इस कहानी की प्रेरणा मुझे अचानक ही नही हुई। हमारे सामाजिक जीवन में जो भ्रष्टाचार घर कर गया है, उसके सम्बन्ध में अनेक घटनाओं से मुझे परिचित होने का अवसर मिला है, और उनका जो प्रभाव मुझपर पडा, उहीका सामूहिक रूप यह कहानी है। बच्चों को पास से देखने और उनका अध्ययन करने का मुझे बहुत अवसर मिला है। उनकी सवे दनशीलता और उनके निरीक्षण करने की शक्ति से मै बहुत प्रभावित हुआ हूं। वे जो कुछ कह और कर जाते हैं उसपर सहसा विश्वास नही होता। इस कहानी में उसी अविश्वसनीय सत्य के दर्शन कराए गए है। मैने लगभग २०० कहानियां लिखी है लेकिन मेरा विश्वास है कि यह कहानी सबसे अधिक लोकप्रिय हुई है और इसका सारे देश में और विदेशो में भी चर्चा हुई है ।
श्रयु नीना की दस वर्ष की भी नहीं थी लेकिन बुद्धि काफी प्रौढ़ हो गई । जैसा कि अक्सर मातृ-हीन बालिकाओं के साथ होता है, बुजुर्गी ने उसके ए आयु का बन्धन ढीला कर दिया था । इसलिए जब उसने सुना कि कुछ पर सोया हुआ उसका छोटा भाई सुबक रहा है तो वह चुपचाप उठी । क्षरण भयातुर दृष्टि से चारों ओर देखा, फिर उसके पास आकर बैठ गई । तब रात प्राधी बीत चुकी थी और चांद कभी का ग्रस्त हो चुका था, फिर कुछ दूर पर सोते हुए उनके मौसा के परिवार के दूध से धुले कपड़े अन्धकार कालस में चमक रहे थे जैसे तमसावृत श्मशान में अग्नि के स्फुलिंग। वही क नीना के नन्हे से दिल में कसक उठी। किसी तरह रुलाई रोककर उसने से पुकारा, 'कमलओ कमल ।'
...
कमल आठवें वर्ष में चल रहा था। उसके छोटे-से खटोले पर एक फटी-सी बिछी थी । उसपर वह लेटा था गुड़-मुड़, पैर उसने पेट से सटा रखे थे मुंह को हाथों से ढक रखा था। रह-रहकर उसका पेट सिकुड़ता और सुबकियां निकल जातीं। उसने बहन की पुकार का कोई जवाब नही दिया । नीना भी इतनी सहमी हुई थी कि दूसरी बार पुकारने का साहस न बटोर पाई । चुपचाप कमर सहलाती रही, देखती रही। कई क्षरण बीत गए तो उसे सीधा करके उसका मुंह अपने दोनों हाथों में ले लिया । तब उसकी आंखें डबडबा आई और आंसू ढुलककर कमल के मुख पर जा गिरे। कमल कुनमुनाया, फिर प्रांखे बन्द किए किए बोला, 'जीजी !'
