, उनमें शरीर की भूख नहीं है । शरीर उनका है पर वे भूखे नहीं हैं।'
'क्या कहती हो ?'
'जो कुछ कहती हूं वह तुम समझते हो।'
मैंने पूछा, 'तुम्हारे पति को पता लग जाए कि तुम यहां घाती हो, तो क्या हो ?"
'पता क्या नही लगता ? वह टोह में रहते हैं और जब पूछते हैं तब मैं छिपाती नहीं ।'
'फिर ?'
'फिर क्या, युद्ध होता है। कई दिन वह खाना नहीं खाते। मैं भी नहीं खाती, पर फिर सब ठीक हो जाता है।'
'ऐसा अक्सर होता है ?" 'अक्सर'
'फिर तुम आती क्यों हो ?" 'पता नहीं।'
'यह क्या मोह नहीं है ?"
उसने मुझे देखा । क्या बताऊं वह कैसी दृष्टि थी। कई क्षरण तक देखती रही देखती रही। फिर वह सहसा उठ खड़ी हुई, हंसी और बोली, 'श्रोह ! वह आने वाले होंगे, जाती हूं ।'
बहुत दूर हम साथ-साथ चले, मौन। फिर एक नियत स्थान पर भाकर उसने हाथ जोड़कर गहरे स्वर में कहा, 'अच्छा' और वह चली गई। देर तक वह 'अच्छा' शब्द मेरे हृदय का मन्थन करता रहा और देर तक उसके बारे में सोचता हुआ मैं उसी तरह चलता रहा।
रश्मि
उस दिन सारे रास्ते सोचती गई कि इस मोह ने मुझे कैसे जकड़ रखा था ? प्रेम का दावा कितना झूठा था ? मुझसे तो मेरे पति ही सत्य के अधिक पास हैं। पति का ध्यान आते ही मुझे वे दिन याद आ गए जब वे मुझसे विवाह करने की प्रार्थना करने आया करते थे । वे लम्बे-लम्बे पत्र लिखते थे, पर मिलने पर कभी कुछ नहीं कहते थे । बस अगला पत्र पहुंचाने का स्थान बताकर चले जाते थे। शादी हो जाने के बाद भी वे ऐसे ही रहे। वे कहते कुछ नहीं थे । उन्हे समझना होता था, पर मैं उन्हें कैसे बताती कि मुझे भी कोई समझ पाता । देख-सुन सब सकते हैं, पर समझने के लिए जो हृदय चाहिए वह हरएक के पास नहीं होता । पर सारा दोषारोपण उन्हीं पर कैसे करू ! मुझे स्वीकार करना होगा कि उन्होंने मुझे अपने बच्चो की मा तो बनाया, पर कभी विलास की सामग्री नहीं माना। घर की स्वामिनी बनाकर जैसे उन्होंने छुट्टी ले ली। विश्वास की इतनी निधि उन्होंने मुझे दी, पर नारी को क्या केवल यही विश्वास चाहिए ?
मैं इसी तरह सोचती जा रही थी कि घर आ गया। देखती क्या हूं कि वह बरामदे मे टहल रहे है । मैं जैसे ही ऊपर चढ़ी, वह बोले, 'रश्मि !' 'जी ।'
'घूमने गई थी ?"
'जी ।'
'प्रदीप के साथ ?'
'जी ।'
" फिर उसे छोड़ कहां श्राई ?'
'वे अपने घर गए ।'
'और तुम ?'
'मैं अपने घर मा गई ।' 'यह तुम्हारा घर है ?'
'जी हां ।'
वे सहसा तेज़ हो उठे, 'दुष्टा ! दूर हो जा मेरी प्रांखों के सामने से । यह तेरा घर नहीं है । मैं तुझे अन्दर नहीं आने दूंगा ।'
मैं ठिठकी नही, बढ़ती चली गई। वे रोकने को आगे बढ़े, पर मैंने दरवाज़ा खोल लिया, और कहा, 'देर हो गई, अन्दर प्रा जाइए । '
'मैं कहता हूं, जाओ ।'
'कहां जाने को कहते हो ?" 'प्रदीप के पास ।'
'मैं उनके पास कभी नहीं जाऊंगी।'
'आज तक जाती रही हो, झूठ बोलती हो ।'
'झूठ नहीं बोलती । श्राज तक जाती रही हूं, पर श्राज पता लगा कि वह गलती थी ।'
'क्या, क्या ?' वे जैसे निरस्त्र हुए।
'मैं प्राज के बाद उसके पास नही जाऊंगी।'
'नहीं जाओगी ?'
