इस कहानी का आधार भी एक विचार है और इस विचार के कई रूप हो सकते है । मैं इन सब रूपों को लेकर लिखना चाहता था लेकिन अभी तक लिख नहीं पाया। यह प्रेम की उत्कटता का एक रूप है। इस कहानी का रेडियो रूपान्तर भारत की अनेक भाषाओं में प्रसारित हुआ है। यह इसकी लोकप्रियता का प्रमाण है।
सबेरा होने पर हमारे सैकिण्ड क्लास के डिब्बे में काफी यात्री श्रा गए थे। जब गाड़ी स्टेशन से चली, तो वे सब मौन थे, परन्तु मार्ग में न जाने किस-किस सूत्र से होकर उन सबमें वार्तालाप प्रारम्भ हो गया। विहटा स्टेशन गुज़र जाने पर सहसा एक प्रौढ़ सज्जन, जिनकी सघन श्वेत भौंहें चमकीले नयनों पर छज्जे की तरह छा रही थीं, बोले, 'यहां पर एक बार बहुत भयंकर दुर्घटना हो गई थी । रेल-यात्रा के इतिहास में कई कारणों से वह अभूतपूर्व रहेगी । उसमें सो से भी ऊपर यात्रियों की जान गई थी और उससे भी कुछ अधिक यात्री घायल 'थे ।'
इसपर नदी की तरह चर्चा ने अपना मार्ग बिल्कुल बदल लिया । यद्यपि हममें से कोई भी यात्री उस दुर्घटना का साक्षी नहीं था, तो भी कुछ लोगों ने दूसरी दुर्घटनाओं को देखा था और उनका वर्णन करते-करते वे ऐसे सहम रहे थे जैसे वे दुर्घटनाएं अभी घट रही हों। एक स्वस्थ और लम्बे-तगड़े युवक ने जब दो प्रापबीती रोमांचकारो घटनाएं सुनाई, तो हम सब ठगे से उसे देखते रह गए । वह इंजीनियर था। एक बार वह चलती ट्रेन के नीचे श्रा गया था यद्यपि उसका शरीर जख्मों से भर गया था, तो भी उसके प्रारण बच गए। कैसे बच गए, यह वह स्वयं भी नहीं जानता। जब वह गिरा तो उसने पाया कि गाड़ी स्टेशन में प्रवेश कर रही है।
उसकी गति निरन्तर धीमी हो चली है और उसने डिब्बे में चढ़ने वाली पैड़ी को कसकर पकड़ लिया है। इतना ही उसे स्मरण है। लेकिन दूसरी घटना बहुत भयंकर थी। पौड़ी गढ़वाल से कोटद्वार लौटते समय उसकी बस ढाई सौ फुट नीचे खड्ड में जा पड़ी। दस व्यक्ति वहीं मर गए और पांच अस्पताल में पहुंचकर चल बसे, पर वह कुछ जख्मों के साथ बच गया था। कैसे बच गया, यह पूछने पर वह इतना ही कह सका, 'बस बच गया। अब आपके सामने बैठा हूं।'
युवक की यह कहानी सुनकर हम सबको रोमांच हो श्राया और हमने उसे बहुत-बहुत बधाई दी। पर उसने शरारत से मुस्कराकर कहा, 'दोस्तो ! मैंने मौत को ही नहीं छकाया, बीमा कम्पनी से हर्जाने के रुपए भी वसूल किए ।'
इसपर एक कहकहा लगा और जब वह शान्त हुआ तो दुर्घटना की चर्चा शुरू करने वाले प्रौढ़ सज्जन, जो एक सेवा निवृत्त जज थे, बोले, 'प्रपने इंजीनियर मित्र की तरह मौत को छकाने का अवसर तो मुझे नहीं मिला पर हां, इस दुर्घटना से सम्बन्धित एक विचित्र मामले का न्याय मैंने अवश्य किया है ।' एक मित्र बोल उठे, 'आपका मतलब बिहटा रेल दुर्घटना से है ?"
