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अध्याय 10: अधूरी कहानी

20 अगस्त 2023

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हिन्दू-मुस्लिम समस्या भारत की एक शाश्वत समस्या बन गई है। पाकिस्तान बन जाने पर भी इस समस्या का हल नही हुआ। इस कहानी में मैंने उस समस्या की जड़ में जाने का प्रयत्न किया है। बेशक समस्या का यह एक पहलू है लेकिन काल्पनिक नही है । इस कहानी का मै साक्षी रहा हूं। बल्कि कहानी का एक पात्र मैं ही हूं। यह कहानी भी लोकप्रिय हुई है।

नारों की आवाज़ धीरे-धीरे धीमी, फिर बहुत धीमी पड़ गई, प्लेटफार्म की भीड़ छटने लगी और सब लोग अपनी-अपनी सीट पर भ्रा बैठे। देखा -- इसी बीच में एक मुस्लिम युवक एक हिन्दू सज्जन से उलझ पड़ा है। युवक कह रहा है, 'हम पाकिस्तान नहीं चाहते लेकिन कांग्रेस ने मजबूर कर दिया है। हम अब उसे लेकर छोड़ेंगे ।'

हिन्दू साहब ने तलखी से जवाब दिया, 'पाकिस्तान ! जो पाकिस्तान आप छै सौ बरस की हुकूमत में न बना सके उसे अब गुलाम रहकर बनाना चाहते हैं। एकदम नामुमकिन ।'

एक भारी बदन के मुसलमान, जो सामने के बर्थ पर बैठे हुए थे, बीच में बोल उठे, 'छ सो नहीं साहब ! हमने नौ सौ बरस हुकूमत की है ।'

'जी हां ! नौ सौ वर्ष !'

'और उन नौ सौ बरस में हिन्दू बराबर हमसे नफ़रत करते रहे ।'

'जी ! क्या कहा आपने ?' हिन्दू साहब बोले, 'नफरत करते रहे ? जो जुल्म करता है उससे नफ़रत की जाती है, प्यार नहीं किया जाता ।'

उन मुसलमान भाई ने बड़े अदब से कहा, 'जुल्म क्या है इसपर सबकी अलग-अलग राय है पर मेरे दोस्त ! आप लोगों ने हमें सदा दुरदुराया । हमारी छाया से आपको परहेज रहा। माना हम जालिम थे। पर जालिम के पास भी दिल होता है । वह कभी न कभी पिघल सकता है। लेकिन परहेज सदा मोहब्बत की जड़ खोदता है । वह नफरत करना सिखाता है। आपने हमसे नफरत की श्रीर चाहा कि हम आपसे प्यार करें। यह कैसे हो सकता था ? माफ करना में श्राप लोगों की कदर करता हूं । मैं मेल-जोल का पूरा हामी हूं, पर आप बुरा न मानें तो एक बात पूछना चाहूंगा।'

हिन्दू भाई की तेजी और तलखी अब कुछ घबराहट में बदलती जा रही थी और दूसरे मुसलमान साहब अनोखी अदा से मुस्कराने लगे थे। तो भी उन्होंने कहा, 'जी ! ज़रूर पूछिये ।'

वे मुसलमान भाई नियाहत शराफत से बोले, 'अछूत हिन्दू हैं, पर प्राप उन्हें ताकत सौंप दीजिए तब, मैं पूछता हूं, वह आपसे प्यार करेंगे या नफरत ?"