नीना ने चौंककर कहा, 'तू जाग रहा था रे ।'
'नींद नहीं श्राती 'जीजी, पिताजी कब आएंगे ? जीजी, पिताजी के पास चलो ।'
'पिताजी।'
'हां, जीजी ! पिताजी के पास चलो । आज मुझे मौसाजी ने मारा था । जीजी, गिलास तोड़ा तो प्रदीप ने और मारा हमें जीजी, यहां से चलो ।'
नीना ने अनुभव किया कि कमल अब रोया, अब रोया। वह विह्वल हो उठी। उसने अपना मुंह उसके मुंह पर रख दिया और दोनों हाथों से उसे अपने वक्ष में समेटकर वह 'शिशु मां' वही लेट गई। बोली वह कुछ नहीं । बस उस स्तब्ध वातावरण में उसे जोर-जोर से थपथपाती रही और वह सुबकता रहा, बोलता रहा, 'जीजी ! आज मौसी ने हमें बासी रोटी दी । सारा हलुआ प्रदीप और रंजन को दे दिया और हमें बस खुरचन दी और जीजी, जब दोपहर को हम मौसाजी के कमरे में गए तो हमें घुड़ककर निकाल दिया । जीजी, वहां हमें क्यों नहीं जाने देते ? जीजी, तुम स्कूल से जल्दी आ जाया करो। जीजी, पिताजी को जेल में क्यों बन्द कर दिया ? वहां पिताजी को रोटी कौन खिलाता है ? हम वहां क्यों नही रहते ? प्रदीप कहता था, तेरे पिताजी चोर हैं।'''''
तब एक बारगी अपने को धोखा देती हुई नीना जोर से बोल उठी, 'प्रदीप झूठा है ।'
और कहकर अपनी ही आवाज़ पर वह भय से थर-थर कांप आई । उसने कमल को जोर से भींच लिया। कमल को लगा जैसे जीजी बड़े ज़ोर से हिल हिलती चली जा रही है। हालन आ गया
रही है, हिलती चली जा रही है,
क्या ? उसने घबराकर कहा, 'जीजी, जीजी, क्या है ? तुम्हें बुखार आ गया है ?"
'चुप चुप। मोसी आ रही है ।'
सचमुच कोई उठकर जल्दी-जल्दी उनके पास थाया और कड़ककर पूछा, 'क्या है, क्या है नीना, कमल क्या है रे ? श्रहो ! भाई से लाड़ लड़ाया जा रहा है ! मैं कहती हूं नीना ! तू यहां क्यों आई ? श्ररी बोलती क्यों नहीं ? ग्रहो, बड़े बेचारे गहरी नींद में सोए हैं। अभी तो बड़ी गुटर-गुटर मेरी शिकायत हो रही थी । जैसे मैं जानती ही नहीं हाय रे मेरी किस्मत |''''' श्रो बहन ! तू खुद तो मर गई पर मुझे इस नरक में छोड़ गई....
तभी मीसा हड़बड़ाकर उठ बैठे, पूछा, 'क्या बात है ? क्या हुआ ?'
'हुम्रा मेरा सर । दोनों भागने की सलाह कर रहे है ।'
'कौन भागने की सलाह कर रहा है ? नीना-कमल ? अरे, कुछ लिया तो नही ? अल्मारी की चाबी तो है ? रात ही तो पांच सौ रुपए लाकर रखे हैं। अरे, तुम बोलती क्यों नही ? क्यों री, नीना ! कहां है रुपया ?"
बोलते-बोलते मौसा उठकर वहां आ गए जहां दोनों बच्चे एक दूसरे में सिमटे, सकपकाए, कबूतर की तरह प्रांखें बन्द किए पड़े थे। मौसी ने तुनककर कहा, 'क्या पता क्या-क्या निकालते, वह तो मेरी प्रांख खुल गई ।'
और फिर झपटकर नीना को उठाते हुए कहा, 'चल अपनी खाट पर ! खबरदार जो पास सोए ! बाप तो आराम से जेल में जा बैठा, मुसीबत डाल गया मुझपर । न लाती तो दुनिया मुंह पर थूकती, बहन के बच्चे थे। शहर की शहर में प्रांखों में लिहाज न आई। लेकिन कहने वाले यह नहीं देखते कि हमारे घर में क्या सोने-चांदी की खान है ? क्या खर्च नहीं होता ? पढ़ाई कितनी मंहगी हो गई है और फिर बच्चों की खुराक बड़ों से ज्यादा ही है।'