'जी हां।'
'शायद इसमें कुछ षड्यन्त्रकारियों का हाथ था । राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए सैकड़ों निर्दोष व्यक्तियों की जान ले लेना आजकल एक फैशन हो गया है ।'
जज महोदय ने निहायत गम्भीरता से गर्दन हिलाकर कहा, 'मित्रो! उस मामले का सम्बन्ध न तो किसी प्रकार की राजनीति से है और न दुर्घटना के कारणों से ।'
'तो ?'
'उसका सम्बन्ध मानव चरित्र से है ।'
इसपर इंजीनियर ने अनुमान लगाया, 'ऐसे अवसरों पर कुछ शरारती लोग अपना उल्लू सीधा करने से नहीं चूकते। जब भले यात्री भयातुर हो इधर-उधर भागते हैं, तो वे दुस्साहसी सहायता करने की बात कहकर उन्हें लूट ले जाते हैं ।'
'प्राप ठीक कहते हैं', तीसरे भाई ने उनका अनुमोदन किया, 'वे लोग घायलों और मुर्दों तक की जेब कतरने से नहीं चूकते ।'
इसके बाद चौथे, पांचवें, छठे और सातवें अर्थात् डिब्बे के हर यात्री ने अपनी उर्वर कल्पना-शक्ति का प्रयोग किया, लेकिन जज साहब ने सिर हिला- हिलाकर उन सबको गलत साबित कर दिया । श्राखिर जब सबके अनुमानों का खजाना खाली हो गया तो जज साहब ने कहना शुरू किया, 'उस दुर्भाग्यपूर्ण रात्रि में जो यात्री सफर कर रहे थे उनमें एक महिला भी थीं। अपूर्व सुन्दरी उस महिला के विवाह को यद्यपि पांच वर्ष बीत चुके थे, तो भी वे नवविवाहित दुलहन की तरह लगती थीं, उसी तरह मोहिनी और लजीली । उनके लम्बे- पतले नील नयन, पतले नासापुट, कोमल मुख, किंचित नीले-भूरे सघन केश देखकर भूख मिटती । वे प्राचीन काल की उन सुन्दरियों में से थीं जिनके देखने मात्र से तिलक पुष्प कुसुमित हो श्राता और जब वे मृदु-मन्द गति से मुस्कराती तो चम्पा के फूल विहंस उठते ।
'इन पांच वर्षो ने उनके व्यवहार में जो कुछ अन्तर डाला था वह यही था कि अब वे कुछ नटखट भी हो चली थीं। लेकिन इसके कारण वे अपने पति को और भी प्रिय हो गईं। उनके पति उस ट्रेन में उनके साथ थे । वे इन्टर क्लास में थे और सहयात्रियों ने उनके लिए पूरी बर्थ छोड़ दिया था। क्योंकि उनमें से बहुतों को यह गलतफहमी हो गई थी कि वे अभी-अभी विवाह करके लौट रहे हैं । बहरहाल उनकी ज़िन्दगी एक रंगीन पैमाने की तरह थी, जो केवल उन्हींको नहीं महका रही थी बल्कि आसपास वालों को भी खुशबू से तर कर रही थी । वे प्यार के उन क्षणों को जी रहे थे, जिनकी याद बहुतों के जीवन का सम्बल होती है और गाड़ी उड़ी जा रही थी खड़खड़ाती, चिल्लाती, धुषां उगलती और अन्धकार की छाती में प्रकाश का छुरा भोंकती ।'
छुरे की उपमा देने पर यात्री कुछ चौंके, पर कथा - सूत्र की उत्सुकता ने उन्हें मौन ही रखा और जज साहब एक क्षण बाहर झांक फिर बोलने लगे । उन्होंने
ब अपनी कोहनी खिड़की की पुश्त पर टिका ली, उनके मोटे ओठ कुछ इस तरह ऐंठने लगे जिस तरह हमला करने से पूर्व मेढक खाने वाला सांप ऐंठता है, उसके दांत तो होते हैं पर उनमें जहर नहीं होता । उन्होंने कहा, 'रात हो गई थी और रेलगाड़ी पूरी गति से दौड़ रही थी । प्रायः सभी यात्री ऊंघने लगे, पर वह दम्पति अब भी प्रेमालाप में व्यस्त था । पत्नी ने कई बार कहा - 'अब सो जाइए ।