हिन्दू भाई सिटपिट | उन्हें एकाएक जवाब न सूझा। मुसलमान साहब उसी संजीदगी से कहते रहे, 'मैं जानता हूं श्राज आप उन्हें अपने बराबर मानते हैं। मेरे ऐसे हिन्दू दोस्त है जो इन्सान इन्सान के बीच के भेद को दुनिया का सबसे बड़ा पाप समझते है । पर मेरे दोस्त ! भेद की इस लकीर को बराबर गहरी करने में जाने या अनजाने, जो लोग मदद करते श्राए हैं, उनके पापों का फल तो भुगतना ही पड़ेगा । आप न समझिए, मैं श्रापकी जाति और धर्म पर हमला कर रहा हूं। मैं आपके धर्म को समझता हूं। मेरे दिल में उसके लिए जगह है। मैं मुसलमानों की कमियों से भी वाकिफ हूं पर दूसरों में कमी है यह कहकर कोई अपनी कमी को सही साबित करने की कोशिश करे, तो वह महज अपनी जिद और बेवकूफी जाहिर करेगा। जो असलियत है उसका सामना करना ही इन्सान की इन्सानियत है । मैं आपको एक छोटी-सी कहानी सुनाता हूं। मुझे वह मेरी वाल्दा ने सुनाई थी ।'

इतना कहकर वे पलभर रुके। डिब्बे में तबतक सन्नाटा छा गया था । पता नहीं लगा गाड़ी कब चल पड़ी और कब 'शड़ाक छू छड़ाक-छू' की गहरी श्रावाज करती हुई अगले स्टेशन पर जा खड़ी हुई। सूरज डूबने लगा था । एक भाई ने स्विच दबा दिया। बिजली की हलकी रोशनी से डिब्बा चमक उठा ।

तब उन भारी बदन के मुसलमान भाई ने कहना शुरू किया, 'मेरे दोस्तो !

बात आज से तीस बरस पहले की है। हमारे सूबे में एक छोटा-सा कस्बा है । उसमें हिन्दू-मुसलमान सभी रहते हैं । वह सदा श्रापस में मोहब्बत करते थे। एक दूसरे के दुख-सुख के साथी थे, लड़ते भी थे पर वह लड़ना प्यार की तड़प को और भी गहरा कर देता था । हिन्दुनों के त्योहारों पर मुसलमान उन्हें बधाई देते थे । मौसम की पैदावार का लेना-देना चलता था। होली जलती तो जो की बालें पहुंचाने का जिम्मा मुसलमानों पर था। ईद के दिन हिन्दू अपनी गाय- भैसों का सारा दूध मुसलमानों में बांट देते थे । सबेरे ही दूध दुहकर वह अपने- अपने दरवाजों पर खड़े हो जाते और थोड़ा-थोड़ा दूध सब मुसलमानों को देते । उस दिन उनकी अंगीठियों से धुआं नहीं निकलता था, लेकिन उनके दिल की दुनिया खिल उठती थी। मैं नहीं जानता यह रिवाज कब और कैसे चला । इसकी बुनियाद जुल्म पर भी हो सकती है । पर उन दिनों यह मोहब्बत, इन्सानियत और हमदर्दी का सबूत बन गया था। जो हो, उस साल भी ईद आई । मुसलमानों के घर जन्नत बने । उनके बच्चे फरिश्तों की तरह खिल उठे । लेकिन दुनिया आखिर दुनिया है । यहां जिन्दगी के बगल में मौत सोती है । रंज हमेशा खुशी का दामन पकड़े रहता है । इसीलिए जब सब लोग हंस रहे थे, घर में एक बालक दुखी मन चुपचाप अपनी अम्मा की चारपाई के पास बैठा था । उसकी अम्मा फातिमा बीमार थी। उसकी सांस फूल रही थी । वह बेचैन हाथ-पांव फेंक रही थी । लेकिन यह बेचैनी बुखार की इतनी नहीं थी जितनी कि खाविन्द की याद की। पारसाल अहमद का बाप जिन्दा था, तो घर में फुलवाड़ी खिली थी। वह अचानक एक दिन खुदा को प्यारा हुआ, घर वीरान हो गया । आज ईद श्राई है लेकिन एकाएक फातिमा को न जाने क्या सूझा, वह उठकर बैठ गई । उसने हांफते - हांफते कहा, 'मेरे बच्चे ! कितना दिन चढ़ गया ? तू दूध लेने नहीं गया ?'

'अहमद ने सिर हिलाकर कहा, 'नहीं अम्मी !'