रुपए नहीं निकाले इस बात से मौसा को बड़ा सन्तोष हुप्रा । उन्होंने खाट पर बैठते हुए कहा, 'मैं कहता हूं तुम तो ''''''
'अब चुप रहो । भले ही चचेरी बहन हो, हैं तो बहन के बच्चे ।'
'हां, बहन के बच्चे हैं तभी तो बहनोई साहब को रिश्वत लेने की सूझी और रिश्वत भी क्या ली, बीस रुपए की । वह भी लेनी नहीं श्राई। वहीं पकड़े गए। हूं, मैं रात पांच सौ लाया हूं। कोई कह दे, साबित कर दे ।'
'इतनी बुद्धि होती तो क्या अब तक तीसरे दर्जे का क्लर्क बना रहता ?' 'और मज़ा यह कि जब मैंने कहा कि ३००-४०० रुपये का प्रबन्ध कर दे, तुझे छुड़ाने का जिम्मा मेरा, तो सत्यवादी बन गए। मैं रिश्वत नहीं दूंगा । नहीं दूंगा तो ली क्यों थी? अरे लेते हो तो दो भी । मैं तो '''।'
मौसी ने सहसा धीमे पड़ते हुए कहा, 'चुप भी करो, रात का वक्त है । आवाज बहुत दूर तक जाती है...।'
काफी देर बड़बड़ाने के बाद जब वे फिर सो गए तो दोनों बालक तव भी जागते पड़े थे । प्रांखों की नींद आंसू बनकर उनके गालों पर जमती जा रही थी । और उसके धुंधले परदे पर बहुत से चित्र अनायास ही उभरते आ रहे थे । एक चित्र मौसी का था जो उन्हें रोते-रोते घर लाई थी और वह प्रेम दर्शाया था कि वे भी रो-रोकर पागल हो गए थे लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए प्यार घटता गया और दया बढ़ती गई । दया ऊंच-नीच और दम्भ की जननी है। उसने उन्हे आज पशु से भी तिरस्कृत बना दिया....
एक चित्र मौसा का था जो तीसरे चौथे बहुत-से नोट लेकर आते और उन्हें लक्ष्य करके कहते, 'मैं कहता हूं कि उसने रिश्वत ली तो दी क्यों नहीं ? अरे तीन सौ देने पड़ते तो पांच सौ बटोरने का मार्ग भी तो खुलता...'
एक चित्र पिता का था। पिता जो प्यार करता था, पिता जिसने रिश्वत ली थी, पिता जिसे जेल में बन्द हुए दो महीने बीत चुके थे और अभी सात महीने शेष थे.....
नीना ने सहसा दोनों हाथों से अपना मुह भींच लिया। उसकी सुबकी निकलने वाली थी । उसने मन ही मन विह्वल- विकल होकर कहा, 'पिताजी ! अब नही सहा जाता । अब नहीं सहा जाता । मीसा तुम्हारे कमल को पीटते हैं। पिताजी, तुम आ जाओ । अब हम उस स्कूल में नही पढ़ेगे । अब हम बढ़िया कपड़े नहीं पहनेगे । पिताजी, तुमने रिश्वत ली थी तो देते क्यों नहीं क्यों" क्यों"
इस प्रकार सोचते-सोचते उसकी बन्द आंखों के अन्धकार में पिता की मूर्ति और भी विशाल हो उठी एक अधेड व्यक्ति की मूर्ति जिसकी प्रांखों में प्यार था, जिसकी वाणी में मिठास थी, जिसने दोनों बच्चों को नए स्कूल में भर्ती करवा रखा था। जहां उन्हें कोई मारता - झिड़कता नहीं था, जहां नाश्ता मिलता था, जहां वे तस्वीरें काटते थे, खिलौने बनाते थे...
और घर में पिता उनके लिए खाना बनाता था, अच्छी-अच्छी किताबें लाता था, फल लाता था । उनकी मां के मरने पर उसने दूसरी शादी तक नही की थी.....
नीना ने ये सब बातें पड़ोसियों के मुह सुनीं । वे सब उसके पिता की बड़ी तारीफ करते । उसने अपने कानों से पिता को यह कहते सुना था कि रिश्वत लेना पाप है । लेकिन फिर उन्होंने रिश्वत ली क्यों ली आखिर क्यों?
