इसका आधार कोई घटना विशेष नही बल्कि यह एक विचार से अनुप्राणित है। वह यह कि आज की मां जिस ममता का ढोल पीटती है वह सन्तान के प्रति प्रेम नही बल्कि मोह है जो अपने स्वार्थ के कारण पैदा हुआ है। सन्तान के लिए नहीं अपने स्वार्थ के लिए वह सन्तान के मार्ग की बाधा बन जाती है। इसी विचार को मैने इस कहानी में मूर्त किया है। मनोविज्ञान के प्रेमी इस कहानी की चर्चा करते हैं ।
सुशील की मां अक्सर कहा करती थी और अक्सर क्या, अब तो कहने के लिए उसके पास एकमात्र यही कहानी शेष रह गई थी । लम्बी सांस खींचकर, गर्व और वेदना भरे स्वर में वह कहती, 'भगवान की कृपा से उसने चौदह पुत्रों को जन्म दिया था ।'
सुनने वालियों की आंखों में कौतूहल साकार हो उठता। कोई वाचाल पूछ बैठती, 'चौदह पुत्र ! पर मांजी, अब तो केवल दो हैं ।'
'हां, बेटी । देखने के लिए ये ही दो है । वैसे मेरे चार बेटे दिसावर रहते
'अच्छा, कमाने के लिए गए हैं ?"
'हां, कमाते ही होंगे ।'
'क्यों, कुछ भेजते नहीं ?"
'भेजना ! उन्होंने तो जाकर इधर देखा भी नहीं !'
'हाय रे ! कैसे बेटे हैं,' वह वाचाल नारी कांप उठती, 'पर मांजी तुम्हें उनका पता तो होगा ?"
सुशील की मां उसी सहज वेदना भरे स्वर में बोलती, 'पता बताया ही नहीं तो कैसे जान सकती हूं। वे चारों तो ऐसे गए कि जैसे थे ही नहीं ।'
'शेष ।'
'राम को प्यारे हुए '' 'मोह...!'
'क्या बताऊं, बेटी । ये दो बचे हैं। कुशल का स्वभाव भी ऐसा ही था- कई बार भागने को हुआ। पर उसपर मैंने बड़ी मिन्नतें मानीं, जात बोली, चढ़ावे चढ़ाए तब कहीं जाकर देवी की कृपा से रुका है ।'
इसपर प्रायः सभी नारियां उसे एक ही सलाह देतीं, 'कुशल का विवाह कर दो मांजी । विवाह का बन्धन आदमी को बड़ा प्यारा लगता है । श्राजकल देर से विवाह करने की जो रीति चल पड़ी है उस कारण भी सत्ता हाथ से निकल जाती है ।'
सुशील की मां ने भी यही बात सोच रखी थी। उसके चारों बेटे सगाई कराने से पहले ही भाग गए थे। इसलिए कुशल की सगाई के लिए धूमधाम शुरू हुई । श्रौर एक दिन धूप-सी गोरी लड़की देखकर उसे तिलक चढ़ा दिया गया । फिर लगन श्राया और विवाह की तिथि निश्चित हो गई । कुशल ने एक बार भी आपत्ति नहीं की बल्कि सब काम प्रसन्न चित्त करता रहा । सुशील की मां को त्रिलोक का राज मिला। उसने सुशील के पिता से कहा, 'यह दिन बड़े पुण्य से देखने को मिला है। मैं मन की निकालकर रहूंगी।'
लाला चन्द्रसेन निम्न मध्य वर्ग के व्यक्ति थे । यही वर्ग अक्सर महापुरुषों को जन्म देता है। यही वर्ग बड़ी-बड़ी आशाओं और आकांक्षाओं को लेकर जन्म लेता है, परन्तु साधन के प्रभाव में घुटी हुई तमन्नाओं का मज़ार बनकर रह जाता है । यही है संघर्षो की क्रीड़ाभूमि और यहीं पर श्रादमी समझ से सम्पर्क स्थापित करता है। लाला चन्द्रसेन भी समझदार थे और इसी समझदारी को आगे बढ़ाने के लिए उनके पुत्रों ने घर की संकुचित दीवारें तोड़कर खुले विश्व में श्राश्रय लिया था । पुत्रों के जाने का दर्द उन्हें भी था, पर पुरुष थे, पिता थे । पत्नी की बात सुनकर वे हंसे, 'मैं कब मना करता हूं ।'