'नहीं ।'
'रश्मि !'
'विश्वास नहीं आता ?'
'नहीं ।'
'तुमने मेरा विश्वास किया ही कब है जो श्राज करोगे ?"
'मैंने तुम्हारा विश्वास नहीं किया ?"
'ईर्ष्या करने वाले विश्वास कैसे कर सकते हैं ?'
'रश्मि !' वे कांपे। वे अब तक किवाड़ पकड़े खड़े थे। श्रावेश का उफान अब उतर चला था । उन्होंने किवाड़ छोड़ दिया और फिर बेंत उठाकर बाहर उतरे चले गए । मैं कांपकर बाहर आई। पूछा, 'कहां जाते हो ?"
कोई जवाब नहीं मिला ।
'मैं भी आ रही हूं।' प्रौर मैं पीछे-पीछे चली। कुछ दौड़ना पड़ा। फिर पास आकर बगल में चलने लगी। पर उस रात मैं उन्हें मना न पाई । हम शीघ्र लौटे धौर बिना खाए-पिए सो गए। चार दिन तक वे मुझसे नहीं बोले । पांचवें दिन एक ऐसी घटना हो गई जिससे मुझे बडी पीड़ा हुई। मेरा छोटा देवर मेरे लडके शेखर के साथ खेल रहा था। अचानक क्या देखती हूं कि शेखर चीखता हुआ आ रहा है। मेरे भीतर जो मां थी वह तड़प उठी। मैंने पूछा, 'क्या हुआ ?'
'चाचा ने मारा । हमारी बारी थी, बारी नहीं दी। फिर मुझे मारा।'
बच्चे के गालों पर खून चमक आया था। मैं जैसे पागल हो उठी। मैंने देवर को आड़े हाथों लिया । वह भी खूब बोला। वह एक अशोभनीय बात थी, पर हो गई । घर में चूल्हा तक न जला । वे शेखर को प्यार करते थे-भाई की नसों में भी वही रक्त था जो उनकी नसों में था। सब कुछ सुनकर वे गम्भीरता न सोचते रहे, फिर उन्होंने मुझसे इतना ही कहा, 'तुम्हारा मोह इतना कड़वा है ?'
जो बात मुझे कचोट रही थी वही हुई । वे मुझपर गुस्सा नहीं हुए। वस इतना कहकर मुड़ चले । न जाने मुझे क्या हुआ मैंने झपटकर उनका पल्ला पकड़ लिया, बोली, 'मुझसे गलती हो गई ।'
उन्होंने कुछ जवाब नही दिया। मुझे नही मालूम कि दोनों भाइयों में क्या बात हुई । तेज़-तेज़ आवाजें मैंने सुनी। जी मे आया, जाकर अभी माफी मांग लूं । पर हुआ यह कि देवर कई दिन तक रूठा रहा। मैंने माफी मांगी तो भी वह न माना । उन्होंने कहा, 'क्यों पीछे पड़ी हो ? आप ठीक हो जाएगा।'
इस घटना के बाद मेरी उनसे सुलह हो गई । वह सुलह काफी लम्बी रही, क्योंकि अब मैं अक्सर घर रहती थी । यद्यपि मेरा अधिक समय किताबों के साथ बीतता था, पर मैं उनके आने पर सदा बरामदे में मिलती थी । एक दिन ऐसा हुआ कि मैं उन्हें वहां नहीं मिली। वे सीधे मुझे ढूंढते हुए पुस्तकालय में पहुंच गए। मैं पढ़ रही थी। बोले, 'क्या पढ़ रही हो ?"
