स्वतन्त्रता प्राप्ति से कुछ पूर्व से लेकर कुछ बाद तक जो नरमेध यज्ञ इस देश हुआ 'उसको मैने बहुत पास से देखा है। उसीकी एक झलक इस कहानी में हैं । अपनी ओर से मैने इसमें बहुत कम कहा है ।
गाड़ी ने सीटी दी तो रमेश ने राहत की सांस खींची। तभी सहसा एक वृद्ध व्यक्ति ने खिड़की के पास आकर कहा, 'मुझे अन्दर आ जाने दीजिए !"
जैसे उन्होंने ततैयों के छत्ते में हाथ डाल दिया। एक साथ अनेक क्रुद्ध श्रांखें उस श्रोर उठीं । सौभाग्य से यह सतयुग नहीं था; नहीं तो विश्वामित्र या दुर्वासा की तरह वे उस वृद्ध को वही भस्म कर देते । हुआ यह कि रमेश के मित्र ने चुपचाप दरवाज़ा खोल दिया । वृद्ध हांफते - हांफते अन्दर घुस आए घुस आए क्योकि अनेक नवयुवकों ने उनको वाहिर फेंक देने की पूरी-पूरी कोशिश की थी । आ गए तो देखा उनकी देह कांपती है, चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ है । और श्रांखों में ऐसा कुछ है कि न देखते बनता है, न दृष्टि हटाने को जी करता है । प्रांखें ऐसे बन्द होती हैं कि हरहराकर फिर खुल जाती हैं। फिर तो हृदय में धड़कन ही नहीं होती; ऐसा लगता है जैसे कोई उसे आरी से चीरने लगा है।
गाड़ी धीरे-धीरे गति पा रही थी और दूसरे लोगों का ध्यान उस वृद्ध की ओर बढ़ चला था । वे भी जो किसी गहरे वाद-विवाद में व्यस्त थे, धीरे-धीरे फुसफुसाते और फिर चुप होकर उन्हें देखने लगते। वे दयनीय और करुण, पाखाने के पास खड़े थे । सामने की बर्थ पर जो एक प्रधेड़ सज्जन बैठे थे, वे एकटक वृद्ध की ओर देख रहे थे । सहसा वे पीछे को खिसके, बोले, 'आप यहां बैठ जाएं !"
वृद्ध चौंके, 'जी !'
'आप यहां बैठ जाइए !'
वृद्ध ने ऐसे देखा जैसे स्वयं पानी-पानी हो चले हों; फिर बैठते-बैठते कहा, 'भगवान् तुम्हें सुखी रखे भइया !'
अधेड़ व्यक्ति ने फिर पूछा, 'आप कहां जा रहे है ?"
'कहां जा रहा हूं ?' जैसे किसी ने वृद्ध के अन्तर्मन पर चोट की थी। एक क्षरण ऊपर देखा, कहा, 'क्या बताऊं भइया! जहां भी भाग्य ले जाएगा, जाऊंगा ।' कहते-कहते झुरियों में एक हल्का-सा कंपन हुआ । श्रोठ हिले, पलकें मुद-सी गई। खुली तो उनमें पानी नहीं था, हल्की चिपचिपाहट थी । उस व्यक्ति के पास एक युवक बैठा था। वह बोल उठा, 'आप दिल्ली रहते हैं ?'
'हां बेटा !'
'कोई दुःख है आपको ?'
तब तक एक और अधेड़ व्यक्ति का ध्यान उधर खिंच गया। वे बोले, 'शायद श्रापका कोई रिश्तेदार खो गया है ? आजकल गुमशुदगी की घटनाएं बहुत हो रही है।'
'जी, शायद वह आपका बेटा है ?' तीसरे प्रादमी ने कहा ।
रमेश ने एक बार उन आदमियों को देखा, फिर उस वृद्ध को । फिर उन श्रादमियों को देखा और फिर उस वृद्ध को कि वृद्ध बोले, 'हां बेटा, तुम ठीक कहते हो । मेरा बेटा ही खो गया है ।'
'मैने कहा था न', प्रधेड़ सज्जन बोले, 'वह तो आपकी सूरत ही कह रही है । बेटे का दर्द अलग होता है ।'
'क्यों जी, दिल्ली में था ?'