'पति ने मुस्कराकर जवाब दिया, 'न जाने क्यों प्राज नींद भी तुमसे बातें करने को उत्सुक है ।'
''तो मैं सोती हूं। सपनों में उससे बातें करूंगी', पत्नी खिलखिला पड़ी । 'पति बोला, 'अब जो है वह क्या सपने से कुछ भिन्न है? तुम स्वयं एक सपना हो ।'
'पत्नी हंस पड़ती, 'स्वप्न एक भावना है, पर मैं सत्य हूं। तुम्हारे सामने बैठी हूं, तुम मुझे छू सकते हो ।'
'और इस तरह बातें चलती रहीं-प्रेमियों की निरर्थक बातें, यादि और अन्त से हीन पर जीवन को शक्ति और सुगन्ध से भरने वाली । लेकिन कुछ भी हो, समय की शक्ति की किसने थाह ली है । आखिर उनकी पलकें भारी हो श्राईं, परन्तु वे अलसाई - झुकी पलकें उन दो प्रेमियों के हृदयों को और भी माद- कता से भरने लगीं। वे मर्मर ध्वनि में फुसफुसाने लगे. तभी अचानक एक झटका लगा, वे बुरी तरह हिल प्राए। गाड़ी जैसे लड़खड़ाई, शड़ाक्छू-शड़ाक्छू का अनवरत उठने वाला शब्द कहीं टकराकर भयंकर वेग से चीखा, जैसे उस क्षरण समय और गति में संघर्ष छिड़ गया। भीषण गड़गड़ाहट के साथ सब कुछ उथल-पुथल होने लगा। यात्री नींद में चीखे और जागने से पूर्व गिर पड़े। देखते-देखते समूचा वातावरण रौरव आर्तनाद और मर्मभेदी कराह से भर उठा । अन्धकार ने उसकी भीषणता को और भी बढ़ा दिया। उस दम्पति ने गिरते-गिरते अन्तिम बार एक दूसरे को पुकारा और फिर उस प्रलयंकारी गड़- गड़ाहट में खो गए ।'
हम यात्रियों को लगा कि जैसे वह दुर्घटना अभी घट रही है। हमारे हृदय कराह उठे - धक् धक्, लेकिन सौभाग्य से तब दिन का उजाला था। इंजीनियर उठे—धक्-धक्, ने साहस करके पूछा, 'तो गाड़ी पटरी से उतर गई और वे दोनों मारे गए ?' 'मैंने अभी कहा था कि उस दुर्घटना में सौ से भी ऊपर व्यक्तियों की जान गई थी, पर वे दोनों उनमें नहीं थे।'
'क्या ?' इंजीनियर ने चकित होकर पूछा, 'क्या वे बच गए ?"
'जी हां, वे बच गए। पति महोदय के शरीर पर अनेक घाव आए, पर सभी आश्चर्यजनक रूप से साधारण, दूसरी ओर उनकी रूपसि पत्नी के घाव एक से एक बढ़कर प्रसाधारण । क्या वर्णन करूं उनके दाहिने पैर की हड्डी टूट गई । मुख पर दाहिनी प्रोर, सिर से लेकर ठोड़ी तक मानो एक बड़ी दरार- सी पड़ गई हो। इस दुर्घटना के दो दिन बाद जब पति महोदय को उठने- बैठने की प्रज्ञा मिली, तो सबसे पहले उसने कहा, 'पत्नी को देखना चाहूंगा ।'
उसे मालूम हो चुका था कि वह जीवित है और जिले के बड़े अस्पताल में ले जाई गई है । लेकिन डाक्टर ने उसे बताया, 'मित्र, तुम्हें जल्दी नहीं करनी चाहिए। उनकी हालत अभी ठीक नहीं है ।'
'पति महोदय ने पूछा, 'वह होश में तो है ?'
'जी हां। अब उन्हें होश श्रा गया है ।—प्रन्तिम वाक्य उसने बहुत धीरे से कहा ।
''तो मुझे वहां ले चलिए मैं उसे देखना चाहता हूं। वह मेरी पत्नी है ।' ''जानता हूं मित्र ।' – डाक्टर ने यथाशक्ति अपने को संयत रखा और कहा, 'यह भी जानता हूं कि वे अच्छी हो जाएंगी। पर
''पर क्या ?' उसने चीखकर पूछा, 'क्या उसके अधिक चोट लगी है ?"
