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अध्याय 13: अभाव

21 अगस्त 2023

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'अभाव' दो मित्रों के बीच हुए एक विवाद का परिणाम है। इस कहानी के प्रोफेसर मेरे वही मित्र हैं और मैं कहूंगा उन्होंने जो घटना मुझे सुनाई उसको बस मैने अपने शब्दों में लिख भर दिया। इस कहानी को लेकर भी काफी चर्चा हुई।

ज्यों-ज्यों प्रोफेसर वर्मा की तृष्णा बढ़ती त्यों-त्यों प्रभाव की रेखा भी गहरी होती । रसवादी प्रोफेसर और रस- सागर के बीच एक प्रभेद्य दीवार थी, जिसके पार वे रस के लहराते समुद्र को देख तो सकते थे, पर उस तक पहुंचना असंभव था । इसी कारण अनजाने ही एक नई प्रवृत्ति उनके भीतर जन्म ले रही थी- वे पास-पड़ोस के तथा सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का सूक्ष्म अध्ययन करने लगे थे। हर श्रादमी के साथ सुख-दुख लगा रहता है परन्तु जैसे ही वे किसी के दुख को खोज निकालते, उनका हृदय अनायास ही उल्लास से भर उठता । परन्तु दुनिया तो विचित्र है। कभी-कभी ऐसा होता कि प्रोफेसर किसी व्यक्ति में जरा-सा भी दुख न ढूंढ पाते । तब उसको हंसते देखकर उनकी छाती 'उठने लगतीं और वे दीर्घ निश्वास खींचकर कहते, 'ग्रह ! कितना सुखी मनुष्य है ?"

बात यह है कि अभी-अभी उनके पड़ौस में एक नया परिवार श्रा बसा है । केवल दो प्राणी, पति और पत्नी दोनों सुन्दर, सुसंस्कृत और मधुरभाषी । सदा हंसते रहते और जब किसीसे बोलते, तो दादी की कहानी की राजकुमारी की तरह मुख से फूल झरते । देखते-देखते वे पड़ौस की चर्चा का विषय बन गए । हर एक गोष्ठी में, चाहे वह पुरुष वर्ग की हो अथवा नारी वर्ग की, उनकी जनता, विनम्रता और विद्वत्ता की चर्चा बड़ी श्रद्धा से की जाने लगी और सबको उनके सुखी जीवन से ईर्ष्या हो भाई । स्त्रियों की सभा में उनकी पत्नी की विशेष सराहना की जाती। युवतियां कहतीं — कैसी सुन्दर है; गोरा गोरा रंग, सुन-सी नाक, काली-कजरारी प्रांखें और स्वस्थ सुडौल शरीर जी करता है, बैठे-बैठे देखा करें। और हमेशा हंसते ही रहे हैं ।

'हां बहिन ! हमेशा हंसते ही रहे हैं जैसे फूल झड़ते हों और बोली कितनी मीठी है । जाते-जाते पूछ लेगी, 'कहो बहिनी ! क्या बना रही हो ।' 'अजी बहिन जी, हमें भी दिखा दो क्या बुन रही हो !' 'ओहो बड़ा सुन्दर हाथ है तुम्हारा ।' --- ऐसे ही सबका मन बढ़ाती रहे है ।'

'और बहिन ! एक बार पूछो तो दस बार बतावे है। फिर-फिरकर समझावे है । इस तरह बतावे है कि बस मन में उतरता चला जा है। उसपर सिफत यह है कि ज्यादा बात भी नहीं करे ।'

एक साथ कई युवतियां उनकी हां में हां मिलातीं। एक कहती, 'सो तो है ही बहिन ।'

दूसरी बोलती, 'हां जी ! बड़ी भली है, परमात्मा उसे सुखी रक्खे।' तीसरी कहती, 'जी करे है बहिन कि सदा उसके साथ रहूं ।'

इसपर एक कहकहा लगता। कोई मनचली कह उठती, 'दुर पगली ! उसका मालिक क्या तेरी जान को रोवेगा ?'

जब हंसी रुकती तो बूढ़ी दादी बोल उठती, 'बहू, मुझे तो उसकी एक बात बड़ी प्यारी लगे है ।'

'क्या जी ?"