'जी हां ।'
'कित्ता बड़ा था जी ?" 'सोलह वर्ष का था ।'
डिब्बे की एकमात्र स्त्री ने अपने बच्चे को गोद में अन्दर को खींचकर धोती का पल्ला उढ़ा दिया। ऊपर की बर्थ पर लेटे हुए महाराष्ट्रीय सज्जन ने अब नीचे झांका। शोर श्राप ही आप बुदबुदाहट में बदल चुका था। एक व्यक्ति पूछा, 'क्यों जी, कैसे चला गया था ?'
'जी स्कूल गया था ।'
'और फिर लौटकर नहीं आया। मेरे एक दोस्त है, उनका लड़का भी स्कूल गया था, आज तक नहीं लोटा ।'
सुनकर वृद्ध कुछ अस्पष्ट स्वर में बुदबुदाए, पर प्रश्नकर्ता ने फिर प्रश्न किया, 'कितने दिन हो गए जी ?"
'यही दो महीने से कुछ ज़्यादा ।'
'दो महीने ? तब तो दिल्ली में बड़ी मार-काट मची हुई थी ।'
वृद्ध ने गहरी सांस खींची, कहा, 'तभी की बात है। स्कूल में इम्तहान हो रहे थे । अचानक कुछ लोगों ने हमला कर दिया ।
'मुसलमानों ने किया होगा ।' महाराष्ट्रीय सज्जन बोल उठे ।
'जी नहीं ।' 'तो ?'
'तो ग्राप समझ लीजिए। उन लोगों ने एक जात के सभी लड़को को मार डाला ।'
'सबको ?'
'जी हां ।'
अवाक् अपलक यात्रियों ने एक दूसरे को देखा। सब के मन भय और वेदना के धुएं से घुट रहे थे । एक व्यक्ति ने पूछा, 'कितने होंगे जी ?'
इसका जवाब दिया रमेश के मित्र ने, 'कितने थे, यह कभी कोई नही जान सकेगा और जानने का महत्व ही कितना है !'
' पर आपका बेटा क्या ?' ट्रंक पर बैठे हुए युवक ने सकुचाते हुए पूछा । वृद्ध के नयन फिर चिपचिपा रहे थे। बोझिल वारणी में कहा, 'कहते है, वह डरकर कही भाग गया।'
'जी हां, हिन्दू, हिन्दू को नहीं मार सकता ।'
'अजी कुछ न पूछो, आजकल तो...!'
'आज की बात नहीं है। आज मुसलमान हैं कहां ?"
'हैं क्यों नहीं ?'
रमेश के मित्र हंस पड़े, 'मुसलमान अब हिन्दुस्तान में नहीं हैं, मेरे दोस्त ! जो मुसलमान-नुमा सूरतें दिखाई देती हैं, वे उनकी लाशें हैं, चलती-फिरती लाशें ।'
और यह कहकर वे और भी ज़ोर से हंसे। वह हंसी डिब्बे वालों को बहुत बुरी लगी, जैसे कोई मरघट में हंस पड़ा हो। महाराष्ट्रीय सज्जन ने कहा, 'आप पाकिस्तान की बात नहीं सोचते ? वहां तो एक भी हिन्दू नहीं बचा है ।' 'नहीं बचा है तो अच्छा है; तड़पना तो नहीं पड़ेगा ।'
नीचे बैठे हुए अधेड़ व्यक्ति ने उधर ध्यान न देकर फिर पूछा, 'क्यों जी, कुछ अता पता लगा ?'
