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अध्याय 15: चाची

21 अगस्त 2023

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इसे शायद मैं कहानी नही कहना चाहूंगा। यह एक व्यक्ति का चित्र है। वह व्यक्ति हमारी तरह हाड़-मांस का व्यक्ति था। कल्पना का नही। कुछ लोगों ने इस स्केच को मेरी पहली कहानी 'धरती अब भी घूम रही है' से अधिक पसन्द किया है।

उस दिन अचानक चाची के दो मास पूर्व स्वर्गवास होने का समाचार पाकर सन्न रह गया । इतने दिन तक कोई सूचना नहीं, कहीं कोई हलचल नहीं, मेरे आसपास कोई उसे जानता तक नहीं। इस विशाल गुजायमान नगर की तो चर्चा ही क्या उसके अपने कस्बे में जैसे वह अनेकों में एक बन गई। स्वतन्त्रता ने भूचाल की तरह देश के एक भाग का रूप ही पलट दिया। जैसे पुरानी नदियां मिट जाती हैं, नई उभर आती हैं, वैसे ही एक जनसमूह देखते-देखते लुप्त हो गया, दूसरा ग्रा गया, दूसरा जो अपना है पर जिसकी भाषा अलग, वेशभूषा अलग, खान-पान अलग, नितान्त अपरिचित उसी अपरिचित में चाची ऐसे दूर जा पड़ी जैसे बरसाती नदी के किनारे ।

कुछ अच्छा नहीं लगा। चाची की मूर्ति प्रांखों में उतराने लगी । झुर्रियों से भरा पतला-लम्बा मुख, कृशकाय, पान खाने से भद्दे हुए दांत, लम्बे पर दबे-से नयन लेकिन चमक इतनी कि बिल्ली को भी झिझकना पड़े। हंसती तो दोहरी हो जाती, हर वक्त खो-खों करती, सांस ऐसे चलता जैसे धौंकनी । पर जब इठलाकर चलती तो आसपास की हवा सांय सांय कर उठती और अक्सर वह इठलाकर ही चलती थी। जब बोलने लगती तो बड़े-बड़े वाक्पटु कान दबाकर रफूचकर हो जाते । शब्द मोहल्ले के इस छोर से उस छोर तक गूंज उठता। वह शासन करना जानती थी। जब तक पति जिया उसपर शासन किया। विधवा हो गई तो बहुओं पर हकूमत चलाई। मोहल्ले भर में उसकी धाक थी । यही नहीं, कस्बे के लोग भी जब उधर से गुजरते तो चाची को सिर झुकाकर जाते...

पति को उसने अपने सामने सांस तोड़ते देखा। बेटी मरी, दो-दो जवान बेटे चल बसे। कई पोतों को उसने स्वयं कफन में लपेटा । जब कभी उसका पोता अब-तब का होता तो उसके दरवाज़े पर एक गम्भीर हलचल मच उठती । झाड़ने फूकने वाले, टोने-टोटके वाले आते और जाते । कभी-कभी डाक्टर - वैद्य के दर्शन भी हो जाते पर वह पास बैठी बच्चे को गौर से देखती रहती, देखती रहती । उसे विश्वास होता कि मौत खाली हाथ नहीं लौटेगी, कभी नही लौटेगी। मौत के पद चिह्न जैसे वह पहचानती थी। यही नहीं, जब-जब उसके नए पोते का जन्म होता तो वह खूब हंस-गाकर खूब ठाट-बाट से उसका स्वागत करती और जैसे ही मंगल ध्वनि का स्वर मन्द पड़ता वह मेरी मां के पास श्राती और कहती, 'ना जिठानी ! देख लेना, जिएगा नहीं ।'

वह आपादमस्तक कुरीतियों मे डूबी हुई थी । झाड़-फूक, टोने-टोटके, मान-मनौती, भेंट-पूजा, उसके आसपास यही सब सत्य था । वह ग्रहण का दान लेती थी, काज की मिठाइयों से उसका घर भरा रहता, मृत्यु-कर भी वह वसूल करती थी लेकिन कभी किसीने 'नीच' कहकर उसका अपमान या अपेक्षा की धृष्टता की हो सो याद नहीं पड़ा। इसके विपरीत उसके बेटे के व्याह मे सभी सवर्ण उसके घर में जीम आए थे। उसकी पक्की तिमंजली हवेली मोहल्ले में सबसे अलग और सबसे ऊपर चमकती थी । उसके एक ओर श्रग्निमुख ब्राह्मण कुल का निवास था, दूसरी ओर एक कुलीन अग्रवाल परिवार बसता था । दोनों से वह समय-समय पर सन्धि और विग्रह का खेल खेलती रहती थी । प्यार और शत्रुता दोनों की चरम सीमा उसके लिए सहजगम्य थी। प्यार करती तो सब कुछ लुटा देती, दुश्मनी पर उतरती तो कचहरी तक चली जाती। उसकी श्रांखों से भरने की तरह प्यार भरता तो बरसाती नाले की तरह गालियां भी उमड़ती- उफनती और मजाक पर उतरती तो वह चुटकी लेती कि तिलमिला देती । एक दिन

...