'प्रदीप का नया उपन्यास है ।'
'ओह'।'
'बहुत सुन्दर है। एक नारी का चित्ररण है जो '''।' ' समझता हूं, तुम्हारा होगा ।'
उनकी वाणी में काफी तलखी थी, पर इधर ध्यान न देकर मै चिल्ला उठी, 'तुम कैसे जानते हो ? क्या तुमने पढ़ा है ?"
'किसीको जानने के लिए उसकी हर पुस्तक पढ़ना जरूरी नहीं । प्रदीप तुम्हारे अतिरिक्त और किसीका चित्रण नहीं कर सकता ।'
'सच कहते हो । उसके प्रत्येक शब्द में मैं रहती हूं। उसकी प्रत्येक भावना में मैं सांस लेती हू । उसके प्रत्येक विचार में मैं जीती हूं।' कहते-कहते मैं जैसे खो- सी गई। देखा तो वे तिलमिला रहे थे। उन्होंने तेजी से कुरसी को धक्का दिया । मेज़ पर का फूलदान नीचे गिरकर खील खील हो गया। जैसे यही कम न हो, वह तेजी से बूटों की आवाज करते और किवाड़ खड़खड़ाते बाहर चले गए। मैं जैसे जागी, पीछे दौड़ी, 'क्या हुआ ? सुनो तो पूरी बात तो सुनो ।' 'नहीं, नहीं, नहीं !'
'सुनो।'
'मुझे कुछ नहीं सुनना, मुझे कुछ नहीं सुनना ।' उन्होंने चीखकर कहा । 'तुम मुझे धोखा देती रही हो, तुम मुझसे छल करती रही हो। तुम उससे प्रेम करती हो, तुम उसे चाहती हो।'
'सुरेश, सुरेश !' मैंने नाम लेकर पुकारा । गजेटिड आफिसर की पत्नी होने के बावजूद मैं कभी उनका नाम नही लेती थी। वह बार-बार मेज़ पर सिर पटक-पटककर बोले, 'तुम मुझे नहीं चाहती। नही, नहीं ...।'
'क्या करते हो ?' मैने उन्हें समझाया, 'बच्चे क्या कहेगे ?'
'बच्चे ?' उन्होंने दांत भींचे, 'बच्चे सब कुछ जानते हैं। वे मेरे नही है ।' 'सुरेश !' मैंने चीखकर कहा, 'नही, नहीं, तुमने यह नहीं कहा।' 'मैंने कहा है । मैं कहता हूं। बच्चे मेरे नही है, नहीं हैं।'
मैंने किसी तरह अपने को सम्हालकर कहा - ' सुरेश, तुम आवेश में हो । फिर बातें करूंगी।'
उन्हें ऐसे ही छोड़कर मैं बाहर आई। क्या देखती हूं कि प्रदीप खड़ा है । गुस्सा आना चाहिए था, पर हुआ यह कि मै मुस्करा उठी- 'तुम ?'
प्रदीप ने कहा- 'जाता हूं ।'
और वे मुड़ते चले गए । मैंने चीखकर पुकारना चाहा, हाथ भी उठाया, पर न मैंने पुकारा न वे रुके । मैं अन्दर दौड़ी चली गई। मैंने सुरेश से कहा- 'सुनते हो, प्रदीप आए थे ।'
था-पर मैं देर से पहुंची। सुरेश के हाथ में प्रदीप का पत्र था । उसमें लिखा
प्रिय मित्र,
खेद है मेरे कारण आपके शान्त जीवन में तूफान श्रा गया है; पर विश्वास करिए मैंने इसे कभी नहीं चाहा। जहां तक जान सका हूं रश्मि भी नहीं चाहती । फिर भी वह है तो। मैं आज यह कहने श्राया था कि मैं कल यह नगर छोड़ रहा हूं। पर जो देखा उससे साहस नहीं हुआ । सो लिखकर प्रणाम करता हूं ।
आपका मित्र
- प्रदीप
पढ़ लेने पर दोनों में कोई बात नहीं हो सकी, पर तनाव भाप ही आप ढीला पड़ गया। मुझे तो ऐसा लगता रहा जैसे प्रदीप लौटकर आ रहे हैं। जहां भी मैं गई मैंने उनकी हंसी सुनी। उनका सौम्य शान्त मुख देखा । उनकी प्रेमिल आंखों को झांकते पाया। लगा जैसे वे कहीं से निकल श्राए हैं, पर यह सब अन्दर की बात है, बाहर तो वे सचमुच चले गए थे और इसीलिए शान्त मन काम करती रही । सबेरे जब गाड़ी का वक्त होनेवाला था मैंने प्रदीप को स्टेशन जाते, टिकट खरीदते और गाड़ी में चढ़ते देखा । वे जैसे बर्थ पर बैठ- कर कहीं दूर खो गए हैं। निश्चय ही वे मेरे बारे में सोच रहे थे । न सोचते तो जाते कैसे ? इसी समय सुरेश तेजी से आए, कहा, 'रश्मि, तुम स्टेशन चलना चाहोगी ?"