सच तो यह है उनके भीतर भी आकांक्षाएं श्राग्रह कर रही थीं। पहला विवाह है, ऐसा हो जिसे सब याद रखें । इसलिए उन्होंने बढ़िया अंग्रेजी बाजे का प्रार्डर दिया । भोज की व्यवस्था देश की हालत को देखते हुए सीमित थी परन्तु जितनी थी उससे बड़े-बडे धनियों को ईर्ष्या हो सकती थी । मीठी तश्तरी में बड़ी-बड़ी आठ मिठाइयां। पूरे पाव भर तोल की नमकीन तश्तरी । डाल्डा के युग में उन्होंने गांव-गांव घूमकर घी इकट्ठा किया था। वे कहते, 'या तो करो नहीं । करो तो ऐसा करो कि याद ही श्राती रहे ।'
भोज का दिन श्राया । सब कुछ तैयार था । केवल साग बनने थे और कचौरियां उतरनी थीं । मुंह अंधेरे से ही हलवाइयों ने शोर मचाया। अन्दर से और भी वेग से हल्दी चढ़ाने का कोलाहल उठा । लालाजी ने श्राकर कहा, 'अरे भई ! क्या देर है ? मसाला निकालो और सबको साग काटने पर बैठा दो ।' उतने ही वेग से सुशील की मां चीखी, 'अजी कुशल को भेजो, हल्दी चढ़ानी है ।'
'ओ हो भाई, कितनी देर है ?"
'देर कुशल की है । उसे भेजो, बस ।'
'कुशल कहां है ?' 'कुशल यहां था', 'कुशल वहां होगा' क्षण भर में एक और गगनभेदी कोलाहल उठा। ऐसा कि हल्दी और हलवाई की श्रावाज उसमें डूबकर रह गई । उसीमें डूब गया कुशल । बहुत देर बाद पता लग पाया कि वह पिछली रात ही कहीं चला गया है। उसके बिस्तरे पर एक पत्र पाया गया था। पढ़ने से पूर्व ही मां समझ गई कि कुशल भी भाइयों की राह का राही बना । वह रोई नहीं एक धांसू भी नहीं प्राया प्रांखों में लोगों ने कहा, 'ढूंढो !' लाली चन्द्रसेन धीरे से बोले, 'व्यर्थ है ।'
'क्यों ?'
'जो रहना नहीं चाहता उसे रोकने की चेष्टा करना उसे धौर खोना है।'
सुनकर सब स्तम्भित हो आए। वे जैसे अपने से बोलते हों, 'मैंने गलती की जो उसे बांधना चाहा। उससे कहता -- बेटा ! तू भी जा, दुनियां को देख, पहिचान | मेरा जो कर्तव्य था वह मैंने यथाशक्ति पूरा कर दिया । पाल-पोस तुझे सोचने-समझने योग्य बना दिया ।'
सुशील की मां ने यह सब सुना तो तड़प उठी, बोली, 'प्राखिर वे तुम्हारे ही बेटे तो हैं ।'
'मेरे ।' वे हंसे, 'मेरा तो मैं भी नहीं हूं। वे क्या होते ।'
बहस आगे बढ़ी और प्रांसुनों की अबाध गति में उसका अन्त हुधा । अन्त हुआ यह कहना गलत है । अन्तिम छोर की तरह उनका सबसे छोटा बेटा सुशील अभी शेष था । पन्द्रह वर्ष का वह सुन्दर बालक सेव की तरह लाल और फूल
तरह खिला हुआ था। उसकी हंसी में सुगन्ध थी, पर बड़े भाई के तिलक के दिन उसे जो ज्वर चढ़ा था वह उतरने से बराबर इन्कार कर रहा था। विवाह में लगे हुए परिवार में उसे कोई बहुत महत्व नहीं दिया गया पर अब जब हल्दी और हलवाई की बात फैलकर मिट गई तो मां ने सुशील की पट्टी का सहारा लिया। देखा - संन्ध्या होते-होते उसका सेव-सा लाल मुख अंगार-सा दहक उठा है । पांखें मुंदी जाती हैं ।
तब पछाड़ खाकर मां ने डाक्टर का दामन पकड़ा, 'डाक्टर, मेरा सब कुछ ले लो पर इसे बचा दो ।'
सान्त्वना भरे स्वर में डाक्टर बोला, 'घबराइए नहीं ! बुखार है । वक्त पर उतरेगा ।'
'उतर जाएगा' ? पागल-सी मां ने पूछा ।
'हां, हां ।'
'कब ?"