घूघट की नोट से पिता जी की श्रोर देखकर मेरी मां से बोली, 'क्यों जिठानी, तू दहेज है !'

मां ने कहा, 'नहीं तो ?"

'लगे तो ऐसा ही है, जेठ है बुड्ढा और तू है नवेली ।'

मां हंस पड़ी, 'अरी इनका उठान ही ऐसा है। मुझसे कुल एक साल बड़े हैं।'

'अच्छा' वह खिलखिलाई, 'मैं तो समझी थी कि मां-बाप ने जिठानी को बुड्ढे से बांध दिया है।'

जब मैं उसके सामने वाले मकान में ग्राकर बसा तो नियमानुसार मुझे चेतावनी दी गई, 'चाची से बचकर रहना, करोंदे का झाड है।' इस चेतावनी में कोई अतिशयोक्ति नहीं थी। मैंने स्वयं उसे कई-कई दिन तक लगातार मोरचा लेते देखा था । वह लड़ती थी और खम ठोंककर पेशेवर लड़ाकू की तरह लडती थी । इसलिए डर मुझे भी था लेकिन नौ साल तक उसका पड़ौसी बनकर रहने में एक बार भी ऐसा अवसर नहीं आया कि वह कभी हमसे रूठी हो । पहले दिन जिस प्रकार हंसती-इठलाती हुई आई थी और मां से घण्टों प्यार से बातें करती रही थी. अन्तिम दिन भी जब मैं इस्तीफा देकर वहां से चला तो वह सकपकाई, घबराई, दौड़ती हुई आई और बोली, 'अब नहीं आएगा ?"

'चाची क्या करूं, सेहत खराब रहती है ।'

'नहीं, नहीं बेटा ! लगी नौकरी नहीं छोड़ा करते ।'

'सो तो ठीक है पर चाची''''''

'ना, ना, कुछ दिन तक रह श्रा । सेहत ठीक हो जाएगी। कहीं ऐसे जाया करते हैं ? पगला ।' और जब मैंने घर में ताला लगाकर ताली उसे दी तो वह रुधे कंठ से बोली, 'अच्छा लौट आना । मेरा बेटा, देख तो...."

और फिर आंखों में प्रांसू । मैं देखता रह गया। इन नौ सालों में कितना कुछ इस रूढ़ि जर्जर नारी से मैंने पाया । जब भी बीमार पड़ता दौड़ी हुई प्राती और घण्टों बैठी रहती । अकेला होता तो दवादारू का प्रबन्ध करती। पास आकर सोती और पेट पकड़े फिरती । स्वस्थ रहने पर न आती हो सो बात नहीं । जब-तब आती और डांटने लगती - 'ऐं रे, गैर समझ रखा है ? मर्द होकर चूल्हा फूके है । अरे तू तो हमारे घर का खा ले है। तू क्यों मरे है । तेरी मां भगतानी- शुक्लानी हैं। तू तो समाजी है ।'

मैं झिझकता, 'चाची, बात यह है कि एक दिन का हो तो..."

तुरन्त बात काट देती, 'अरे जा, जा, तू तो एक दिन भी नहीं खाता...'

नौर वह घर जाकर ढेर सारा सामान ले आती, लड्डू, कचोरी और न जाने क्या-क्या"

खिलाने-पिलाने में उसे रस आता था। अपनी बहुत्रों को वह खूब डांटती । बेटों से पिटवाती, अक्सर रात को बड़ी बहू की चीख-पुकार से मुहल्ला कांप उठता लेकिन फिर भी यह प्रसिद्ध था, 'चाची की बहुएं राज करती है। सोने से पीली हो रही है। खाने-पीने को इतना है कि राजा तरसे ।' सामन्तवादी समाज- शास्त्र की जानकार चाची पीटकर भी उन्हें खूब खिलाती थी। खूब मोल-तोल करके वह उन्हें लाई थी । न जाने कितनी बार उसने वह कहानी मुझे सुनाई थी, 'अरे बेटा, हम लोगों में ऐसा ही होय है । हजार नाक पर मारे तब फेरे दिए सगी ने । क्या करूं बेटा ! यों मेरा अड़ गया शादी करूंगा तो इसी से.........