मुझे ताज्जुब हुआ, बोली- 'क्यों ?'
'शिष्टाचार के नाते हमें प्रदीप को नमस्कार करना चाहिए ।' मैंने कहा, 'मैं नहीं जाऊंगी।'
'रश्मि !'
'तुमने एक दिन कहा था कि प्रदीप शिष्टाचार में विश्वास नहीं करता ।' 'मुझे याद है, पर वह करता है।'
'कैसे जाना ?'
'कल आया जो था ?"
नहीं जानती थी कि स्वामी इतनी करारी चोट करना जानते हैं । फिर भी मैंने कहा, 'पर मैं नहीं जाऊंगी ।'
'मैं जो कहता हूं इसलिए ?"
'नहीं ।'
'नहीं कैसे ?' वह क्रोध से भभक उठे ।
'मैंने कहा, इसीलिए तुमने इन्कार किया है ।'
'न कहते तो क्या मैं जाती ?"
'हां जाती। जाने को तुम तपड़ रही हो ।'
और वे तेजी से चले गए। मैं देखती रह गई। मैं जानती हूं कि मैं उनके साथ चली जाती तो वे मुझे खा जाते, पर मैं उन्हें क्या दोष दूं ? अपराधिनी तो मैं हूं। मैंने क्यों प्रदीप को खोजा ? क्यों उसे चाहा ? पर मैं स्वयं इस 'क्यों' को नहीं जानती। सब कुछ जानना न सम्भव है न श्रावश्यक । वे स्टेशन गए और लौटकर उन्होंने सब कुछ बताया। कुछ नया नहीं लगा, क्योंकि मैं स्वयं वहां थी। साथ जा भी रही हू । जितने के स्वामी मालिक है, उससे वह तो प्रदीप के साथ है।
फिर बहुत दिन बीत गए। स्वामी आजकल बहुत खुश है, निरन्तर उनमें खो जाने का प्रयत्न करती रहती हूं। उन्हें चिढ़ाती खिजाती हूं, ऐसा बरताव करती हूं, जैसे हमारा अभी-अभी विवाह हुआ है । उन्होंने एक दिन दफ्तर से लौटकर कहा - 'अरे रश्मि, तुमने सुना ?'
'क्या ?'
'प्रदीप ने विवाह कर लिया।'
'मैंने मुस्कराकर कहा, 'सच ?'
'हां, देखो उसने हमें निमन्त्रण तक नहीं भेजा ।'
मैं हंसकर रह गई। उन्होंने एक क्षण रुककर कहा, 'क्या कोई उपहार भेजकर हम उसे चकित नहीं कर सकते ?'
'यह उसका अपमान होगा ।'
'श्रोह !' उनकी मुद्रा कठोर हो गई। उन्होंने कहा, 'नहीं, नहीं, उसे उपहार भेजना चाहिए ।'
वे चले गए, लेकिन वे उपहार भेज सकते इससे पूर्व उन्हें दूर दक्षिण की यात्रा पर जाना पड़ा। लौटे तो विषम ज्वर से पीड़ित थे। तब दो महीने तक हमारा घर अस्पताल बना रहा। मैं उनकी पट्टी से लगी रही। उन्हें जब समझने-जितना होश आया तब वे अक्सर मेरा हाथ दोनों हाथों में दबा लेते, सहलाते रहते फिर माथे पर फेरते रहते। एक दिन बोले- 'रश्मि !'