'यही समझ लीजिए पर वे ठीक हो जाएंगी। अवश्य ठीक हो जाएंगी ।'
' यह सुनते ही उसका बांध टूट गया और वह सिसकियां भरने लगा । डाक्टर ने उसे हर तरह से सान्त्वना दी पर उसे शान्ति नहीं मिली । डाक्टर ने अन्त में कहा, 'अभी कई दिन तक उसके चेहरे की पट्टी नहीं खुल सकती । श्राप देखकर क्या करेंगे ।'
'वह प्रांसुत्रों में बड़बड़ाया, 'डाक्टर, मैं उसका चेहरा नहीं, उसे देखना चाहता हूं । उसे...'
और वह फिर सिसकियां भरने लगा और बार-बार अपनी पत्नी का नाम लेने लगा। डाक्टर अाखिर मनुष्य था । उसने कोशिश करके उसका तबादला उसी अस्पताल में करवा दिया, जहां उसकी पत्नी थी। शर्त यह थी कि वह पत्नी को देख सकेगा परन्तु बोलेगा नहीं । क्योंकि उसकी पत्नी को बताया गया था कि उसका पति अभी उठने लायक नहीं है ।
'आप कल्पना कर सकते हैं कि जब उसने अपनी घायल पत्नी को देखा होगा, तो उसकी क्या दशा हुई होगी । उसका हृदय भयंकर तूफान की गति से दौड़ रहा था । वह रह-रहकर वात-पीड़ित रोगी की तरह कांप उठता । उसने देखा; उसकी प्रांखों के आगे धुम्रां सा उठा । पत्नी का एक पैर काट दिया गया है। पूरे सिर और मुंह पर पट्टियां बंधी हैं। वह देख नहीं सकती। वह धीरे- धीरे उसके पास पहुंचा, बहुत धीरे-धीरे दरवाज़े से उसके पलंग तक के कुछ गजों के फासले को पूरा करने में उसे एक पूरा युग लग गया। एक युग लम्बे जितने क्षरण तक वह खड़ा रहा फिर फिर पुकारना चाहा, 'विमल'..'
'विमल उसकी पत्नी का नाम था लेकिन वह पुकार नहीं सका। उसे एका- एक चक्कर श्रा गया और वह वहीं गिर पड़ा। शीघ्रता से उन लोगों ने उसे वहां से हटा दिया। उसकी पत्नी कुछ नहीं जानती थी, कुछ जान भी न सकी । होश में आने के बाद से वह रह-रहकर फुसफुसा उठती, 'उन्हें उन्हें बुला दो ''''उन्हें बुला दो, वे कहां हैं ? वे कहां है ?' पर उसका स्वर बड़ा क्षीण था और संघर्ष प्रायः गतिहीन । अगले दिन उसके पति ने, जो एक ही रात में बूढ़ा हो गया था, बड़े डाक्टर से पूछा, 'क्या मेरी पत्नी ठीक हो जाएगी ? मुझे साफ- साफ बता दीजिए।'
'डाक्टर ने श्राकंठ सहानुभूति भरकर कहा, 'मिस्टर ! आपकी पत्नी के प्राण तो बच जाएंगे पर मुझे दुख है, उसका एक पैर, एक प्रांख दोनों जाते रहेंगे, मुंह भी कुछ टेढ़ा हो जाएगा ।'
''मुंह भी कुछ टेढ़ा हो जाएगा।' वह फुसफुसाया ।
''मुझे बहुत अफसोस है मिस्टर ! बहुत अफसोस है । चार दिन पूर्व आपकी पत्नी अपूर्व सुन्दरी रही होगी पर अब । श्रब आपको सब करना चाहिए ।'
'और डाक्टर चला गया । वह कई क्षरण अांखें फाड़े उसे जाते देखता रहा । बड़बड़ाता रहा- अपूर्व सुन्दरी, सब्र टेढ़ा मुख, एक पैर, एक प्रांख, अपूर्व सुन्दरी ! ---घंटों तक उसकी यही दशा रही। वह बार-बार मदोन्मत्त की तरह हंसा, बड़बड़ाया – पूर्व सुन्दरी, एक पैर, एक प्रांख, टेढ़ा मुख, अपूर्व सुन्दरी ! ..... फिर सिसकियां भरने लगा ।