'यही सात-आठ दिन में ।'
लेकिन पाठ क्या, श्रट्ठाईस दिन बीत जाने पर भी बुखार ने जाने का नाम नहीं लिया। एक बार बीच में लगा-सा था कि बुखार टूट चला है पर तीसरे दिन ही उसने दूने वेग से आक्रमण कर दिया। मां रोते-रोते संज्ञा हौन-सी हो गई । डाक्टर मनुष्य था, उसने मां की करुरणा को समझा। बोला, 'मां ! यह बुखार इकहत्तर दिन तक चलता रह सकता है। इसकी दवा कुछ नहीं होती केवल रोगी की देख-भाल से ठीक होता है ।'
मां ने कहा, 'आप जैसे कहते हैं वैसे ही मैं करती हूं ।'
'ठीक है । अभी और करे जाइए। श्राजकल में बुखार टूटने ही वाला है । प्रसन्न रहिए और रोगी को प्रसन्न रखिए, जानता हूं यह कठिन है, पर यह भी जानता हूं कि बेटे के लिए आप सब कुछ कर सकती हैं। चार-पांच दिन की बात है ।'
डाक्टर ने ठीक कहा था। पांचवें दिन बुखार टूट गया । सुशील जितना शरीर से स्वस्थ था, मन भी उसका उतना ही दृढ़ था। रंग लौटते देर न लगी ।
मां का मन खिल-खिल आया । पिता की चिन्ता भी कम हुई। सुशील ने बीमारी में ही पिता से प्रतिज्ञा करवा ली थी कि स्वस्थ हो जाने पर उसे कालेज भेजेंगे । सो अच्छा होते-होते एक दिन उसने कहा, 'पिताजी, कालेज खुलने को एक सप्ताह रह गया है, मेरी फीस भेज दो न ।'
पिता ने जवाब दिया, 'कल शहर जाकर मैं सब ठीक कर श्राऊंगा ।'
तब मां ने धीरे से इतना ही कहा, 'बेटा! पहले ठीक तो हो जा, फिर जाने की बात सोचना ।'
सुशील मुस्कराया, 'मां ! तुम सदा शंका करती रहती हो। मैं अब बिल्कुल ठीक हूं | देखना अगले सप्ताह कालेज जाऊंगा। डाक्टर से पूछ देखो' '''।'
डाक्टर ने हंसते हुए उसका अनुमोदन किया, 'हां, हां, तुम बिल्कुल ठीक होकर एक सप्ताह में शहर जा सकोगे, परन्तु भोजन का विशेष ध्यान रखना होगा ।'
'जी, मैं वही खाता हूं जो श्राप बताते हैं ।'
'तुम सचमुच एक आदर्श रोगी हो । तभी तो बार-बार रोग को पछाड़ कर अच्छे हो जाते हो। हां, कल मैं तुम्हारे लिए टानिक लाऊंगा ।'
यह कह डाक्टर उठे । फिर एकाएक बोले, 'पर सुशील ! भगवान् के लिए अब बुखार को न्यौता न दे बैठना । समझे, शरीर के शत्रु से ऐसी मित्रता ठीक नहीं है ।'
बात हंसाने के लिए कही गई थी, सब हंस पड़े। पर अगले दिन अचानक क्या हुआ कि सवेरा होते न होते सुशील जाड़े से कांपने लगा। ज्वर का आक्रमण हो चुका था; तापमान देखा तो १०५ ! चिन्तातुर डाक्टर ने बहुत देर तक गम्भीरता से जांच की, कहा, 'इस बार टाइफाइड के साथ मलेरिया भी है ।' शान्त गम्भीर पिता ने उत्तेजित होकर पूछा, 'डाक्टर, आखिर यह क्या है ?'