पड़ोसिन कहती, 'उसका खर्च बहुत था, और ग्रामदनी कम । वह बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहता था और तुम जानो अच्छी शिक्षा बहुत मंहगी है..."
मंहगी मंहगी थी तो उसने रिश्वत ली। मंहगी होना क्या होता है और अब पिता कैसे छूटेंगे | मौसा कहते थे, 'जज को रिश्वत देते तो छूट जाते। एक जज ने तीन हजार लेकर एक डाकू को छोड़ दिया था। एक प्रादमी जिसने एक औरत को मार डाला था उसे भी जज ने छोड़ दिया था। पांच हजार लिए थे पांच हजार कितने होते है। सी हजार दस हज़ार लाख ये कितने होते हैं...
मौसा कहते थे, 'रिश्वत और तरह की भी होती है। एक प्रोफेसर ने एक लड़की को एम० ए० में अव्वल कर दिया था क्योंकि वह खूबसूरत थी
नीना ने सहसा दृष्टि उठाकर ग्रासमान में देखा । तारे जगमगा रहे थे और आकाश गंगा का स्रोत धवल - ज्योत्स्ना में लिपटा पड़ा था। उसने सोचा, यह सब कितना सुन्दर है । क्या यहा भी रिश्वत चलती है ?
उसकी सुबकिया व बिल्कुल बन्द हो चुकी थीं और वह बड़ी गम्भीरता से सुनी-सुनाई बातों को याद कर रही थी पर समझ में उसकी कुछ नहीं श्रा रहा था खूबसूरत होना भी क्या रिश्वत है ? मीसा कहते थे कि गंजे हाकिम के पास खूबसूरत लड़की भेज दो और कुछ भी करवा लो खूबसूरत लड़की और रुपया, रुपया और खूबसूरत लड़की इन्हें लेकर जज और हाकिम काम क्यों कर देते हैं ? क्यों क्यों और खूबसूरत लड़की का वे क्या करते हैं ? काम करवाते होंगे पर काम तो सभी करते हैं फिर खूबसूरत लड़की ही क्या ?... और उसके मौसा बहुत से रुपये लाते है पर लड़की कभी नहीं लाते
उसकी समझ में कुछ नहीं आया। लेकिन इसी उधेड़बुन में रात न जाने कहां चली गई, यह जाना न जा सका । एकाएक मौसी की पुकार ने उसकी तन्द्रा को तोड़ दिया। हड़बड़ाकर प्रांखें खोलीं तो मौसी कह रही थी, 'नीना, श्रो नीना ! श्ररी उठेगी नहीं। पांच बजे हैं ।'
पांच ...! अभी तो पहरुया तीन की आवाज़ लगा रहा था और आकाश- गंगा का मार्ग कैसा चमचम कर रहा था । इसी रास्ते तो स्वर्ग जाते हैं ।
मौसी फिर चीखी, 'अरी सुना नहीं नीना । कब से पुकार रही हूं। दोनों भाई-बहन कुम्भकर्ण से बाजी लगाकर सोते हैं । वल जल्दी । चौका-बासन कर । मैं आती हूं."
नीना ने अब अंगड़ाई लेने का नाट्य किया । फिर कुनकुनाती हुई उठी, 'जा रही हूं मौसी ।'
जीने तक जाकर न जाने उसे क्या याद आया, वह कमल के पास गई और बड़े प्यार से कान से मुंह लगाकर उसे पुकारा। फिर उत्तर की प्रतीक्षा न करके उसे कौली में समेटकर नीचे लिए चली गई ।।
और जब दो घंटे बाद मौसी नीचे उतरी तो स्तब्ध रह जाना पड़ा। रसोईघर जैसे दूध में धोया गया हो । लकदक लकदक, मैल की कहीं छाया तक नहीं। बर्तन चांदी से चमचमा रहे थे । बार-बार अविश्वास से प्रांखें मलकर ठगी-सी मौसी बोली, 'आज क्या बात है नीना ?"