'फातिमा के दिल पर चोट लगी। उसकी श्रांखें भर आईं। वह अपने को कोसने लगी, 'मैं कैसी कमीनी हूं ! साल का त्योहार श्राया है और मेरा बच्चा इस तरह मोहताज, बेबस बैठा है । नहीं, नहीं, आज ईद मनेगी, जरूर मनेगी ।'

'और उसने कहा, 'जा अहमद ! तू जल्दी जाकर दूध ले आ । मैं तब तक  तेरे कपड़े निकालती हूं । जा जल्दी कर मेरे बच्चे ।'

'बच्चे ने एक बार अपनी अम्मी को देखा और फिर चुपचाप बाल्टी उठा- कर बाहर चला गया । लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। सब लोग दूध बांटकर अपने-अपने काम में लग गए थे। रास्ते में उसके साथी हंसते-हंसते दूध से भरे लोटे और बाल्टी लिए चले आ रहे थे। उन्होंने उसे देखा और अचरज से कहा, 'अरे ! तुमने बहुत देर कर दी ? तुम अब तक कहां तो रहे थे ? अब तो सब दूध बंट चुका है। मियां, अब जाकर क्या करोगे ?'

'अहमद सुनता और उसका दिल बैठने लगता। उनकी बात ठीक थी । वह जिस दरवाजे पर जाता, वहा फर्श पर पड़े दूध के छींटों के अलावा उसे कुछ नहीं मिलता । तब सचमुच उसका दिल भर श्राया । श्रांखें नम हो उठीं। लेकिन फिर भी उम्मीद की डोर पकड़े वह श्रागे बढ़ा चला गया कि अचानक एक दर- वाजे पर किसीने उसका नाम लेकर पुकारा, 'अहमद ! अहमद !'

'अहमद ने रुककर देखा — पुकारने वाला उसका सहपाठी दिलीप है । वह ठिठक गया। दिलीप दौड़कर आया, बोला, 'तू अब तक कहां था ? तेरी बाल्टी खाली है।'

'अहमद की आवाज़ भर्रा रही थी। उसने कहा, 'अम्मी बीमार है, मुझे देर

हो गई ।'

''तो ।'

''दूध बिल्कुल नहीं है ?"

''ना !'

'फिर कई पल तक वह दोनों उसी दरवाज़े पर जहां आध घंटा पहले दूध लेने वालों की आवाज गूंज रही थी, चुपचाप खड़े रहे कि अचानक दिलीप को कुछ सूझा। वह अन्दर दौड़ा गया। जाते-जाते उसने कहा, 'तू यहीं ठहर, मैं अभी आया ।'

'अन्दर वह सीधा अपनी मां के पास पहुंचा और धीरे से बोला, 'भाभी ! कुछ दूध और है क्या ?"

'मां बोली, 'हां है, तेरे और मुन्ने के लिए है। तू पिएगा ?"

"नहीं ।'

'अचरज से मां ने पूछा, 'तो ?'

'दिलीप नहीं बोला ।

''अरे बात क्या है बता तो ।' ''अहमद को दूध नहीं मिला ।'

'कौन अहमद ?"

''वह मेरे साथ पढ़ता है। उसकी मां बीमार है इसलिए उसे देर हो गई ।' ' कहते-कहते दिलीप ने अपनी मां को ऐसे देखा जैसे उसने कोई कसूर किया हो । पर मां का दिल एकाएक खुशी से भर श्राया । वह मुस्कराई । उसने दूध का भरा लोटा उठाया और कहा, 'चल बता कहां है तेरा दोस्त ।'

' दिलीप ने तब खुशी की छलांग लगाई। मां-बेटे दरवाजे पर आए । अहमद उसी तरह खड़ा था। दिलीप ने हंसते-हंसते कहा, 'प्रहमद ! बाल्टी ला । जल्दी कर !'

'दिलीप के लोटे का दूध अहमद की बाल्टी में क्या आया उसकी मोहब्बत अहमद के दिल में समा गई। मां ने पूछा, 'तेरी मां बीमार है ?'