डाक्टर ने पिता के कन्धे को थपथपाया, 'चिन्ता मत करें। सब कुछ ठीक होगा। दुख इतना ही है कि सुशील महाशय अगले सप्ताह कालेज न जा सकेंगे ।'
लगभग संज्ञाहीन होने पर भी कालेज का नाम सुनते ही उसने मांखें खोल दीं। बोला, 'मैं कालेज अवश्य जाऊंगा। पांच-छः दिन की देर हो जाएगी तो क्या है ? पिता जी ! आप मेरी फीस अवश्य भेज दीजिए ।' पिता ने कहा, 'भेज दूंगा, पर तुम्हें अपना ध्यान रखना चाहिए।' सुशील ने नहीं सुना । वह बोला, 'पिताजी! मैं डाक्टर बनूंगा ।' 'अवश्य बनना ।'
श्रागे उससे बोला नहीं गया ।
दिन पर दिन वह दुर्बल होता चला गया। सूइयों से उसका शरीर बिंध गया, कड़वी तीखी दवाइयों से उसका मन चिड़चिड़ा हो श्राया, तो भी इक्कीस दिन के बाद जब उसका ज्वर उतरा तो उसने यही कहा, 'दीवाली के बाद मैं कालेज जाऊंगा।'
'बेशक, तुम जा सकोगे', डाक्टर ने कहा ।
पिता गर्व से बोले, 'परीक्षा फल शानदार है तुम्हारा, प्रिंसिपल ने विश्वास दिलाया है कि तुम सब कमी पूरी कर लोगे ।'
डाक्टर ने विजयी खिलाड़ी के स्वर में कहा, 'विश्वास में श्रद्भुत शक्ति होती है सुशील । मैंने बड़े-बड़े रोगियों को विश्वास के बल पर अच्छे होते देखा है ।'
यही विश्वास सुशील की ढाल बन गया। वह जिस तेजी से स्वास्थ्य लाभ कर रहा था उसे देखे बिना विश्वास नहीं हो सकता। बस हर समय यही रट लगी रहती थी, 'मैं कालेज जाऊंगा। मैं डाक्टर बनूंगा ।'
मां कहती, 'डाक्टर बन कर तू कहां जाएगा ?'
'यहीं रहूंगा, मां ।'
'इसी कस्बे में ?'
'हां, मां । पास में बहुत गांव हैं। उनकी सेहत की देख-भाल करना हमारा फर्ज है । उनकी सेहत ठीक न रहेगी तो देश की उन्नति कैसे होगी !'
मां सहसा कांपकर बोल उठती, 'देश की चिन्ता करने से पहले अपने को तो देख ।'
सुशील मुस्कराता, 'मैं ही देश हूं, मां ।'
मां अचकचाती चकती, 'आखिर तुम ये बातें कहां से सीखते हो ?” 'तुमसे ।'
‘मुझसे ?”