'जी ।'
'तुम कितनी अच्छी हो !'
'आप अच्छे हैं तभी तो मैं अच्छी हूं।'
'नहीं रश्मि, मैं अच्छा नहीं हूं ।' और कहकर वे रो पड़े, 'रश्मि, मैं पापी हूं । मैंने तुम्हें समझा नहीं ।'
'चुप नहीं करोगे ?'
'नहीं, नहीं, आज कह लेने दो। मैंने प्रदीप को लेकर तुम्हे कितना दुःख दिया । रश्मि, अब मुझे तभी सुख होगा जब तुम उससे मिलोगी। तुम उससे मिलो, उसकी पुस्तकें पढ़ो, उसे बुलाओ। मुझे तुमपर विश्वास है ।'
'अब चुप हो जाओ। तुमसे किसने कहा कि तुम मेरा अविश्वास करते हो ?” 'नहीं, नहीं, मैं करता हूं। मैं करता हू। मुझे पेन दो ।'
'पेन ?' 'दो न ।'
मैं कागज-कलम उठा लाई । वह बोले, 'लिखो।' मैंने लिखा, 'जब मैं अच्छा होता हूं तब तुमपर शंका करता हूं। मैं आज कहता हूं कि तुम प्रदीप सेलिने को स्वतन्त्र हो । मेरे मना करने पर भी जा सकती हो।' फिर उन्होंने दस्तखत कर दिए। तब मैंने उसे फाड़ डाला ।
वह ठगे-से बोले, 'यह क्या किया तुमने ?"
'मेरी सम्पत्ति थी, नष्ट कर दी। क्या मुझे इतना छोटा समझा है कि अपने और स्वामी के बीच कागज-कलम को आने दूंगी ?'
उन्होंने आंखें बन्द कर लीं। आंसू की दो बूंदें गालों पर बह आई। कहा, 'काश कि मैं सदा बीमार रहूं !'
'हटो भी, क्या अशुभ बातें करते हो ।'
'सच ।'
'चुप रहो । नहीं मैं चली जाऊंगी।'
मैंने कुछ ऐसे कहा कि वह मौन हो गए । बस चुपचाप मेरा हाथ थपथपाते रहे । लेकिन इस सबके बावजूद क्या मैं यह स्वीकार कर सकती हूं कि में प्रदीप से जुदा थी ?
फिर वह अच्छे हो गए। फिर मैं बीमार पड़ गई और एक दिन चारपाई पर लेटे-लेटे क्या देखती हूं कि डाक्टरों ने सिर हिला-हिलाकर मेरे पति को डरा दिया है । उनके चले जाने पर मैंने स्वामी को बुलाया, 'क्यों जी, डाक्टरों के चक्कर में क्यों पड़े हो ? मैं ठीक हो जाऊंगी।'
वह बोले नहीं, रो पड़े। मैंने कहा, 'छिः छिः, पुरुष हो । मुझे तो देखो ।'
वे फिर भी नहीं बोले । चुपचाप मेरा पीला हाथ दबाते रहे। मैंने जी भरकर उन्हें देखा । एक दिन मुझे क्या पागलपन सूझा। बच्चों को बुलाकर स्वामी को सौंप दिया, जैसे अब तक वे उनसे दूर थे। था न यह मेरा मोह ? यह पिशाच क्या किसीको छोड़ता है ? पर अब नहीं लिखा जाता। बस अब तो चुपचाप लेटकर जहां तक देख सकू देखने को जी चाहता है ।
प्रदीप
कैसे बताऊं कि कैसे मैंने उसे भूलने की खातिर कलम की नोक में खो जाने का प्रयत्न किया ? पर हर बार क्या देखता हूं कि मेरी हर रचना में वही उपस्थित है । वह हर बार मानो घोषणा करती, 'मेरी बात मानो। मुझे तुमसे कोई जुदा नहीं कर सकता। वह अमिट दूरी भी नहीं जिसे मौत कहते हैं।' मैंने तंग आकर विवाह कर लिया, पर वह निर्लज्ज तो तब भी नहीं हटी।‘‘कैसे कह गया मैं उसे निर्लज्ज ? लज्जा उसके लिए बनी ही नहीं थी ।
मैं एक दिन न जाने किस रंग में था कि अपनी पत्नी नीरजा को उसकी सारी कहानी सुना बैठा। सुनाकर बोला, 'क्या यह असाधारण नहीं है ?" नीरजा जो एक अच्छी चित्रकार थी, सहसा बोल उठी, 'नहीं तो ! असाधारण इसमें ऐसा क्या है ?"