" "जी ।'

''तो सेवैयां कौन बनाएगा ?'

''वही बनाएगी !'

''अच्छा, हमें भी खिलाएगा न ?'

'अहमद ने सिर हिलाकर कहा, 'जरूर !'

'मां हंस पड़ी । बोली, 'भगवान् तेरी मां को जल्दी अच्छा करेगा । जा घर जा, जल्दी आता तो और भी दूध मिलता ।'

'और फिर दिलीप का हाथ पकड़कर उसकी मां अन्दर चली गई । उसका दिल बार-बार यही कह रहा था, 'परमात्मा मेरे बच्चे का दिल सदा इसी तरह खुला रखे !'

'उधर अहमद फुला-फूला घर आया । दरवाज़े में घुसते ही उसने पुकारा, 'अम्मी ! मैं दूध ले आया ।'

'फातिमा खिल उठी, 'ले आया ? बहुत अच्छा बेटा ! कहां से लाया ?'

'अहमद खुशी से बोला, 'अम्मी ! बहुत देर हो गई थी। सब दूध बंट चुका था लेकिन दिलीप ने अपनी मां से जाकर कहा और फिर वे मुझे इतना दूध दे गई 

'फिर एकदम बोला, 'अम्मी ! दूध थोड़ा तो नहीं है ?" ''बहुत है, मेरे बेटे ! इतना ही बहुत है ।'

"हां अम्मी ! सब दूध बंट चुका था। यह उसके अपने पीने का दूध था ।' ''अपने !'

''हां! अपने और छोटे भाई के जरा-सा रखकर सब उसने मुझे दे दिया ।' 'फातिमा का दिल भर आया। गद्गद होकर बोली, 'खुदा उसका भला करे ! उसने गरीब की मदद की है ।'

'और फिर उन्होंने खुशी-खुशी ईद मनाने की तैयारी की। फ़ातिमा का बुखार हलका हो चला । उसने अहमद को नहलाया और कपड़े बदले । किसी तरह वह उसके लिए कुरता-पाजामा तो नया बना सकी थी पर जूता पुराना ही था । उसे तेल से चुपड़कर चमका दिया और टोपी पर नई बेल टांक दी । अहमद खुश होकर बाहर साथियों में चला गया। नमाज पढ़ने जाना था और उसके बाद मेला भी देखना था । सबकी जेबों में पैसे खनखना रहे थे। सबकी प्रांखें चमक उठी थीं ! सबके मन उछल उछलकर मिठाई और खिलौनों की दूकानों पर जा पहुंचे थे। अगरचे श्रहमद के पास बहुत कम पैसे थे पर क्या हुआ, उसका दिल तो कम खुश नहीं था । कम होता क्यों, अम्मी ने उसे बताया था कि उसके अब्बा दिसावर गए हैं, बहुत रुपये लाने । अगली ईद पर लौटेंगे। जैसे नियाज़ के अब्बा लौटे थे । यह क्या कम भरोसा था ? इसी भरोसे को लेकर वह ईदगाह पहुंचा। वहां उसने हजारों इन्सानों को एकसाथ नमाज पढ़ते देखा। उसके बाद उसने मेले की सैर की चाट, मिठाई, फल, खिलोने सभी तरह की दुकानों की उसने पड़ताल की। उसने साथियों को भूलते देखा पर वह तो सब कुछ अगले साल के लिए छोड़ चुका था। इसीलिए जो कुछ पैसे अम्मी ने उसे दिए थे उन्हें ठिकाने लगाकर वह घर लौट माया देखा सेवैयां बन चुकी हैं। गरम-गरम लम्बी-लम्बी सेवैयां उसे बड़ी खूबसूरत लगीं। बीच-बीच में गोले की फांक पड़ी थी । शक्कर की वजह से दूध कुछ पीला हो गया था। उसका दिल बाग़-बारा हो उठा । फातिमा ने प्यार से उसे देखा और कहा, 'मेरे बच्चे ! जा कटोरा ले भा और खाला के घर सेवैयां दे था। फिर मामू के घर जाना और फिर....' 'ग्रहमद बोला, 'सबके घर देते हैं ?"