'बस हमेशा काम करती रहे है और सब काम करे है। नहीं तो नए जमाने की लुगाई क्या ऐसी हो हैं। बाजार जा है, मगर क्या मजाल जो कभी पत्ता चाटे । सीधी जा है और सौदा लेकर लौट आवे है । घर में बुहारी- झाडू, चौका-बासन सब श्राप करे । काते भी है। कहवे थी मां जी ! कातना मुझे बड़ा प्यारा लगे है । घर्र-घर्र में तो जैसे भगवान् गावे हैं। मोहिनी-सी छा जावे है । चक्की भी पीसे है ।'

बहू ने अचरज से कहा, 'जी क्या सच !'

'और क्या झूठ कहूं हूं ! तेरी तरह ना है । दो हरफ पढ़े और मेमसाब सेज पर जा सोई । औौर उसे क्या कम सुख है । मालिक पलकों पर रखे है । दोनों जून दोनों जने हवाखोरी को जा हैं जैसे सीता-राम की जोड़ी हो ।'


दूसरी बहू कहती, 'पर मां जी, एक बात है; अभी उसकी गोद सूनी है । उमर तो उसकी काफी हो गई।'

मां जी जवाब देतीं, 'बहू, देखने में तो लौंडिया- सी लगे है। दिन आएंगे तो गोद भी भरेगी । श्राजकल बच्चे जरा बड़ी उमर में हो हैं ।'

इस तरह जहां भी दो श्रौरतें मिलतीं, घर में, मेले-ठेले में, हाट-बाजार में, शादी - गमी में, वहीं उनकी चर्चा श्राप से आप अनजाने ही चल पड़ती। प्रोफेसर वर्मा की पत्नी भी सब बातें सुनती है। वह स्वयं उसकी बड़ी प्रशंसक है क्योंकि अपनी आंखों से अपनी छत से सब कुछ देखती है। उनकी छत से छत मिलती है । जब प्रोफेसर की पत्नी ऊपर आती, तो कभी-कभी पडौसिन से दो बातें कर

ती । पर अभी वे बातें बहुत आगे नहीं बढ़ी हैं। एक तो प्रोफेसर की पत्नी बातें कम करती है और करती है तो साधारण औरतों की बातों में उसे ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। लड़ाई है, लड़ाई की वजह से जीना दूभर हो गया है। महंगाई बढ़ रही है, और महंगाई छोड़िए, पैसा है पर चीज नहीं है। खरीज का न जाने क्या हुआ ? दियासलाई मिट्टी का तेल, चीनी, मसाले, इन सबके अभाव में गिरस्ती बस जंजाल बन गई है ।

पड़ोसिन मुस्कराकर कहती, 'बहिन ! यह तो जीवन का एक रस है । प्रभाव न हो तो भाव को कौन पूछे। अपनी असलियत का पता आदमी को ऐसे ही चलता है ।'

प्रोफेसर की पत्नी भी श्रनायास मुस्करा उठती, 'सो तो तुम ठीक कहती हो बहिन, पर जी को दुख तो होता ही है।'

'दुख तो बहिन मानने का है। मानो तो दुख का अन्त नहीं है और मानो तो मौत भी सुखदायी है ।'

और फिर प्रोफेसर की पत्नी की ओर देखती और हंसकर कहती, 'पर बहिन, दुनिया में रहकर इस मानता से कौन बचा है ? वे कहते थे कि दुख सभी को होता है । पर हां, दुख को दुख मानकर भी जो उसे सहने की शक्ति रखते हैं उनके लिए दुख भी सुख हो जाता है।'

प्रोफेसर की पत्नी उसके पति की विद्वत्तापूर्ण युक्ति का क्या जवाब देती और बात एकदम रुक जाती। कभी बेबी रो उठती, कभी प्रोफेसर पुकार लेते । प्रोफेसर को यह सब पसंद नहीं है। पत्नी जब-जब उसकी प्रशंसा करती, वे अनमने-से हो उठते । कभी-कभी तो चिनचिना पड़ते । -- 'छोड़ो जी उसकी बातें, बनती है ।' पर पत्नी को ऐसी कोई बात नहीं दिखलाई पड़ती। फिर भी वह सोचा करती - शायद ये सच कहते हैं, वरना कोई इतना खुश कैसे रह सकता है। मैं उससे मेल बढ़ाऊंगी तब उसकी असलियत का पता चलेगा ।

मेल बढ़ाने का एक मौका अचानक दूसरे ही दिन आ गया । यद्यपि उसका आरम्भ दुखमय था, पर इसीलिए वह स्थायी था। बात यह है कि मां की तरह बेबी भी अक्सर मुंडेर पर चढ़कर उनके घर में झांका करती है। ठीक मुंडेर पर पीपल के दरख्त की कुछ शाखाएं झुक आई हैं । अक्सर वह उन्हें तोड़ने लगती है । उस दिन वह जैसे ही उन्हें तोड़ने को उठी, पैर रपट गया और वह धम्म से नीचे था गिरी। चीख निकल गई। प्रोफेसर की पत्नी नीचे थी, हड़बड़ाकर दौड़ी। देखा - बेबी बुरी तरह रो रही है और उसका चेहरा खून से भरा है । उसका दिल धक् से रह गया, 'हाय ! यह क्या हुआ | बेबी, बेबी !'