'हां ! तुम मां हो ! तुमने ही तो हमारा निर्माण किया है।'
तब मां हर्ष से फूलती, चिन्ता से दुबलाती। देर तक एकान्त में बैठकर सोचती - ये मेरे बेटे हैं, इनमें मेरा रक्त है पर मुझे तो ये बातें प्रातीं ही नहीं । फिर मुझसे ये कैसे सीखते हैं ? सीखते हैं तो मुझे छोड़कर क्यों चले जाते हैं ? क्या सुशील भी चला जावेगा क्या सुशील भी सुशील जो मेरी अाखिरी सन्तान है, मेरी आखिरी आशा है।
वह कांपी सिहर सिहर उठी तभी किसीने जैसे कहीं भीतर से पुकारा- सुशील में एक अन्तर है, वह सोचता नहीं बोलता है''।
हां, वह सोचता नहीं, बोलता है पर बोलता तो वैसी ही बातें हैं देश'''' श्रादमी कर्तव्य और न जाने क्या-क्या।
उस रात वह देर तक यही दिवा स्वप्न देखती रही। सबेरे उठी तो देखा - सुशील चादर ताने लेटा है ।
पुकारा, 'सुशील ।'
सुशील नहीं बोला । सशंक आकर उसने चादर के भीतर हाथ डाला जैसे अंगार से छू गया हो। वह कांप कर पीछे हट गई और भर्राए स्वर में कहा, 'सुशील सुशील !!'
...
सुशील चौंककर क्षीण स्वर में बोला, 'क्या है ?"
'कैसा जी है बेटा ?'
'शरीर जल रहा है। छाती में दर्द है। रात शीत लगा था।'
'छाती में दर्द', मां पागल सी उसके पिता के पास दौड़ी, 'देखिए तो सुशील
को खूब बुखार चढ़ा है। छाती में दर्द है।'
जैसे वज्र गिरा हो ! पिता एकदम बोले, 'क्या ?'
'बुखार !’
'बुखार ! बुखार किसको है ?'
मां ने किंचित तेज होकर कहा, 'जल्दी जाकर डाक्टर को बुलाओ ! सुशील की छाती में दर्द है और बुखार भी तेज है।'
डाक्टर श्राया । खूब जांच-पड़ताल के बाद उसने कहा, 'निमूनिया है ।' 'निमूनिया !!' - पिता स्तब्ध रह गए।
'निमूनिया ?' मां को जैसे विश्वास नहीं श्राया ।
फिर कई क्षण कोई किसीसे नहीं बोला । आखिर डाक्टर ने शिकायत के स्वर में कहा, 'मैं कहता हूं, क्या आप इसका बिलकुल ध्यान नहीं रख सकते ? इसे सर्दी लगी है ।'
रुधे स्वर में मां ने उत्तर दिया, 'डाक्टर ! रात को बार-बार उठकर मैं उसे कपड़ा ओढ़ाती हूं ।'
'दवा कौन देता है ? '
'मैं देती हूं।'
'ठीक समय पर ?'
'आप सुशील से पूछ लीजिए ।'
डाक्टर ने दोनों हाथ हवा में हिलाए, कहा, 'कुछ समझ में नहीं आता । जैसे ही रोगी स्वास्थ्य लाभ करता है रोग उसे फिर प्रा दबोचता है। अच्छा, मैं पेन्सीलीन की सूइयां लगाता हूं ।'
कई दिन तक डाक्टर हर चार घंटे के बाद सूइयां लगाता रहा। उन दिनों बेहोश-सी मां ने न जाने कितनी निद्राहीन रातें बेटे के बिस्तर के पास बैठकर काटी । ऐसी देख-भाल की कि सब अश अश कर उठे । पड़ोसियों ने कहा, 'मां ऐसा न करेगी तो कौन करेगा और फिर वह मां, जिसके बेटे एक के बाद एक उसे छोड़कर चले गए हों ।'
'हां जी ! वह तो जान भी दे दे तो थोड़ी है उसके लिए ।'
'जान ही तो वह दे रही है ।'
'बेचारी ने पिछले जन्म में न जाने क्या पाप किए थे ?'