'जी हां, सुना है वह कराची चला गया है। वहां से जो लोग बम्बई श्राए हैं, उनसे पता लगा है कि वह भी शायद बम्बई आ गया है, वहीं जा रहा हूं।' रमेश के पीछे जो व्यक्ति बैठे थे, उन्होंने धीरे से कहा, 'बात समझ में नहीं आती, स्कूल से भागकर लड़का घर क्यों नहीं श्राया ? कराची क्यों गया श्रीर कैसे गया ?'
रमेश सबकी बातें सुन रहा था, परन्तु बोलता नहीं था, क्योंकि उसकी दृष्टि बार-बार वृद्ध सज्जन पर जा अटकती थी । वह सोचने लगता था - उस दिन सबेरे जब इनका बेटा स्कूल में परीक्षा देने गया होगा, तो क्या इन्होंने सोचा होगा कि वह अब नहीं लौटेगा ? उसकी मां ने प्यार से उसे दही और लड्डू खिलाया होगा । कहा होगा, 'बेटा, परचे अच्छे करना और देख, सीधा घर श्राना ! आजकल बुरे दिन हैं।' और फिर बेटा खिलता हुआ स्कूल गया होगा और फिर सन्ध्या को जब वह बेटे की राह देख रही होगी, तब उसने वह दर्दनाक खबर सुनी होगी । तब-तब ...
रमेश कांपा । उसने गर्दन को झटका दिया। उसके नयन भर आए। उसने वृद्ध को देखा - वे उसी तरह कह रहे थे, 'उसे घूमने का बहुत शौक था। उमर भी चंचल थी । उसे वे लोग भगाकर ले गए ।'
'आपने अखबारों में निकलवाया है ?'
'जी हां। अखबारों में निकलवाया है। रेडियो पर भी ऐलान हुआ है, पर श्राप जानते हैं, वहां हमारे अखबार नहीं जाते, न कोई रेडियो सुनता है ।' 'जी हां। सब कुछ गड़बड़ ही गड़बड़ है ।'
रमेश का मस्तिष्क घूम-फिरकर फिर वहीं श्रा गया। खबर लाने वाले ने कहा होगा, स्कूल में कत्ले - ग्राम मच गया । सब बच्चे मार डाले गए। तब हतभागिनी-सी उसकी मां के हृदय से एक तेज चीख निकली होगी और अपने बच्चे को देखने के लिए पागल सी श्रातुर वह बाहर भागी होगी। किसीने कहा होगा, ठहरो बीबी ! वहां खतरा है। अभी इन्तज़ार करो । धौर उसने इन्तज़ार किया होगा । शायद अब तक कर रही है। अभी भी वह अपने दरवाजे से बाहर झांककर, उस चिरपरिचित मार्ग को देखती होगी जिसपर उसका बेटा आता- जाता होगा ।
रमेश के लिए सोचना असंभव सा हो गया। वह दिल्ली में रहता था । उसने उस घटना की चर्चा सुनी थी, पर उससे अधिक नहीं जितनी वह श्राज सुन रहा था। तभी सहसा उसके मित्र ने कहा, 'सामान उठा लो रमेश ! हम यहीं उतरेंगे।'
गाड़ी धीमी पड़ने लगी और शोर बढ़ चला। रमेश ने ऊपर से होल्डाल उतार लिया । फिर उन वृद्ध को देखा उस धकापेल में वह उसी तरह शून्य में ताकते हुए बैठे थे । वह नीचे उतर गया। उतर गया तो जैसे होश आया, परंतु वृद्ध की झुर्रियां और चिपचिपाहट से पूर्ण दृष्टि वह नही भुला सका । वे उमड़- घुमड़कर विचारों का तूफान पैदा करती ही रही। कई दिन बाद जब लौटकर दिल्ली आना हुआ, तब भी कभी-कभी बिजली की तरह वह मूर्ति उसके नेत्रों में की जाती थी । इन्हीं