बेबी धीरे-धीरे संज्ञा खोने लगी और उसे सम्भालती-सम्भालती मां खुद पागल हो चली, पर ठीक इसी समय मुंडेर के पीछे एक मुस्कराता हुआ चिर- परिचित चेहरा ऊपर उठा । हाथ में शीशी और डिब्बा है । उसे मुंडेर पर टिकाकर, वह ऊपर चढ़ी और फिर फुर्ती से इधर कूद आई। दूसरे क्षरण बेबी उसकी गोद में थी । रूई से माथे का रक्त पोंछती - पोंछती वह बोली, 'जल्दी से दूध हो तो ले आओ । न हो तो निरी ब्राण्डी ही दे दूंगी।'

प्रोफेसर की पत्नी ने कृतज्ञ होकर कहा, 'दूध है, अभी लाती हूं ।' 'और चम्मच भी।'

'जी ।'

पत्नी गई और वह खून पोंछती रही। माथे पर दाहिनी ओर गहरा घाव बन गया है । उसे 'डीटोल' से साफ़ किया और धीरे-धीरे उसमें पाउडर भर दिया। फिर पट्टी बांधने लगी। बेबी पूरी तरह होश में नहीं है। जब दूध में ब्राण्डी मिलाकर चम्मच से उसे पिलाई, तो उसने प्रांखें खोलीं । सुन्दर गुलाबी चेहरा सफेद चिट्टा पड़ गया। वह मुस्कराई और बोली, 'बस बेबी ! घबरा गई। अरे शेर तो न जाने कितनी बार कूदते हैं।'

बेबी प्रांखें खोले देखती रही। न हंसी, न रोई श्रोर न बोली । प्रोफेसर की पत्नी की प्रांखें फिर-फिर कृतज्ञता से भर भाई बोली, 'आपने... ।'

'अरे छोड़िए भी ! बेबी को डाक्टर के पास ले जाना होगा। प्रोफ़ेसर साहब आएं तो कह दीजिए, और देखिए, बेबी को लिटाए रखना चाहिए। जख्म गहरा है ।'

तभी जीने में खटखट हुई। प्रोफेसर कालेज से लौट आए। पड़ोसिन ने सामान संभाला और अपने घर लौट चली । जाते-जाते फिर कहा, 'ब्राण्डी छोड़े जाती हूं। जरूरत होगी तो फिर दीजिएगा ।'

प्रोफेसर ने यह सब सुना और बेबी को खून से तर देखा तो घबरा उठे । बोले, 'यह क्या हुआ ?'

'बेबी मुंडेर से गिर गई ।'

'कहां चोट लगी ? ज्यादा लगी क्या ?"

'सिर में खूब गहरा जख्म है । पड़ोसिन ने 'फर्स्टएड' दी है। कहती है, अभी डाक्टर के पास ले जाना होगा ।'

प्रोफेसर तभी बेबी को लेकर डाक्टर के पास गए। मरहम-पट्टी हुई। डाक्टर ने कहा, 'प्रोफेसर ! आपकी पत्नी बड़ी चतुर है ।'

'जी !'

'पट्टी बड़ी अच्छी तरह की है। ट्रेंड है।'

प्रोफेसर के जी में भाया कि कहे—डाक्टर, जिसने पट्टी बांधी है वह मेरी पत्नी नहीं है । पर न जाने क्या हुआ, वे बोल न सके। चुपचाप बेबी को लेकर लौट पाए ।

तभी ऊपर से आवाज़ भाई, 'सुनिए तो ।'

देखा वही है। पूछ रही है, 'क्या कहा डाक्टर ने ?'

प्रोफेसर की पत्नी ने जवाब दिया, 'आपकी तारीफ कर रहा था। कहता था जख्म गहरा है । देर लगेगी पर डर नहीं है ।'

वह मुस्कराई, 'सब ठीक हो जाएगा ।'

धौर रात होने से पहले एक बार फिर पूछने भाई। इस बार उसके पति भी हैं। और फिर वे दोनों रोज सबेरे घूमकर लोटते तो फूलों के कई गुच्छे ले प्रा । पूछते, 'बेबी कैसी है ?"