फिर बड़े ज़ोर से हसती, 'तुझे क्या बताऊं, बेटा ! बड़ा है न ? उसकी बात बड़ी बेटी से पक्की करी थी । कुन्दन का डला थी पर कानी थी। बेटा अड़ गया । इससे शादी करेगी तो रेल की पटरी पर सो जाऊंगा । सो बेटा पांच सौ और दिए और इस गोरे भैसे को लाई । अब तुझसे क्या बताऊं, देखने की है बस । न खाक न सऊर, न घेले का सलीका । बेटे जने तो मर-मर जा है । तभी पिटे है........

और जो बात हंसी से शुरू होती उसका अन्त रोने से होता । लेकिन उसका रोना हमेशा दुख से भरा होता हो सो नहीं । कभी वह दर्द भरे गर्व से भी रो पड़ती और ऐसा तभी होता जब वह अपने स्वर्गीय पति की कहानी सुनाती । एक दिन क्रोध और प्रांसुत्रों से रुधे स्वर में वह बोली, 'आप तो चला गया पर मुझे डुबा गया बेटा ! इतना पैसा था सब लुटा दिया ।'

मैंने पूछा, 'किसे लुटा दिया ।'

'जो भी प्राता, खुशामद करता, उसीको कर्ज दे देता और वापस न मांगता। मैं पीछे पड़ती तो कह देता, 'अब जाने भी दे, गरीब है, कहां से देगा।' मैं कहती हो बड़ा गरीब है तो वह हंस देता, 'मांगने वाले गरीब ही होते हैं।'

और यहां आकर चाची के प्रांसू और भी तेज हो जाते। उन्हें प्रांचल से सुखाती हुई वह कहती, 'उस जैसा कोई हो तो । लुटा गया । कभी किसीने लेकर दिया ही नहीं । दूकान से हर कोई पान ले जाता। क्या मजाल जो उस भले मानस ने कभी पैसे मांगे हों। जो दिए सो लिए। हिसाब की बात चली तो हंस दिया ।'

फिर मौन, कुछ सुबकियां, फिर रुंधा स्वर, ' तभी सारा शहर उसे चाहे था । अरवी के साथ भीड़-सी भीड़ थी, जो सुनता दौड़ा श्राता जैसे कोई अपना ही चल बसा हो।'

लेकिन जिन रुपयों को वह पति से न बचा सकी उन्हे बेटों से बचाना भी उसके वश में नहीं था । यू बचाने की पूरी कोशिश वह करती थी । जानती थी कि उसके पास होंगे तो बेटे छोड़ेंगे नहीं, सो मेरी मां के पास जमा कराती रहती । कहती, 'जिठानी ! बेटों ने मुझे खा लिया । पैसा नहीं छोड़ते । सब मर जाने अपने बाप के ऊपर गए हैं। लेकिन मैं भी मैं हूं, एक पाई नहीं दूंगी । मैं तो तीथ करने जाऊंगी। नरक में पड़ी हूं ।'

और जब वे रुपए सो की गिनती पार कर जाते तो एक दिन चाची चीखती-चिल्लाती भागी हुई प्राती, 'जिठानी, रुपए दे तो ।'

'क्यों क्या तीर्थं करने जा रही है ?"

'अरे कर लिए तीरथ ! ऐसे भाग कहां जिठानी ।'

'तो फिर रुपए क्या करेगी ?"

'करती क्या ? बड़ा धरना दिए बैठा है। पता नहीं जिठानी दुकान की कमाई का क्या करे । घर का खर्च में चलाऊं और जब दिल्ली जावे मुझे लूट- खसोट कर ले जावे ।'