'पति के रहते उसका मेरे प्रति प्रेम ।'
नीरजा ने शान्त भाव से कहा, 'पति के प्रेम से इसका क्या सम्बन्ध है ? अपने आदर्श को वह तुममें पाती रही है। जहां आदर्श की एकता है वहीं अद्वैत है । जहां अद्वैत की भावना है वहां शरीर श्रा ही नहीं सकता। इस अर्थ में चाहो तो तुम उसे असाधारण कह सकते हो। वरना पति-पत्नी इसमें प्राते ही नहीं ।'
जैसे बरफीले कुहासे को चीरकर स्वरिगम सूर्य प्रकाश धरती पर उतर श्राता है ऐसे ही मुझे लगा। मैं नीरजा का हाथ दबाकर पूरे एक क्षरण तक उसे देखता रहा । उस एक क्षरण में अनन्त विचार मेरे मन में उठे। फिर मैंने कहा — 'नीरू, लेकिन लेकिन क्या मैं उसे कभी नहीं भूल सकता ?"
'नहीं, वह तुम्हारे बस की बात नहीं है। वह तुम्हारी भावना का अंग है ।'
और सहसा नीरू वहां से उठकर चली गई। यह हमारे विवाह के तीन वर्ष बाद की घटना है। वह तब मां बन चुकी थी। उसकी इस अनुभूति से मैं भर उठा। मैं इन बातों को नहीं जानता था ऐसी बात नहीं थी, पर नीरू भी उसे इस तरह समझती है यह ज्ञान के मेरे लिए, मैं मानूंगा, आश्चर्यजनक प्रसन्नता का कारण हुआ । मैं नीरू के पास आने लगा। मै अपनी रचनाएं पहले भी उसे सुनाता था, पर अब तो जैसे मेरा नियम हो गया । वह भी अपने प्रत्येक चित्र की भाव-व्यंजना को लेकर बड़ी देर तक मेरे साथ बहस करती, पर मैंने देखा कि मेरी कलम की नोक पर रश्मि का ही अधिकार था । मैंने नीरू से फिर इसकी चर्चा की। पूछा- क्या तुम मेरी कलम की नोक पर नहीं आ सकती ?"
वह शरारत से हंसी, बोली- 'मैं तुम्हारी पत्नी हूं ।'
'क्या मतलब ?"
'मतलब यही कि मैं एक ही स्थान पर रह सकती हूं-प्रेमिका के या 'त्नी के पद पर ।'
गई ।
'क्या पत्नी कलम की नोक पर नहीं आ सकती ?'
'नहीं, नहीं, नहीं, इतना भी नहीं जानते -' वह लोट-पोट होती गई, कहती
आप समझते होंगे कि तब मैं विमूढ़-सा होकर लजा गया हूंगा। नहीं, यह सब तो मैं सदा जानता रहा हूं, पर मैं जिस एक बात को जीतना चाहता था वह यह थी कि रश्मि अब मुझे अधिक मोहाविष्ट कर रही थी। मैं उसे दूर हटा- कर नीरू के पास जाना चाहता था, पर हुआ यह कि मेरा प्रत्येक ऐसा प्रयत्न मुझे रश्मि के और पास ले श्राया । अब मैं तो प्रतिक्षण उसे देखने लगा। किसी भी क्षरण कहीं से आकर वह मेरे नेत्र मूंद लेती, खिलखिलाकर मुझे डरा देती । मुझे आलिंगन में बांधकर खूब भंझोड़ती । आखिर एक दिन मैंने निश्चय किया कि मैं कल रश्मि के पास जाऊंगा और जो कुछ होगा सहूंगा, पर हुआ यह कि जब तक मैं उस निश्चय को पक्का करू एक सबेरे क्या देखता हूं- सुरेश भाए हैं ।
मैंने मन की हड़बड़ी को यथाशक्ति वश में करते हुए कहा - 'श्राप ?'