'ठीक है।'

'ये फूल उसे दे दीजिए ।'

दिन बीतते जख्म भरता और साथ ही साथ पड़ोसिन का प्रेम भी बढ़ता । कभी-कभी छत से लाकर वह बेबी को देख भी जाती है। अक्सर कोई न कोई खिलौना ले प्राती है । फूले हुए उड़ने वाले गुब्बारे, सजी हुई गुड़िया, दो घोड़ों की गाड़ी या सुन्दर सलोनी गाय !

प्रोफेसर देखते और एक अनिर्वचनीय पीड़ा से भर उठते । कहते, 'मना क्यों नही करती ?' पत्नी कहती, 'कैसे करू ? सोचती हूं, इस बार जरूर मना करूंगी, पर वह आती है और ऐसे प्रेम से बोलती है, जैसे बेबी उसीकी है । बस, मै बोल भी नही सकती ।'

प्रोफेसर और भी चिनचिनाते, 'वाहियात ! यह सब बन्द होना चाहिए ।' 'तो क्या करू ?'

'मना कर दो !'

' पर जानते हो, इन्होकी बदौलत बेबी बची है ।'

और तब पत्नी की श्राखें भर आती है। प्रोफेसर उसे देखकर मुह फेर लेते है । शायद उनका दिल भी उमड़ता है - प्रेम से या घृणा से, कौन जाने ? पर उधर का क्रम उसी तरह चलता रहता है । यद्यपि जैसे-जैसे जख्म भर रहा है वैसे-वैसे उनका आना भी कम हो रहा है, पर प्रेम की गहराई बढ़ रही है ।

आखिर वेबी का घाव भर गया पर अर्द्ध चन्द्राकार-सा एक निशान वहां बना रह गया है । चन्द्रमा के कलंक की तरह यह रेखा प्रोफेसर की पत्नी को अच्छी नहीं लगती लेकिन पड़ोसिन मुस्कराकर कहती है, 'हलो! बेबी के माथे पर चन्द्रमा ! शंकर बाबा का चन्द्रमा ! कैसा सुन्दर ! कैसा प्यारा !' बेबी हस पड़ती है ।

एक सन्ध्या को उसने छत पर से आवाज दी, 'जरा सुनोगी बहिन ?' प्रोफेसर की पत्नी शीघ्रता से आई, 'क्या है जी ।'

'लो यह क्रीम है । धीरे-धीरे दो उंगलियों से घाव पर मलिए । देखिए, ऐसे धीरे-धीरे मालिश कीजिए। निशान मिटा नहीं, तो इतना फीका पड़ जाएगा कि दूर से कोई जान न सकेगा -- चन्द्रमा में कलंक है ।'

प्रोफेसर की पत्नी ने कृतकृत्य होकर कहा, 'आप बहुत अच्छी हैं ।' 'यानी बहुत खराब !'

पत्नी धक् से रह गई, जी ! नहीं, नहीं जी ।'

पड़ोसिन खिलखिलाकर हंसी, 'प्राप तो डर गई। पर कहा करते है कि किसीको यह कहना कि तुम बहुत अच्छे हो ऐसा ही है जैसे यह कहना कि तुम बहुत बुरे हो। क्योंकि जो आदमी अच्छा ही अच्छा है वह अभी तो कहीं दिखाई देता नही । लेकिन जाने भी दो यह तो विद्वानों की बातें है । वे जानें और जानें तुम्हारे प्रोफेसर हमें तो यों ही हंस खेलकर जीवन काट देना है । और हां ! कल श्राप हमारे घर आइएगा ।'

'कल क्या है ?'

'उनका जन्मदिन !'