'पाप क्या जी, श्राजकल की तो प्रौलाद ही निराली है। कहते हैं बेटा मां- बाप का नहीं होता, देश का होता है।'
'हां जी ! यही बात है। भला कोई पूछे उनसे, तुम्हें पाल-पोसकर किसने बड़ा किया है, देश ने या मां ने ! तुम्हारे गू-मूत किसने उठाए हैं, देश ने या मां ने ?'
उनमें कुछ युवतियां भी थीं। एक युवती शहर में रहकर पढ़ी थी; वह बोली, 'और तो मैं कुछ नहीं जानती पर श्रादमी होता देश के लिए ही है ।'
घर-घर और गली-गली का विषय बनी रही ! यहां तक कि सुशील फिर अच्छा होने लगा, पर देश और श्रादमी के रिश्ते का कोई निर्णय नहीं हो सका । आखिर डाक्टर ने एक दिन सुशील के पिता को बुलाकर कहा, 'इस बार सुशील की देख-भाल विशेष रूप से करनी होगी। यदि अब रोग ने प्राक्रमरण कर दिया al'
डाक्टर ने जान-बूझकर वाक्य पूरा नहीं किया। लाला चन्द्रसेन बोले, 'जानता हूं डाक्टर, जानता हूं ।'
'यही समय है जब रोग आक्रमण करता है ।'
'जी, हमने पूरी तैयारी कर ली है। बारी-बारी से रात को जागने का प्रोग्राम है, उसकी एक ममेरी बहन को भी बुला भेजा है।'
क्षण भर डाक्टर ने शून्य में दृष्टिपात करके कहा, 'दो-चार दिन मैं भी रहना चाहूंगा।'
'आप !'
'हां, मैं '
करुण स्वर में लाला चन्द्रसेन बोले, 'डाक्टर ! आपने क्या नहीं किया ! आपकी कृपा से ही सुशील बार-बार मौत के मुंह में जाकर लौटा है । आप अब।'
डाक्टर ने टोक दिया, 'मैं रोगी का अध्ययन करना चाहता हूं।' 'जी ।'
'और वह भी कुछ दूर से । '
'आपका मतलब ?'
'मतलब यह है कि मैं आपके कमरे में रहकर सुशील की देख-भाल करूंगा और हां ! यह बात किसीसे कहिए नहीं ! मां से भी नहीं ।'
लालाजी का सिर चकरा उठा पहले तो, पर गर्व भी कम नहीं हुआ । घर प्राकर यह बात वे सुशील की मां से कहते-कहते तनिक ही बचे । 'प्राज डाक्टर कहते थे..." इतना कहकर जैसे उन्हें होश आया । चुप हो गए।
सुशील की मां बोली, 'डाक्टर क्या कहते थे ?'
'यही' उन्होंने कुछ याद करते हुए कहा, 'कि मैं श्राज गांव जा रहा हूं । सुशील को लौटकर रात के समय देखूंगा ।'
फिर करुण स्वर में बोले, 'कितना भला डाक्टर है।'
'भगवान का रूप है,' मां ने गद्गद् स्वर में कहा, 'हमें तो वही जिला रहा है।'
उसने यह बात सच्चे मन से कही थी। दोनों पति-पत्नी तब देर तक भले श्रादमियों की चर्चा करते रहे ! फिर दिन बीत गया। थके हुए जीवन को सहलाने के लिए रात आ पहुंची। अन्धकार में दृष्टि नहीं है, पर शान्ति अवश्य है । उसी शान्त वातावरण में डाक्टर प्राए । सुशील को गुदगुदाया, हंसाया, दवा बताई और लौट गए। परन्तु अपने घर नही, पास के कमरे में लाला चन्द्रसेन वहीं रहे, मां भी वहीं थी, सुशील को नींद आ गई। मां ने लैम्प बुझा दिया, दीवा जलता रहा । उसका धुंधला पर शीतल प्रकाश तन-मन दोनों को सुख- कारी था । कुछ देर में लाला चन्द्रसेन उठे, बोले, 'जब तुम सोने लगो तो मुझे पुकार लेना ।'
और वे भी चले गए। धीरे-धीरे चारों ओर शान्ति छा गई । सुशील के पास बैठी मां की पलकें भारी हुईं और फिर झुक गईं। पर डाक्टर की आंखों में नीद नहीं थी । वे कभी कुर्सी पर बैठे रहते, कभी टहलते, कभी धीरे-से खिड़की में से देख लेते । लाला जी उत्सुक उत्तेजित उन्हें देखते और पूछ बैठते, 'डाक्टर ! कोई बात देखी ?"