और रोती-पीटती, बकती झकती, सब रुपए बेटों को सौंप देती। बेटे शायद यह जानते भी नहीं थे कि कहां और कितने रुपए जमा हैं। बस, वे अपना रोना रोते और मां लपककर जिठानी के पास पहुंच जाती। अपने बेटों के लिए ही वह पेट की पतली हो सो बात नहीं, वह प्रातंक के लिए प्रसिद्ध थी फिर भी वह किसीसे दूर नही थी। श्राज जिसका सत्यानाश करने पर तुल जाती दो दिन बाद उसीसे दोहरी होकर बातें करती । श्रोडे टेले में, ब्याह शादी में, श्रागे रहती । अपना नेग लड़-झगड़कर लेती पर उसके बाद उसी तरह लुटा भी देती । कोई कष्ट में हो चाची उसके पास मौजूद है। किसीके साथ अन्याय हो तो चाची उसकी वकालत ही नहीं पैरवी भी करने को तैयार है। हमें भी जब- तब रुपयों की ज़रूरत होती तो वह कहती, 'अरे तो जिठानी ! तेरे पास ही तो रखे हैं । ले क्यों नहीं लेती ?"

मां कहती, 'मैं ब्याज दूंगी ।'

सुनकर वह खूब हंसती, खूब हंसती, दोहरी हो जाती, 'ब्याज देगी । जा, जा, जिठानी ब्याज देगी ।'

यूं वह ब्याज पर रुपए न देती हो सो बात नही। उससे कर्ज लेने वाले कम नहीं थे । ब्राह्मण कर्ज लेते, बनिये कर्ज लेते, मुसलमान कर्ज लेते, कहार- भंगी लेते, सभी कर्ज लेते । और वह सबसे खूब झगड़ती, तकादे करती, लड़ती । एक दिन क्या देखता हूं, काफी तेज झगड़े के बाद चाची क्रोध से बड़बड़ाती मेरे पास आकर बैठ गई। मैंने पूछा, 'क्या हुआ चाची, कौन था ?"

' था कौन, वही मनुग्रा कहार था।'

'रुपए मांगने आया होगा ?'

'मांगे तो तब जब पहले दे । मरे ने एक पाई तक नहीं दी । देख तो कितने होंगे ?"

और कहते-कहते एक कागज उसने मुझे थमा दिया। जैसी चाची वैसा ही जीर्णशीर्ण वह कागज । कहीं पेन्सिल से लिखा, कही सरकण्डे की कमल से, कही होल्डर से । अंक भी वैसे ही अस्पष्ट । बहुत माथापच्ची, पूछतांछ के बाद पता लगा कि उस कहार पर पांच सौ से अधिक रुपए हो गए थे। मैं विस्मित- सा देखता रह गया, ‘पांच सौ से ऊपर हैं चाची !'

'वही तो ।'

'इतने रुपए हो गए !'

'देख ले, और देने का नाम नहीं । लूट खाया मुझे तो इन नासपीटों ने । नाश जाए इनका । नींद हराम कर दी। दस साल से लिए जा रहा है।' और कागज हाथ में लेकर उसे फाड़ डाला । मैं हठात् बोल उठा, 'अरे अरे, यह क्या करती हो ?"

'करती क्या ? वह देगा थोड़े ही । अब इसे रखकर क्यों जी जलाऊ ।' 'देगा क्यों नहीं ? लिए हैं तो देगा, इंकार तो नहीं करता ।'

'इंकार तो नहीं करता पर अब क्या देगा । दस साल से लिए जा रहा है। दस साल में आदमी बढ़े, बीमारी सीमारी बढ़ी पर आमदनी वही, फिर ऊपर से दारू पीने की लत, ये देने के लच्छन हैं ? मैंने कर्ज लिया होगा ।'

'तुमने कर्ज लिया !' विस्मित विमूढ़ मैंने कहा ।

'हां पिछले जन्म में लिया होगा, वही तो चुका रही हूं।'

और उस कागज को खूब फाड़कर बकती झकती चाची वहां से चली गई और मैं सोचता बैठा रह गया कि आखिर इस प्रातंक और अविद्या के साथ इस अनगढ़-टपटी सहानुभूति का क्या नाता है ? प्रेम का पौधा क्या जहालत की कीचड़ में भी पनपता रहता है ?

शरीर जर्जर, सामाजिक चेतना जर्जर, कुरीतियों में पनपी अन्धविश्वासों में पली, जिसे शत्रु मान लिया उसे मिटा दिया, जिससे मित्रता की उसे निभा दिया, खरे के साथ खरी, खोटे के साथ खोटी, सदा पराजित और मुसीबतजदा का साथ देने वाली, सदा आगे रहने को, ऊपर रहने को कुछ करने को, कुछ देने को प्रातुर, आज भी हंसी से दोहरी होती या क्रोध से तमतमाती उसकी काया आंखों में उभर प्राती है तो मनुष्य चरित्र की अद्भुतता मुखर हो उठती है ।

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