'हां बेटा ! वे भी तो हमें भेजेंगे ।'

"अच्छा अम्मी, मैं अभी दे आता हूं ।'

'और फातिमा ने दोनों कटोरों में सेवैयां भरीं और उनपर रूमाल ढक दिया कि कहीं चील झपट्टा न मार ले । अहमद पहले एक कटोरा उठाकर चला लेकिन जैसे ही वह दरवाज़े से बाहर हुआ उसे एक बात याद आ गई-सेवैयां सबसे पहले दिलीप के घर देनी चाहिए। उसने मुझे दूध दिया था, अपने हिस्से का दूध !

'बस, उसने अपना रास्ता पलटा । खाला के घर न जाकर वह दिलीप के घर की ओर चला । सोचने लगा, अम्मी सुनेगी तो बड़ी खुश होगी। बेचारी बीमार है । इसलिए दिलीप का नाम भूल गई। नहीं तो। यही सोचता हुआ वह खुशी-खुशी दिलीप के घर पहुंचा। दरवाजा बन्द था। कुछ देर वह असमंजस में सकुचा हुआ खड़ा रहा फिर हिम्मत करके आवाज़ दी, 'दिलीप !' ‘कोई नहीं बोला ।

'फिर पुकारा, 'दिलीप !'

'इस बार किसीने जवाब दिया, 'कौन है ?'

'और साथ ही कहने वाला बाहर आ गया। वह दिलीप का बड़ा भाई था । उसने अचरज से ग्रहमद को देखा और पूछा, 'क्या चाहते हो ?'

'अहमद झिका, फिर संभलकर बोला, 'दिलीप है ?'

''नहीं !'

"उसकी मां ?'

''मां ? मां से तुम्हारा क्या मतलब ?"

'अहमद ने कहा, 'मेरा नाम अहमद है । मैं दिलीप के साथ पढ़ता हूं । सबेरे उसने मुझे अपने हिस्से का दूध दिया था।'

'दिलीप का भाई मुस्कराया। तब तक दिलीप की मां और चाची भी वहां आ गई थीं। भाई ने कहा, 'तो फिर ?'

'जी सेवयां लाया हूं । इन्होंने ( मां को बताकर ) कहा था कि ......

'अहमद अपना कहना पूरा करे कि दिलीप के भाई बड़े ज़ोर हंस पड़े, कहा, 'भोले बच्चे ! जाओ अपने घर लौट जाओ ।'

'चाची बोली, 'हम क्या तुम्हारी सेवैयां खा सकते हैं ? हमें क्या अपना ईमान बिगाड़ना है ।'

'मां ने निहायत नरमी से कहा, 'बेटे ! मैंने तुमसे मजाक किया था । हम तुम्हारे घर की सेवैयां नहीं खा सकते ।'

'अहमद एकदम सकपका गया। उसके छोटे-से दिल पर चोट लगी। फिर भी उसने हिम्मत बांधकर कहा, 'क्यों नहीं खा सकते ? हमने भी तो आपका दूध लिया था।'

'अब भाई ने उसे समझाया, 'बच्चे ! तुम बहुत अच्छे हो । परमात्मा तुम्हें खुश रखे। लेकिन हम हिन्दू हैं, और हिन्दू लोग तुम्हारे हाथ का छुप्रा खाना पाप समझते हैं ।'

'अहमद पाप-पुण्य नहीं समझता था । उसे हिन्दू-मुसलमान के इतने गहरे भेद का अभी तक पता न था। वह सिर्फ़ दिलीप और उसकी मां की मोहब्बत की बात सोच रहा था। लेकिन यह बात सुनकर उसका दिमाग चकराने लगा । वह खिसिया गया, और जैसे ही घर जाने को मुड़ा उसका हाथ कांपा । सेवैयों से भरा कटोरा जोर की आवाज करता हुआ वहीं उसी चौकी पर गिर पड़ा, जिसपर सबेरे-सबेरे दिलीप और दिलीप की मां ने दूध के रूप में अपनी मोहब्बत अहमद के दिल में उंडेल दी थी। सेवैयां चारों तरफ फैल गई और अहमद की मोहब्बत पैरों से रौंदे जाने के लिए वहीं पड़ी रह गई ।'