डाक्टर मुस्कराता — ' ग्राप चिन्ता न करें ।'
और फिर सन्नाटा; किसीके खखारने और चलने का शब्द दूर कहीं गीदड़ों की हू हा, श्रौर फिर मौन; डॉक्टर की धीमी पदचाप; फिर एकाएक कहीं कुत्तों की भौं-भो ! दीवार की घड़ी ने दो बजा दिए। तभी सहसा डाक्टर चौंक उठे। उन्होंने धीरे से लाजाजी को जगाया, 'हां हां, बोलिए नहीं ! चुपचाप मेरे पीछे खिड़की के पास चले श्राइए ।'
'क्या है ?'
'आ जाइए चुपचाप ।'
दोनों ने हतप्रभ देखा - धुंधले प्रकाश में एक मूर्ति धीरे-धीरे सुशील की खाट के पास पहुंची है। उसने कई क्षरण चुपचाप सुशील के मुख को देखा, फिर चूमा, फिर धीरे-धीरे कांपते हाथों से चादर उतार दी। सुशील एक बार खांसा, फिर पैरों को पेट में समेट लिया । छाया मूर्ति पीछे हटी। मेज पर दवा की शीशी रखी थी, उसे उठाया और उसे चिलमची में फेंक दिया ।
चित्रलिखित सा डाक्टर बोला, 'देखा ।'
चन्द्रसेन तड़पे, 'डाक्टर ! यह तो सुशील की मां है ।'
'हां ! आइए !'
'डाक्टर, मैं... मैं...'
'आइए ।'
डाक्टर ने आगे बढ़कर सहज भाव से किवाड़ खोले और सुशील के कमरे में चले आए। छाया - मूर्ति ने सहसा मुड़कर देखा, उसके मुंह से एक चीख निकली - 'आप श्राप !'
और वह तीव्र वेग से कांपती हुई पीछे हटी, हटती गई; कांपती गई और फिर लड़खड़ा कर गिर पड़ी। लाला चन्द्रसेन उधर दौड़े, इधर डाक्टर ने सबसे पहले खिड़की बन्द की। फिर सुशील को कपड़ा उढ़ाया। तब सुशील की मां की भोर झुके । वह बेहोशी में बड़बड़ा रही थी— सुशील अच्छा हो रहा है." वह कालेज जाएगा — डाक्टर बनेगा और फिर नहीं लौटेगा. उसके भाई भी नहीं लौटे थे.'' नहीं, नहीं, वह शहर नहीं जा सकता वह मुझे नहीं छोड़ सकता''।
डाक्टर ने सुना, पिता ने सुना, दोनों ने एक दूसरे को देखा । पिता सिर से पैर तक सिहर उठे, मुंह से इतना ही निकला, 'डाक्टर''''!’
डाक्टर ने गम्भीर स्वर में कहा, 'मुझे यही डर था ।'
'मां का स्नेह पुत्र का काल बना हुआ है डाक्टर ।'
सहसा डॉक्टर का स्वर कठोर हो उठा, उन्होंने कहा, 'स्नेह नहीं, यह मनुष्य का स्वार्थ है जो प्रतिक्षण मनुष्यता की हत्या करता रहता है।'
पिता ने इस बार कोई उत्तर नहीं दिया। मां का स्वर निरन्तर शिथिल हो रहा था इतना कि मात्र फुसफुसाहट शेष रही थी और सुशील सो रहा था- शान्त निर्द्वन्द्व ।