'हां, अभी पाया हूं।'
‘ज़रूरी सरकारी काम से आना पड़ा होगा ?” 'नहीं, तुमसे ही कुछ काम था।'
'मुझसे ?' मैं मान लूं मैं विस्मित हुआ था और उनकी गम्भीर प्राकृति में मुझे कुछ बदशकुनी भी नजर श्रा रही थी। मैंने उत्सुकता दबाकर उन्हें बैठाया । बातचीत करने की चेष्टा की, पर वह भयंकर रूप से अपने में सिमटे रहे । मैं निरन्तर रश्मि को ढूंढ़ता रहा । पर न जाने क्यों उसका नाम जिह्वा पर आ कर लौट जाता था । तब नीरू कहीं बाहर गई हुई थी, इस कारण मेरी स्थिति और भी खराब थी । मैं क्या करू ? ये बोलते क्यों नहीं ? रश्मि की बात क्यों नहीं करते, फिर सहसा वह बोले, 'प्रदीप, क्या तुम्हें पता है कि रश्मि अब इस दुनिया में नहीं है ?"
मैं सिहर उठा - 'क्या ?"
'हां, दो वर्ष पहले एक छोटी-सी बीमारी के बाद वह मर गई ।'
मैं चीख उठा - 'दो वर्ष पहले ?"
'हां, मुझे खेद है कि मैं तुम्हें ''''नहीं खेद की कोई बात नहीं। मैंने जान- बूझकर तुम्हें सूचना नहीं दी ।'
तब की अपनी अवस्था कैसे बखान करूं ? कर ही नहीं सकता। प्रलय क्या कभी किसीने देखी है ? लेकिन वह तो कुछ कहे जा रहे थे। मैंने सुना वह कह रहे थे, 'प्रदीप, सच कहूं तो मैंने ही उसकी हत्या की है। बीमारी तो बहाना थी। असल में वह इस धरती के योग्य नहीं थी और मैं था धरती का कीड़ा । इसलिए मैंने उसे मार डाला ।'
फिर वे हंस पड़े । वह पागल सी हंसी ! मैंने तड़पकर कहा, 'कैसे मार डाला ?'
'उसके चरित्र पर शंका कर-करके ।'
फिर उन्होंने छोटा-सा सूटकेस खोला । उसमें से कई सुन्दर पैकेट निकाले । मैंने देखा प्रत्येक पैकेट पर रश्मि ने अपने हाथ से सुन्दर अक्षरों में कुछ लिखा था। मैंने पढ़ा, पहले पैकेट पर लिखा था, 'तुम्हारे विवाह की प्रत्येक गति- विधि की मैं साक्षी हूं। मुझसे भागकर क्या तुम छिप सकोगे ? भागना तो, बन्धु, मोह है । यह पैकेट भी मोह का प्रतीक है, पर तुम्हें भेज कहां रही हूं ।
तुमने निमंत्रण नहीं भेजा तो पैकेट भेजकर तुम्हारा अपमान क्यों करू ?'
दूसरे पर लिखा था, 'तुम न बताओ। तुम्हारे शिशु के सुनहरे बाल मैंने चूम लिए हैं । और देख रही हूं कि उसकी सूरत तुम दोनों से अधिक मुझसे मिलती है ।'
तीसरे पैकेट में अनेक पत्र थे। एक पत्र में लिखा था-
प्रिय बन्धु,
मैंने तुमसे कहा था कि स्वामित्व की भूख शरीर की भूख से बड़ी होती है । क्या तुम नहीं जानते कि सतीत्व स्वामित्व की इस भूख का ही व्यापारिक नाम है । मैंने तुम्हारी रचनाओं में यह प्रतिध्वनि सुनी है ।
दूसरा पत्र था-
प्रिय बन्धु,
श्राज तुमसे बहुत बातें हुईं । तुम्हारी कहानी 'निशेष' में शारदा मैं ही तो हूं, निरोध तुम हो, उस सारी बहस को पढ़ते हुए मुझे स्पष्ट तुमसे बहस करनी पड़ गई, पर बहस तो कमजोरी का दूसरा नाम है, क्योंकि उसमें हारने - जीतने की भावना है, और उपदेश देना है श्रहम् का विस्फोट | क्या करें धरती के वासी ठहरे, कैसे बचें इस सोचने से ? क्यों इतना सोचती हूं, यह भी सोचना पड़ता है, पर पूछती हूं, शारदा धरती पर क्यों न रह सकी ? क्या मुझे भी जाना होगा ?....