दिनों अचानक एक पुराने मित्र मिल गए। कई बार उनका निमन्त्रण श्रा चुका था । वास्तव में उनकी पत्नी का बड़ा आग्रह था । रमेश उन्हें भाभी कहता था। वे कार में बिठाकर उसे घर पर ले गईं। चाय का वक्त था, बिना पुकारे नौकर मेज़ पर सामान जुटा गया और भाभी चाय तैयार करने लगीं। मित्र किसी जमाने में कालेज के प्रोफेसर थे । कांग्रेस- श्रांदोलन में बहुत दिन जेल काटी । अब शरणार्थी विभाग में कोई बड़ा-सा पद उन्हें मिला था, इसलिए यह स्वाभाविक था कि चर्चा 'सब रास्ते रोम को जाते हैं' वाली कहावत के अनुसार हर कही होकर शरणार्थियों की समस्या पर श्रा कती थी। बातों-बातों में रमेश उन वृद्ध की चर्चा कर बैठा । अचरज से मित्र ने मुस्कराकर कहा, 'मैं उन्हें जानता हूं ।'
रमेश ने पूछा, 'क्या वे आपके पास आए थे ? '
'कई बार आए हैं । उनको पूरा यकीन है कि उनका लड़का कहीं न कहीं जिन्दा है ।'
' पर क्या यह सच हो सकता है ?"
'असंभव । वह उसी दिन मारा गया होगा ।' 'पर वह तो हिन्दू था ।'
मित्र मुस्कराये, मौत जाति नही पूछती । और वह तो सामूहिक वध था; बहुत मुमकिन है, हत्यारे उसे न पहचान सके हों।'
'शायद ।'
'और नही तो वह कहां जाता ?"
'पर उसकी लाश !'
बात काटकर मित्र ने कहा, 'ऐसे मौकों पर जो कुछ होता है वह क्या बताना होगा ? कौन कह सकता है, कितनी लाशें उन्होंने जला या दबा नहीं दी होंगी ? तब तो गिनती कम करने का प्रश्न होता है ।'
भाभी ने प्याला ठक से मेज पर रख दिया और करुणा से उद्वेलित होकर अंग्रेजी में कहा, 'आदमी कितना बर्बर हो गया है !'
मित्र हंसे, बोले, 'आदमी वास्तव में बर्बर ही है। कौन कह सकता है मैं कब तुम्हारा गला नहीं घोंट दूंगा। कम से कम मुझे तो इसमें कुछ असंभव नहीं लगता । और फिर इधर जो कुछ हम देख चुके हैं, वह तो संभावना को प्रमाणित करने वाला है । हां, कुछ लोग मानते हैं कि एक दिन मनुष्य शारीरिक बल की तरह बौद्धिक बल का परित्याग करके सम्मिलित जीवन को प्राप्त करेगा । पर जब तक बुद्धि है, बर्बरता से छूटने का कोई उपाय नहीं है ।'
रमेश ने चाय की घूट भरी और फिर कहा, 'भविष्य में क्या होगा, इसपर विचार करने से इतना लाभ नही है जितना वर्त्तमान पर मैं कहता हूं, वे क्यों नहीं मान लेते कि उनका लड़का अब दुनिया में नहीं रहा। इस दुख को स्वीकार किए बिना क्या उन्हें शान्ति मिलेगी ?'
'दुख तो यही है', मित्र बोले, 'उन्होंने इस दुख को स्वीकार नहीं किया है । विधि के इस दान का तिरस्कार ही उन्हें साल रहा है।'
भाभी ने पूछा, 'तुम इसे विधि का दान कहते हो ?"
'कोई चिन्ता नहीं, वे बोले, 'तुम इसे व्यक्ति का दान कह सकती हो।' रमेश ने सिगरेट जलाई और दियासलाई को बुझाते हुए कहा, 'तो तुम उन्हें समझाते क्यों नहीं ?'