सहसा यहीं श्राकर कहानी को रुक जाना पड़ा। गाड़ी स्टेशन पर आ गई थी और मुझे यहीं उतरना था। डिब्बे की संजीदगी को भंग करता हुआ मैं अपना बैग उठाकर नीचे उतर गया और नीचे श्राकर उनकी तरफ देखते हुए मैंने कहा, 'मैं नहीं जानता आपकी कहानी कहां खतम होगी पर इतना ज़रूर जान गया हूं, आप ही अहमद हैं ।'

अहमद साहब मुस्कराए, उन्होंने कहा, 'आपने ठीक पहचाना, मैं ही वह लड़का हूं ।'

मैंने पूछा, 'लेकिन सच कहना, मोहब्बत की वह लकीर क्या श्राज बिलकुल ही मिट गई है ?"

वह उसी तरह मुस्करा रहे थे, बोले, 'मेरे दोस्त ! इस दुनिया में मिटने वाला कुछ भी नहीं है । मोहब्बत तो हरगिज नहीं । सिर्फ़ हमारी गफलत से कभी-कभी उसपर परदा पड़ जाता है ।'

'तो', मैंने कहा, 'विश्वास रखिए, उस परदे को फाड़ देने में हम कोई कसर उठा न रखेंगे ।'

इतना कहकर मैं चला आया । कहानी शायद प्रागे बढ़ी होगी। पर मेरे लिए यह अधूरी कहानी ही दिल का दर्द बन बैठी है। रात के सन्नाटे में कभी- कभी मेरे दिल में इतनी टीस उठती है कि क्या बताऊं...?'

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रचनाएँ
धरती अब भी घूम रही है
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‘पद्यमभूषण’ से सम्मानित लेखक विष्णु प्रभाकर का यह कहानी-संकलन हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुआ है। इसमें लेखक ने जिन चुनिंदा सोलह कहानियों को लिया है उनकी दिलचस्प बात यह है कि अपनी हर कहानी से पहले उन्होंने उस घटना का भी उल्लेख किया है जिसने उन्हें कहानी लिखने की प्रेरणा दी।
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भूमिका

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 इस संग्रह मे मेरी सोलह कहानियां जा रही है । मैंने २०० वहानिया लिखी है, जिनमें से इनका चुनाव एक विशेष दृष्टि से किया गया है । इनमें से प्रत्येक के बारे में मैं अलग से लिख चुका हू । इसके बाद और क्या

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अध्याय 1: धरती अब भी घूम रही है

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इस कहानी की प्रेरणा मुझे अचानक ही नही हुई। हमारे सामाजिक जीवन में जो भ्रष्टाचार घर कर गया है, उसके सम्बन्ध में अनेक घटनाओं से मुझे परिचित होने का अवसर मिला है, और उनका जो प्रभाव मुझपर पडा, उहीका साम

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अध्याय 2: अगम अथाह

20 अगस्त 2023
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 स्वतन्त्रता प्राप्ति से कुछ पूर्व से लेकर कुछ बाद तक जो नरमेध यज्ञ इस देश हुआ 'उसको मैने बहुत पास से देखा है। उसीकी एक झलक इस कहानी में हैं । अपनी ओर से मैने इसमें बहुत कम कहा है । गाड़ी ने सीटी द

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अध्याय 3: रहमान का बेटा

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 पंजाब के एक छोटे-से कस्बे में सरकारी नौकरी करते हुए मैने वहां के निम्न वर्ग को काफी पास से देखा। इधर-उधर उनमें जो चेतना जाग्रत हो रही थी उसका अनुभव किया और एक दिन यह कहानी लिख बैठा । एक ही बैठक में

