'आश्रिता' एक विचार का परिणाम है। इस संग्रह में जितनी कहानियां संगृहीत हैं उनमें शायद यह सबसे पहले लिखी गई है। इसका रचनाकाल १६३७ है। उन दिनों मेरा जैनेन्द्र जी से परिचय हुआ ही हुआ था। मुझे याद है इस कहानी को पढ़कर उन्होंने लिखा था, 'मुझे तुमसे ईर्ष्या होती है। ऐसी सूक्ष्मता हिन्दी में कहां मिलती है।" उन दिनों में कट्टर आर्यसमाजी था और मै ममझता हूं उसका प्रभाव इस कहानी पर स्पष्ट है।
सिरोही गांव के मिडिल स्कूल में जो नए मास्टर आए, उनका नाम था अजीत कुमार । संसार में वह अकेले थे, स्वदेश से दूर इस स्कूल में आने के लिए उन्हें नाममात्र भी क्लेश नहीं हुआ । यों तो स्कूल - मास्टर गांव के सार्वजनिक जीवन का नेता होता है, पर परिवार के मोह-बन्धन से मुक्त प्रजीत मास्टर ने उस गांव को कुटुम्ब करके माना। तब दूसरे मास्टरों के प्रति उन ग्रामीण जनों का जो परम कौतूहल का रुख होता था वह उनके प्रति न टिक सका। अजीत मास्टर शीघ्र ही सबके लिए सहज-गम्य हो गए। स्कूल के उपरान्त जो जीवन बचा था, उसे उन्होंने किसी नियम से न बांधा था, सो उस बाधा बन्धनहीन जीवन को सार्वजनिक बनाकर वह निर्भय थे ।
उसी गांव के मनोहर ठाकुर की कन्या थी सोना, जो विधवा होकर बाप के घर रहती थी । अपना कहने के लिए उसका एक भाई था। वह स्कूल के चौथे दरजे में शहर में पढ़ता था। ससुराल वाले ग़रीब थे पर बाप के पास घर का घर था श्रौर कुछ नहरी जमीन भी उसीको लगान पर उठाकर वह भाई का पालन-पोषण किए जा रही थी। गांव का जो घरेलू जीवन था उसमें उसकी काफी पहुंच थी । ज़रूरत के वक्त वह पीछे न हटती। जिनका और कोई न था उनकी वह थी । उनके दुख में श्राठों पहर बनी रहती और उन्हें अपना ही समझती ।
उसके छोटे भाई का नाम था किसुन । मां-बाप के लाड़-प्यार की बात उसने जानी न थी पर भाग्य से था सुन्दर । सबसे नम्र और दरजे में सबसे आगे रहता, अजीत ने उसे देखा और जाना बालक प्रतिभा सम्पन्न है । स्वभाव से वे उसकी ओर खिचे । उसके रूप और गुण पर तो सब लोग मुग्ध थे लेकिन अजीत उससे भी आगे बढ़े। उन्होंने किसुन और सोना की निराश्रयता को मिटाकर उनके भार को सहज ही स्वीकार कर लिया। मानो अजीत जो पुरुष था उसे शासन करने को मिला और सोना जो नारी थी, उसका कोमल हृदय सदा किसी नवीन स्नेह से परिपूर्ण रहने लगा । लेकिन गांव वालों ने इस बढ़ती हुई घनिष्ठता को उत्साह - हीन नेत्रों से देखा । यदि उनकी भावना को शब्दों का रूप दिया जाए तो उसका यह अर्थ होगा कि हमें यह सब ज़रा भी युक्तिसंगत नहीं जान पड़ा, अपितु लगता है जैसे गांव में पाप की छाया आ घुसी है ।
सन्ध्या की गोदी में लेटा हुआ सिरोही गांव उनींदी प्रांखों से आकाश की ओर ताक रहा था और बादलों के पीछे छिपे हुए तारागण कभी-कभी उस मुग्ध और निस्तब्ध ग्राम-श्री की ओर झांक भर लेते थे । बादल थे, सो सरदी कम थी, गांव में सन्नाटा था । द्वार बन्द किए सब सोच रहे थे- बरसेगा ।
- श्राज पानी उसी समय ऊपर के कमरे में बैठे हुए अजीत मास्टर अपनी मानसिक विचार-धारा पर विजय प्राप्त करने की असफल-सी चेष्टा कर रहे थे । चाहते थे श्राज जो विचार मेरे मानसिक जीवन में प्रा चुके हैं उन्हें कहीं दूर देश मे निर्वासित कर दूं । पर रास्ता नहीं पा रहे थे। कमरे की दीवार पर जो छोटा- सा लैम्प लटका दिया गया था उसकी चिमनी नीले रंग की थी। इसीसे कमरे
धुंधला-सा नीला प्रकाश फैल रहा था और जब कभी सामने की खुली हुई खिड़की से प्राकर बिजली का प्रकाश क्षण भर के लिए वहां बिखर जाता, तो समूचा कमरा जैसे लज्जा से मुखरित हो उठता ।
अजीत उसी तरह बैठा था । उसकी दुखी परन्तु गम्भीर मुख-मुद्रा स्वा- भाविक असंयमता को परे धकेले धकेले अद्भुत रूप से संयमित हो उठी थी, मानो उसने अपने को खूब संयत बनाकर कहा, को तैयार होकर भाई है लेकिन 'और सोना ! या हम लोग विवाह कर लें ?'