'समझाना चाहता हूँ', मित्र ने धुएं के उठते हुए बादलों के उस पार ध्यान से देखा, 'पर उनकी श्रांखें देखकर कलेजा मुंह को आने लगता है । कुछ कहने को मन नहीं करता । बुद्धि बहुतेरा जोर लगाती है, पर उनकी दृष्टि - रमेश, मैं तुमसे क्या कहूं - सब विचारों को पाश-पाश कर देती है । तब मैं सोचता हूं, आज यदि मुझमें नारद की शक्ति होती तो अपने तपोबल से, राजा के बेटे की तरह, उनके बेटे की आत्मा को बुलाकर दिखाता कि जिसे वे अपना बेटा समझे थे, वह उनका दुश्मन था । तभी तो बुढ़ापे में तड़पाकर चला गया !'
रमेश ने उनका प्रतिवाद करना चाहा, पर तभी देखा कोई अन्दर चला आ रहा है, लेकिन यह देखकर कि साहब अकेले नहीं है वह ठिठक गया । न जाने क्या हुआ, दूसरे ही क्षरण रमेश चौककर उठा, 'अरे, ये तो वही वृद्ध है !"
मित्र मुड़े, 'कौन ?' और फिर खड़े होकर कहा, 'आइये, चले आइए। ये मेरे मित्र हैं ।'
आज उनके वेश में इतना ही परिवर्तन था कि हजामत बढ़ गई थी और उसने उनके मुख की भयंकरता को और भी गहरा कर दिया था। वे बैठ गए तो मित्र ने कहा, 'चाय पिएंगे ?'
एक फीकी-सी मुस्कराहट झुरियों में उठी और वहीं खो भी गई, बोले, 'चाय पिऊंगा, पर पहले मेरी बात सुन लो । मुझे निश्चित रूप से पता लगा है कि किशोर मुलतान कैम्प में है ।'
'जी, मुलतान ?" मित्र विस्थित चकित बोल उठे ।
'जी हां, मुलतान कैम्प में । बंबई में एक सज्जन मिल गए थे। वे सिंध से आए थे। मैंने उन्हें हुलिया बताया । ठीक उसी तरह का एक लड़का उन्होंने मुलतान कैम्प में देखा था। वही रंग, वही ग्रांखें, वही कपड़े। नीला नीकर, सफेद कमीज, नीली धारी की जुराबें और काला जूता । माथे पर दाहिनी ओर चोट का निशान भी उन्होंने बताया । अंग्रेजी बोलना पसंद करता है और शरारती है ।'
रमेश ने देखा, कहते-कहते वृद्ध की ग्रांखें ऐसी चमकीं जैसे घोर अन्धकार में रह-रहकर जुगनू चमक उठता है । मित्र ने साहस करके पूछा, 'पर वह मुल्तान कैसे जा सकता है ?"
उन्होंने दृढ़ता से कहा, 'वह मुझसे अक्सर मुलतान जाने की बात कहा करता था । सच तो यह है, उसे पंजाब बड़ा प्यारा था। जान पड़ता है, वह हत्यारे से जान बचाने के लिए स्कूल से भाग गया था। स्टेशन पास था। कोई गाड़ी जाती होगी, उसीमें बैठकर चला गया।'
'हो सकता है ।'
'जी हां, यही हुआ है।' 'तो फिर ?"
'तो आप कृपा करके मुलतान कैम्प के इन्चार्ज को लिख दें । जरा अच्छी तरह लिख दें। आपकी दया से उसका पता लग गया तो ......