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अध्याय 4: गृहस्थी

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अध्याय 5: नाग-फांस

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अध्याय 6: सम्बल

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 यात्रा करने का मुझे शौक है। किसी यात्रा में ऊपर के बर्थ पर पड़ा सो रहा था तब एकाएक जागकर सुना कि नीचे की बर्थ पर बैठे हुए दो व्यक्ति बड़े करुण स्वर में किसी व्यक्ति का मृत्यु की चर्चा कर रहे हैं। औ

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अध्याय 7: ठेका

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 पहली कहानी की तरह इस कहानी की प्रेरणा भी समाज में फैले नाना विध भ्रष्टाचार से मिली। यह किसी एक व्यक्ति की कहानी नही है बल्कि अनेकानेक व्यक्तितो का प्रतिनिधित्व करने वाले एक ठेकेदार की कहानी है। साध

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अध्याय 8: जज का फैसला

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 इस कहानी का आधार भी एक विचार है और इस विचार के कई रूप हो सकते है । मैं इन सब रूपों को लेकर लिखना चाहता था लेकिन अभी तक लिख नहीं पाया। यह प्रेम की उत्कटता का एक रूप है। इस कहानी का रेडियो रूपान्तर भ

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अध्याय 9: कितना झूठ

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यह मेरे अपने जीवन का एक पृष्ठ है। निशिकांत की प्रांखें रह-रहकर सजल हो उठतीं और वह मुंह फेरकर सड़क की श्रोर देखने लगता, मानो अपने प्रांसुत्रों को पीने की चेष्टा कर रहा हो । सड़क पर सदा की तरह अनेक नर

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अध्याय 10: अधूरी कहानी

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हिन्दू-मुस्लिम समस्या भारत की एक शाश्वत समस्या बन गई है। पाकिस्तान बन जाने पर भी इस समस्या का हल नही हुआ। इस कहानी में मैंने उस समस्या की जड़ में जाने का प्रयत्न किया है। बेशक समस्या का यह एक पहलू है

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अध्याय 11: आश्रिता

20 अगस्त 2023
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'आश्रिता' एक विचार का परिणाम है। इस संग्रह में जितनी कहानियां संगृहीत हैं उनमें शायद यह सबसे पहले लिखी गई है। इसका रचनाकाल १६३७ है। उन दिनों मेरा जैनेन्द्र जी से परिचय हुआ ही हुआ था। मुझे याद है इस कह

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अध्याय 12: मेरा बेटा

21 अगस्त 2023
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'अधूरी कहानी' की तरह इसकी प्रेरणा भी मैने हिन्दू-मुस्लिम समस्या में से पाई है। पंजाब में रहा हूं और इस समस्या की भयंकरता को मैंने देखा ही नहीं भोगा भी है। कैसे-कैसे इस समस्या ने मेरे मस्तिष्क पर प्रभ

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अध्याय 13: अभाव

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'अभाव' दो मित्रों के बीच हुए एक विवाद का परिणाम है। इस कहानी के प्रोफेसर मेरे वही मित्र हैं और मैं कहूंगा उन्होंने जो घटना मुझे सुनाई उसको बस मैने अपने शब्दों में लिख भर दिया। इस कहानी को लेकर भी का

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अध्याय 14: हिमालय की बेटी

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हानी मेरे बड़े भाई ने मुझे सुनाई थी। शायद इसकी नायिका अभी भी जीवित है । मेरी कल्पना में कुछ रंगना, हो सकता है, आ गई हो, लेकिन मूल घटना वैसी की कैसी ही है। दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में इसको त

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अध्याय 15: चाची

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 इसे शायद मैं कहानी नही कहना चाहूंगा। यह एक व्यक्ति का चित्र है। वह व्यक्ति हमारी तरह हाड़-मांस का व्यक्ति था। कल्पना का नही। कुछ लोगों ने इस स्केच को मेरी पहली कहानी 'धरती अब भी घूम रही है' से अधिक

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अध्याय 16: शरीर से परे

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