'बधाई ! बहुत-बहुत बधाई ! बहिन ! तुम्हारा मुहाग प्रचल रहे ।' 'धन्यवाद बहिन ! पर असली बधाई तो आपके आने की है ।'

'जरूर आऊंगी जी ।'

'और प्रोफेसर भी ।' 'कह दूंगी।'

' कहना नहीं, लाना होगा । घबराइए नही, उनके द्वारा न्योता पहुंच जाएगा ।' और वह फिर खिलसिला पड़ी। प्रोफेसर की पत्नी लजा गई । पड़ोसिन ने फिर कहा, 'बेबी को न छोड़ आइएगा ।'

'जी नहीं, सभी आएंगे ।'

'धन्यवाद !' - उसने कहा और लौट गई।

प्रोफेसर ने जब सुना तब एक बार तो मन में उठा कि मना कर दें। फिर सोचा - यह तो बुरी बात है। इसके अलावा उन्हें पास से देखने का जो अवसर मिलेगा, उसे खोना ठीक नहीं होगा। इसीलिए वे अगले दिन ठीक समय पर पड़ोसी के घर पहुंचे । द्वार पर उन दोनों ने सदा की तरह मुकुलित मन सबका स्वागत किया । जिस कमरे में वे बैठे वह बहुत बड़ा नहीं है। फ़रनीचर भी सादा श्रीर कम पर जो है सुन्दर है और सुनियोजित है—एक ओर फर्श, जिसपर बिछी है दूध-सी नई चादर। तकिए भी उतने ही उजले और कोमल । कारनिस पर नाना प्रकार के पशु-पक्षी । छोटी गोल तिपाइयों पर शान्तिनिकेतन के बने सुन्दर और रंगीन फूल । लाल रंग के खूबसूरत फूलदानों में रक्खे हुए ताजे फूलों के गुलदस्तों से महकती भीनी-भीनी गन्ध । आदमी भी ज्यादा नहीं ।

कुल मिलाकर पांच पुरुष, चार स्त्रियां और चार बच्चे । मानो एक पारिवारिक परिचय - गोष्ठी हो और सब छुट्टी के 'मूड' में आनन्द - विनोद और मधुर हास्य का वातावरण जैसे उमड़ उठा हो । जैसे उनके लिए दुनिया में न कहीं पीड़ा है, न विषाद | चारों ओर है बस प्रमोद ही प्रमोद । घर में हंसी, आसमान में हंसी, हवा में हंसी, सर्वत्र हंसी हो हंसी।

देखा, एक कोने में फूलों का अस्त-व्यस्त ढेर लगा है। एक मित्र बोल उठे, 'जिधर देखो फूल, मानो आप लोग मनुष्य नहीं फूल हैं ।'

पतिदेव बड़े जोर से हंसे, 'ग्रजी पूछिए मत ! इन्होंने तो श्राज मुझे फूल ही समझ लिया था ।'

दूसरे मित्र हंसे, 'कुशल मनाइए, इन्होंने आपको मसल नहीं दिया।'

एक नवयुवती बोली, 'अजी, फूल नहीं फूलों का देवता समझा होगा ।' पत्नी ने मुस्कराकर कहा, 'अजी, क्या उपमा दी आपने ! इनसे तो पत्थर के देवता कहीं अच्छे ।'

एक कहकहा लगा। पति ने हंसते-हंसते कहा, 'क्यों नहीं। बेचारों पर कितना ही अत्याचार कर लो वे बोलेंगे थोड़े ही । पर भाई ! मुझसे तो ये सब सहा नहीं जाता । पहले ठंडे पानी में नहाइए । फिर पूजा करिए। फिर पूजा करवाइए। यह खाइए, देवी का प्रसाद, यह देवता का, यह आपकी दासी का, यह टीका लगवाइए, लीजिए मेरी मांग में सिन्दूर भर दीजिए। भला कोई अन्त है इस पूजा का ! बाप रे ! पत्थर ही की हिम्मत है !"

और तब ऐसा कहकहा लगा कि हंसते-हंसते सबके पेट में बल, प्रांखों में आंसू पर क्या मजाल वह झेंपी हो। उसी तरह हंसती रही। फिर हंसी-हंसी में काम की बातें चलीं । बधाइयां दी गईं और सूचना मिली कि चाय तैयार है । सब उठे और मेज़ पर पहुंचे । प्रोफेसर ने अब एक बार फिर उन्हें ध्यान से देखा, 'वही उल्लास ! वही उमंगों की वेगवती धारा ।'