यासू न जाने कहां रुके थे । झुरियो में अटक अटककर बहने लगे । रुंधे गले मे उन्होंने अपनी बात जारी रखी, 'प्रापने मुझपर बहुत मेहरबानियां की है। मैं उन्हे नही भूल सकता। एक बार और कोशिश कर देखिए। उसकी मा को पूरा यकीन है कि वह मुल्तान कैम्प में है ।'
और फिर सदा की तरह जेब से 'उसकी मा ने यह चिट्ठी लिखी है। वह उसे समझा दे कि बेटा, तुम्हारी मां
एक चिट्ठी निकालकर उन्होंने कहा, आप भी कैम्प इन्चार्ज को लिख दें कि तुम्हारी याद मे तड़प रही है। तुम
इसी वक्त चले आओ; नही तो हम दोनो मर जाएंगे।'
एक बार फिर कुर्ते की जेब में हाथ डाला। कई नोट निकाले और बोले, 'किशोर की मा ने कहा है, पैसो की चिन्ता न करे। जो कुछ है उसीका है ।'
मित्र की अवस्था बडी विषम थी। वे एकटक अपने नीचे धरती को देख रहे थे । वह न हिलती थी, न डुलती थी। नोटों की बात सुनकर उन्होंने दृष्टि उठाई, कहा, 'इन्हे आप रखिए। पता लगने पर यदि जरूरत हुई तो मैं फिर मंगवा लूंगा । और देखिए, प्राप अपना ख्याल कीजिए क्या हालत हो गई है ! आपको अब समझ लेना चाहिए'''''
बात काटकर उन्होंने कहा, 'मैं सब समझता हूं । न समझता तो क्या अब तक जीता रहता । पर किशोर की मां की बात अलबत्ता है । खाट से लग गई है । हर वक्त दरवाज़े पर आंखें गड़ाए बैठी रहती है । कोई वक्त-बेवक्त दर- वाजा खटखटाता है, तो चिल्लाकर कहती है—देखो तो कौन है ? शायद किशोर है !'
फिर जैसे वे कही खो गए; जैसे कण्ठ भावों के उन्मेष में जकड़ा गया । कई क्षण शून्य में ताका किए और सन्नाटा गहर - गहरकर सबके दिलों को कचोटता रहा। उन्होंने ही कहा, 'आप मेरी चिन्ता न करें। आप बहुत अच्छे हैं, बहुत अच्छे ! बस आप उन्हें लिख दें । बहुत-बहुत विनती करके लिख दे कि अपना काम हे । समझें वे अपना ही बेटा ढूढ़ रहे हैं ।'
और अपनी डबडबाई श्रांखों को कोहनी से पोछकर वे उठे, 'तो मै जाऊं । आप लिखेगे ?"
'ज़रूर लिखूंगा और हो सका तो मै आपके जाने का प्रबन्ध भी कर दूंगा ।' वे मुड़े । श्वास फूलने लगी, जैसे कोई सम्पदा मिली हो, कहा, 'सच ?' 'देखिए, कोशिश करूंगा । चाय पीजिए ।'
रमेश एकटक उनके मुख को देख रहा था । उन झुर्रियों में शिशु की सरलता उमड़ रही थी और वे दयनीय तथा डरावनी श्राखे एक मधुर प्रकाश से भर उठी थी, जैसे वे किसी मुहावने स्पर्श का अनुभव कर रहे थे। उन्होंने कहा, 'पियूंगा, एक दिन आप सब लोगों के साथ अपने घर बैठकर पियूंगा । तब तक किशोर भी था जाएगा। वह दिन अब दूर नहीं है। में जानता हूं, वह मुलतान कैम्प मे है, क्योंकि जब घर से आपके पास आने को चला था, तो मैंने रास्ते मे एक मुर्दा देखा था ।'