तीसरा पत्र ऐसा था-
प्रिय बन्धु,
इतने दिन उनकी बीमारी में डूबी रही । तुमपर वह बेहद प्रसन्न हो उठे है। कहते हैं, मिल जाओ, पर उन्हें कैसे बताऊं कि दूर कहां हूं जो मिलूं । अब बताना भी नहीं चाहती, क्योंकि इस धरती पर अद्वैत सम्भव नहीं। यहां तो एकाधिकार चाहिए। यहां पूंजी बंटती नहीं, तिजोरी में बन्द कर के रखी जाती है, पर मैं कैसे रखूं. मैं शारदा का पथ पकड़ेंगी । ...
यह शायद अन्तिम पत्र था और इसमें उसके अन्त की ध्वनि थी। मैंने सहसा पूछा, 'उसकी मृत्यु कैसे हुई ?'
'बता तो चुका हूं।'
'मैं बताने की बात नहीं पूछता । सच्ची बात पूछता हूं ।'
सुरेश ने तीखी दृष्टि से मुझे देखा फिर कहा, 'जिस दिन प्रादमी सच्ची बात जान लेगा उस दिन सब कुछ नष्ट हो जाएगा। विश्लेषण विनाश का मार्ग है, प्रदीप ।'
मैं हठात् उन्हें देखता रह गया। वे मुस्करा रहे थे। हाय ! वह जलती हुई मुस्कराहट ! मैंने विनम्र होकर कहा, 'मुझसे गलती हुई । मैं कुछ नहीं जानना चाहता ।'
मै सचमुच कातर होता गया। अब वे मेरी ओर देखते रह गए। प्रांख उनकी भी डबडबाने को हो आई । ठीक उसी समय नीरजा ने वहां प्रवेश किया। बेटी नीहार उसके साथ थी । उसे देखते ही सुरेश ने चौंककर कहा, 'यह कौन है ?" 'मेरी बेटी ।'
'क्या रश्मि इस श्रायु में ऐसी ही नहीं रही होगी ?"
इस बात का किसीने जवाब नहीं दिया। रश्मि की मौत का समाचार पाकर नीरू एक क्षण हमें देखती रही फिर बोली, 'नहीं, वह मर नहीं सकती । वह आज भी जिन्दा है और सदा जिन्दा रहेगी ।'
सुरेश ने इस बात में कोई रस नहीं लिया, वह जैसे खो गया था। एक क्षण बाद उसने कहा, 'क्या कभी-कभी मैं यहां श्रा सकता हूं ?"
'आपका सदा स्वागत होगा ।'
फिर एक क्षरण बाद उन्होंने नीरू से कहा, 'क्या आप उसका एक चित्र बना देंगी ?"
'आपकी आज्ञा होगी तो..."
'नहीं, नहीं,' वे सहसा बोल उठे, 'यह मोह है, निरा मोह, ढोंग'''''
और वे चले गए । रुके ही नहीं । सब प्रयत्न व्यर्थ गए और उसके बाद वे कभी प्राए भी नहीं। पत्र तक नहीं लिखा ।
एक बार बम्बई में अचानक उनसे मेरी भेंट हो गई। वे सन्ध्या के समय समुद्र तट पर कार से उतर रहे थे और उनके साथ नए वस्त्रों से लकदक एक नारी थी । मैंने उन्हें दूर से देखा। मैं जानता नहीं, पर विश्वास करता हूं कि वे दोनों पति-पत्नी थे ।
तब न जाने क्यों उस धूमिल अन्धकार में रश्मि की याद करके पहली बार- मेरी प्रांखें भर आईं ।