'क्या है यह' – उन्होंने सोचा और म्लान मन चुपचाप चीनी घोलने लगे । सामने प्लेटों में रसगुल्ले हैं, गुलाब जामुनें हैं, पेड़े हैं, पेठे की डलियां हैं और हैं गरम-गरम समोसे, दालभाजी, टिकिया । कहते हैं, हंसते-हंसते और चार जनों में ज्यादा खाया जाता है। प्रोफेसर भी हंसते हैं और खाते हैं पर रह-रहकर उनके हृदय में जैसे कोई सुई चुभ उठती है । वे 'सी' करना चाहते थे, पर कर नहीं सकते । इसलिए पीड़ा और भी असह्य हो उठी है। तभी अचानक उन्होंने देखा - बेबी खेलती-कूदती चारों ओर दौड़ रही है। कभी इस खिलौने को छूर्त है कभी उसको । ध्यान श्राया कि कहीं कुछ तोड़ न दे इसलिए पुकार ले प जैसे ही उन्होंने पुकारना चाहा, बेबी भागी। उसका पैर तिपाई मे लगा। तिपाई उलट गई और उसपर के खिलौने, कीमती फूलदान चूर-चूर होकर फर्श पर बिखर गई । जैसे भूडोल आया । प्रोफेसर क्रुद्ध चिल्ला उठे, 'कम्बख्त ! तूने यह क्या किया !"

जैसे क्षणभर के लिए प्रशान्त सागर उबल उठा। सबकी दृष्टि उस प्रो उठी । गृहिणी ने एक बार क्रुद्ध प्रोफेसर को देखा फिर सहमी सकपकाई बेबी को, और फिर खिलखिलाकर हंस पड़ी। देखते-देखते बेबी को गोदी मे भर लिया और पागलों की तरह चूमने लगी, 'बेबी ! मेरी बेबी ! जानती हो, तुमने आज एक बहुत बड़ा काम किया है, बहुत बड़ा !'

और फिर प्रोफेसर की ओर मुड़कर उसने कहा, 'आप बड़े निर्दयी है। ऐसे प्यारे बच्चे को ताड़ते हैं ? खिलौनों का मूल्य खेलने में है और जब उनसे खेला जाएगा, तो उनका टूटना जरूरी है ।'

फिर क्षण भर के लिए रुकी, जैसे सांस लेती हो । धीरे से बोली, 'न जाने कबसे रक्खे थे । न कोई छूता था, न खेलता था। देखते-देखते प्रांखें थक गई थीं । प्राज बेबी ने उसी थकान को दूर किया है ।'

और कहकर उन्होंने फिर बेबी को जोर-जोर से चूमा और फिर उतार- उतारकर सारे खिलौने उसके सामने डालने लगी, 'खेलो और तोड़ो, मेरी बच्ची ! खूब तोड़ो। आखिर इनका अन्त प्राना ही चाहिए, आना ही चाहिए ।'

जैसे कमरे में निस्तब्धता छा गई। अपलक प्रवाक् सब उस नारी को देखते रह गए। वह अब भी उसी तरह हंस रही है, हंसे जा रही है पर उस हंसी के पीछे पीड़ा का जो अदृश्य सागर लहराता रहा है वह आज प्रकट हो गया है । प्रोफेसर ने उसे स्पष्ट देखा । यह उनकी विजय है। उनके हर्ष का अवसर है, पर न जाने क्यों वे एक अनिर्वचनीय सहानुभूति से भर उठे है और मन ही मन कह रहे हैं, इतने बड़े प्रभाव को हृदय में छिपाकर भी जो इतना खुलकर हंस सकता है उस व्यक्ति को मैं बार-बार प्रणाम करता हूं ।

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रचनाएँ
धरती अब भी घूम रही है
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अध्याय 4: गृहस्थी

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अध्याय 5: नाग-फांस

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अध्याय 6: सम्बल

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अध्याय 7: ठेका

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 पहली कहानी की तरह इस कहानी की प्रेरणा भी समाज में फैले नाना विध भ्रष्टाचार से मिली। यह किसी एक व्यक्ति की कहानी नही है बल्कि अनेकानेक व्यक्तितो का प्रतिनिधित्व करने वाले एक ठेकेदार की कहानी है। साध

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अध्याय 9: कितना झूठ

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यह मेरे अपने जीवन का एक पृष्ठ है। निशिकांत की प्रांखें रह-रहकर सजल हो उठतीं और वह मुंह फेरकर सड़क की श्रोर देखने लगता, मानो अपने प्रांसुत्रों को पीने की चेष्टा कर रहा हो । सड़क पर सदा की तरह अनेक नर

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अध्याय 10: अधूरी कहानी

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'आश्रिता' एक विचार का परिणाम है। इस संग्रह में जितनी कहानियां संगृहीत हैं उनमें शायद यह सबसे पहले लिखी गई है। इसका रचनाकाल १६३७ है। उन दिनों मेरा जैनेन्द्र जी से परिचय हुआ ही हुआ था। मुझे याद है इस कह

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