अन्तिम बात उन्होंने बड़े धीरे से कही और कहकर शिशु की तरह हंस पड़े । रमेश से देखा नही गया। उसने मुह फेर लिया और वे जिस तरह आए थे उसी तरह चले गए। चाय ठण्डी हो गई थी और साथ ही उन दोनों के दिल भी । भाभी भी अन्दर चली गई थीं। कुछ देर उन्हींसे बाते करके रमेश लौट आया । मन उसका और भी प्रशान्त हो गया। उसने सोचा- यह कैसा अप्राकृतिक जीवन है ! इस छलना का अन्त होना ही चाहिए, होना ही चाहिए ।
बुद्धि जब सोचती है तो उसके पास रास्तों की कमी नही रहती । रमेश को आखिर एक राह दिखाई दी । एक दिन बड़े तड़के उठकर उसने वृद्ध के घर जाने का निश्चय कर डाला । जो कुछ हुआ, वह बुरा था पर उस बुरेपन को सम्पदा की तरह सहेजकर रखना तो निरा पागलपन ही नहीं, देश के साथ विश्वासघात भी है । उन्हें साफ़-साफ़ कहना होगा- तुम्हारा बेटा मर चुका है और केवल तुम्हारा बेटा ही नही मरा है, श्रसंख्य मां-बापों ने अपनी गोदी के लाल गंवाकर आजादी पाई है। मां के बन्धन काटने के लिए सतान को प्रारण होमने ही पड़ते हैं। मौत आज़ादी का पारितोषिक है। इसके लिए तुम्हें गर्वित होना चाहिए।
बहुत ढूंढने पर उमे घर मिला। एक पंचायती मकान में उनका कमरा था । कुछ कम्पन-सा हुआ। वैसे सर्दी के दिन थे। ऊपर तक कपड़े लाद लेने पर भी वायु त्वचा का संसर्ग प्राप्त कर लेती थी; इसलिए मफलर को ज़रा ठीक करके दरवाज़े पर दस्तक दी, तो पता लगा वे खुले पड़े है; गिरते-गिरते बचा। तनिक-मा खोलकर झांकना चाहा कि तभी सुना कोई बोल रहा है। ठिठककर मुनने लगा । स्वर नारी का था। लगा, थका होकर भी उसमें प्रार्थना का आवेग है । सुना, 'अच्छा अब उठो भी क्या दफ्तर नहीं जायोगे ?'
जवाव मिला, 'नहीं ।'
'क्यों ?"
'क्योंकि यह सब झूठ है !' 'सुनो तो।'
'कुछ नही, किशोर की मां ! अब तब तक हम इस भुलावे में पड़े रहेंगे । कब तक झूठ-मूठ मन को बहलाते रहेगे । किशोर अब नहीं लौटेगा। यह वहां पहुंच चुका है जहां से कोई नहीं लौटता और जहां "
आगे के शब्द कण्ठावरोध में खो गए। रुदन से फूटी हुई उसांस ही रमेश सुन सका, परन्तु नारी का स्वर और भी दृढ़ था। उसने कहा, 'तुम तो यूं ही दुखी होते हो जी ! भगवान की माया कौन जानता है ! हमारे गांव के गोविंद पंडित का बेटा सात साल में लौटा था। और सुनो तो मैंने आज सबेरे एक सपना देखा है कि किशोर तुम्हारे पीछे-पीछे दरवाज़ा खोलकर अन्दर माया है । उसने नीली नीकर, सफेद कमीज, नीली धारी की जुराबें और काला जूता पहना है । कह रहा है, मां, मैंने आज का परचा बहुत अच्छा किया है, बहुत अच्छा ! - और तुम जानते हो सबेरे का सपना हमेशा सच्चा होता है । लो उठो, मैंने चाय बना ली है। पीकर बड़े बाबू के पास हो श्राश्रो । देर हो गई तो वे दफ्तर चले जाएंगे। उठो । उठो भी ! '
उसके बाद क्या हुआ, यह जाने बिना रमेश वहां से सीधा अपने घर लौट श्राया। उसे लगा, उस वृद्ध दम्पति का स्वप्न भंग करने के लिए उसे जिस हिम्मत की ज़रूरत थी, उसे प्राप्त करने के लिए अभी उसे बहुत परिश्रम करना होगा ।