'डाक्टरों के लिए यह एक समस्या हो गई। उन्होंने सलाह करके उसे अस्पताल से मुक्त करने का निश्चय किया और जब बड़े डाक्टर यह निश्चय सुनाने के लिए उसके पास पहुंचे, तो उनके अचरज का ठिकाना नहीं रहा- वह पूर्णं शान्त था । उसने इस निश्चय का स्वागत किया। केवल जाने से पूर्व एक बार पत्नी को देखने की इच्छा प्रकट की ।
'और इस बार जब वह पत्नी के पास पहुंचा, तो न तो उसका दिल कांपा, न वह गिरा। इसके विपरीत वह दृढ़ता से उसके बिल्कुल पास जा खड़ा हुआ । फिर सहसा उसने हाथ उठाया, नर्स ने एकदम मना किया। वह रुक गया पर दूसरे ही क्षरण उसने फिर हाथ उठाया, फिर गिरा लिया, पर तीसरी बार उसने दोनों हाथ उठाए । नर्स से तीव्रता से रुकने का इशारा किया, पर इस बार वह नहीं रुका बल्कि तेजी से आगे झपटा और उसके दोनों हाथ घायल पत्नी के गले पर जम गए"
'क्षण भर में उस कमरे की दुनिया पलट गई। नर्सों का पागलों की तरह भय से चिल्लाते हुए भागना, उसका दांत भींचकर शैतानी शक्ति से गला दबो- चना, पत्नी की भयानक चीख और और उसके बाद...
'उसके बाद उसने मृत पत्नी का एक सुदीर्घ क्षण तक चुम्बन किया और फिर पसीने से तर हांपते हुए हस्पताल के अधिकारियों और कर्मचारियों की भीड़ से कहा, 'मैं अब कहीं भी चलने को तैयार हूं । ..."
यहां आकर जज महोदय मौन हो गए। उनका भारी मुख प्रांसुत्रों और पसीने से तर था, पर हम सब जैसे एक दुःस्वप्न से जागे हों। हमारे हृदय आतंक से धड़क रहे थे और गाड़ी स्टेशन में प्रवेश कर रही थी। इस बार भी इंजीनियर ने साहस किया। एक सुदीर्घ निश्वास छोड़कर उसने कहा, 'तो यह मामला था जिसका आपको फैसला करना पड़ा ?"
'जी हां ।' जज ने शीघ्रता से उठते हुए कहा। उन्हें वहीं उतरना था । एक सज्जन जो अपेक्षाकृत युवक थे और जिनकी श्रांखें प्रांसुनों से भरी थीं, बोले, 'निस्सन्देह श्रापने उसे मुक्त कर दिया होगा क्योंकि वह 'वह''''।' परन्तु वह आगे नहीं बोल सका, उसका कण्ठ अवरुद्ध हो गया । जज ने उसे देखा और कहा, 'अगर आप उस मुकदमे में जूरी होते तो क्या करते ?'
'निस्सन्देह छोड़ देते,' हम एक साथ बोल उठे ।
जज के मुख पर एक विचित्र मुस्कराहट फैल गई, बोले, 'उस दिन की जूरी ने भी यही कहा था । पर मित्रो ! मैं उसके साथ अन्याय नहीं कर सका। मैं जानता हूं, मैंने बहुत-से मुकदमों में अन्याय किया है, पर इस फैसले पर मुझे सदा गर्व रहेगा। मैंने उसे फांसी की सज़ा दी थी।'
'फांसी !' हम सब चीख उठे ।
नीचे उतरते हुए जज ने इतना और कहा, 'उसे जीवित रखना उसकी पवित्र भावना का अपमान होता ।'
और फिर वे मुसाफिरों की भीड़ में खो गए ।