'कुछ नहीं मौसी ।' नीना ने सकपकाकर उत्तर दिया । 'कुछ नहीं कैसे ? ऐसा काम क्या तू रोज़ करती है ?" कमल ने एकदम कहा, 'मौसी ! श्राज पिताजी आयेंगे ।' 'पिताजी ।'
...
'हां, जीजी कहती थी.'' ।'
मौसी ने अविश्वास और आशंका से ऐसे देखा कि कमल सहमकर पीछे हट गया। कई क्षरण उस स्तब्ध वातावरण में वे प्रस्तर प्रतिमा बने रहे फिर जैसे जागकर मौसी बोली, 'तो यह बात है ! बाप के स्वागत के लिए रसोईघर सजाया गया है।'
फिर एकबारगी बड़े जोर से हंसी; बोली, 'पर रानीजी, अभी तो पूरे सात महीने बाकी हैं, सात महीने। वाह रे, बाप के लिए दिल में कितना दर्द है । इसका पासंग भी हमारे लिए होता तो..।'
नीना की काया एकाएक पीली पड़ गई। आग्नेय नेत्रों से कमल की ओर देखती हुई वह वहां से चली गई। उस दृष्टि से कमल सहम गया पर उसे अपने अपराध का पता तब लगा जब वह हो चुकाथा। स्कूल जाते समय रास्ते में नीना ने इस अपराध के लिए कमल को खूब डांटा । इतना डांटा कि वह रो पड़ा । रो पड़ा तो उसे छाती से लगाकर खुद भी रोने लगी ।
इसी समय वहां से बहुत दूर एक सुसजित भवन में मुक्त अट्टहास गूज रहा था। छोटे जज श्राज विशेष प्रसन्न थे । उनकी छोटी पुत्री मनमोहिनी को कमीशन ने सांस्कृतिक विभाग में उप डायरेक्टर के पद के लिए चुन लिया था । मित्र बधाई देने आए हुए थे। उसी हर्ष का यह श्रट्टहास था। यद्यपि बाकायदा चाय पार्टी का कोई प्रबन्ध नहीं था तो भी मेज़ पर अच्छी भीड़भाड़ थी । अंग्रेज लोग चाय पीते समय बोलना पसन्द नही करते थे पर भारतवासी क्या अब भी उनके गुलाम हैं ! वे लोग जोर-जोर से बातें कर रहे थे। मनमोहिनी ने चाय बनाते हुए कहा, 'मुझे तो बिल्कुल प्राशा नहीं थी पर सचिव साहब की कृपा को क्या कहूं।'
सचिव साहब बोले, 'मेरी कृपा । आपको कोई 'न' तो कर दे ? श्रापका प्रतिभा ।'
डायरेक्टर कह उठे, 'हां, इनकी प्रतिभा ! सांस्कृतिक विभाग तो है ही नारी की प्रतिभा का क्षेत्र ।'
सचिव साहब के नेत्र जैसे विस्फारित हो आए । प्याले को ठक् से मेज़ पर रखते हुए उन्होंने कहा, 'क्या बात कही है श्रापने । संस्कृति श्रौर नारी दोनों एक ही हैं। नाट्य, नृत्य, संगीत और कविता ।'
'और प्रचार ।'
'अरे, नारी से अधिक प्रचार कर पाया है कोई !'
इसी समय बैरे ने आकर सलाम झुकाई । तार श्राया था । खोलने पर जाना - छोटे जज साहब के बड़े बेटे की नियुक्ति इन्कमटैक्स आफीसर के पद पर हो गई है। उसे मद्रास जाना होगा ।
'क्या, क्या', कहते हुए सब तार पर झपटे। हर्ष और भी मुखर हो उठा । छोटे जज ने अट्टहास करते हुए अपनी पत्नी से कहा, 'देखा निर्मल !
मुझे पूरा विश्वास था शर्मा मेरी बात नहीं टाल सकता। और मेरी बात भी क्या । असल में वह तुम्हारा मुरीद है। कहता था औरत ' बात काटकर सचिव साहब बोले, 'जी नहीं, यह न आप है और न श्रीमती निर्मल । यह तो आपकी कौटुम्बिक प्रतिभा है ।'
इसपर सबने स्वीकृतिसूचक हर्ष - ध्वनि की । छोटे न्यायमूर्ति इसका प्रतिवाद कर पाते कि बैरे ने आकर फिर सलाम किया। विस्मित से डायरेक्टर बोले, 'इस बार किसकी नियुक्ति होने वाली है ?"
बैरे ने कहा, 'दो बच्चे हजूर से मिलने आए हैं ।'
'हमसे ? ' — छोटे न्यायमूर्ति अचकचाकर बोले । 'जी ।'
'किसके बच्चे हैं ? '
'जी मालूम नहीं । भाई-बहन है। गरीब जान पड़ते है ।'
'अरे तो बेवकूफ ! कुछ दे - दिवाकर लौटा दिया होता ।'
'बहुत कोशिश की पर वे कुछ मागते ही नही । बस आपसे मिलना मांगते हैं ।'
छोटे न्यायमूर्ति तेजी से उठे । मुख उनका विकृत हो आया, पर न जाने क्या सोचकर वे फिर बैठ गए। कहा, 'आज खुशी का दिन है । यही ले आ ।'
दो क्षण बाद, बुरी तरह सहमे-सकपकाए, जिन दो बच्चों ने वहां प्रवेश किया वे नीना और कमल थे । प्रांसुओं के दाग अभी गालों पर शेष थे । दृष्टि से भय भरा पड़ता था । एक साथ सबने उनको देखा जैसे मदिरा के प्याले में मक्खी पड़ गई हो । छोटे न्यायमूर्ति ने पूछा, 'कहां से आए हो ?'
'जीजी' नीना ने कहना चाहा पर मुह से शब्द नहीं निकले और बावजूद सबके आश्वासन के वे कई क्षरण हतप्रभ, विमूढ़, अपलक देखते ही रहे, बस देखते ही रहे। आखिर मनमोहिनी उठी। पास आकर बोली, 'कितने प्यारे, कितने सुन्दर बच्चे हैं।'
इन शब्दों में न जाने क्या था । नीना को जैसे करण्ट छू गई। एक बारगी दृढ़ कण्ठ से बोल उठी, 'आपने हमारे पिताजी को जेल भेजा है। प्राप उन्हें छोड़ दें... ।'
कमल ने उसी दृढ़ता से कहा, 'हमारे पास पचास रुपए हैं। आपने तीन हजार लेकर एक डाकू को छोड़ा है... ।'
नीना बोली, 'लेकिन हमारे पिताजी डाकू नही है। महंगाई बढ़ गई थी । उन्होंने बस बीस रुपए की रिश्वत ली थी।'
कमल ने कहा, 'रुपए थोडे हों तो ..
नीना बोली, 'तो मैं एक-दो दिन आपके पास रह सकती हूं।'
कमल ने कहा, 'मेरी जीजी खूबसूरत है और आप खूबसूरत लड़कियों को लेकर काम कर देते है..."
रटे हुए पार्ट की तरह एक के बाद एक जब वे दोनों इस प्रकार बोल रहे थे तो न जाने हमारे कथाकार को क्या हुआ; वह वहा से भाग खड़ा हुआ। उसे ऐसा लगा जैसे धरती सूर्य की चुम्बक शक्ति से अलग हो रही है। लेकिन ऐसा होता तो क्या हम यह 'पुनश्च' लिखने को बाकी रहते । धरती अब भी उसी तरह घूम रही है ।