इतना कहकर अजीत भयंकर वेग से हिल उठा । उसे लगा जैसे समूचा कमरा, कमरे के सामने की टीन की छत और दीवार पर लगा हुआ लैम्प, यह सब हिल उठे, पर सोना नहीं हिली। केवल चेहरे पर लाली भर श्राई । संयत स्वर में बोली, 'जानती हूं नारी के लिए वे इससे अधिक नहीं सोच सकते, परंतु मास्टर साहब ! क्या किसी विधवा के प्रति जरा भी सहानुभूति दिखाना उससे विवाह करने के लिए होता है ? क्या प्रेम का अन्त प्रेयसी की वासना में ही है ? दुनिया ने माना है— विवाह की इच्छा के बिना विधवा युवती कभी किसीके साथ रह ही नहीं सकती...।'
कहते-कहते उसकी वाणी कठोर हो उठी। प्रवेश के मारे उससे बोला भी न गया । अजीत चित्र लिखित सा सोना को देखता रहा। क्या है जिसने इस भोली-भाली ग्रामीण बालिका को इतना तर्कशील बना दिया है। भीगी हुई रात्रि के अन्धकार में कितनी असहाय है यह विधवा नारी ! पर कितनी निर्मम होकर पूछती क्या है, दुनिया को चुनौती देती है। क्यों यह पुरुष प्रत्येक नारी को पत्नी के रूप में देखने को लालायित हो उठता है ?
श्रजीत इसका जवाब सोचकर भी न पा सका । क्षरण भर के लिए उसने श्रांखें मूंदकर उस चित्र को अपने मानस पट पर देखा और फिर सोना के अनु- तस चेहरे पर। तो भी मानो जिन विचारों को वे परे न हटा सकते थे वे अब स्वयं ही मिट चले। उस समय अजीत अपने प्रति किसी निदारुण क्रोध की ज्वाला से भर उठे। उन्हें लगा कि सोना के प्रति उन विचारों को हृदय में लाकर जो पाप उनसे बन पड़ा था, उसका निवारण वे अनन्त काल तक जन्म- मरण के बन्धन में ग्राकर उसकी चरण-वन्दना करने से भी नहीं कर सकेंगे । तब अन्दर ही अन्दर जैसे वे रो उठे। सोना की ओर देखकर बोले, 'जाता हूं सोना !'
'नहीं-नहीं', सोना जैसे चौंककर उठ बैठी, 'क्या भोजन नहीं करेंगे प्राप ?' अजीत ने जो लालटेन जलाई थी, उसे उठाकर कहा, 'आज जी नहीं करता सोना ! जाने दो ।'
सोना बोली, 'रोकने वाली मैं कौन होती हूं मास्टर साहब ! पर एक बात कहती हूं उसे सुन जाइए । '
अजीत कांपकर इतना ही बोला, 'सोना !'
'डरो नहीं मास्टर साहब, वह बात आपको हल्का ही करेगी। कहती हूं दुनिया का क्या दोष है इसमें ? उसने सदा से ही ऐसा किया, और जाना है ।' अजीत ने फिर भी कहा, 'अब कुछ न कहो सोना !'
'सो कैसे होगा ? आप यह वात सुने बिना तो न जा सकेंगे श्राज ।'
अजीत एक साथ गम्भीर और विचलित होता गया । उसने सोना के बदलते हुए भावों को देखा और एक असहाय बन्दी की भांति तड़पकर रह गया ।
सोना बोली, 'बात जब जी में उठी है, तो उसे क्यों न कहूं ? जानती हूं मैं विधवा हूं और विधवा जब हुई थी तो मेरे हृदय पर बहुत गहरी चोट पहुंची- हूं मानो विश्व का सारा दुख साकार होकर मेरी छाती पर श्रा तना है, पर क्या मैं मर सकी ? इसीसे फिर दुनिया का झमेला हुआ । मैं अकेली थी और था मेरा भरा हुआ यौवन, जिसे लेकर मुझे जीने की चिन्ता करनी थी..."
आपको क्या होने लगा मास्टर साहब जी घबराता है तो बैठ जाइए या लेट जाइए ।' पर अजीत हिला भी नहीं। सोना कहती रही - 'और तब मास्टर साहब ! पड़ोस के अनेक दयालु युवक मेरी ओर झुके । शहर था वह । मैं उन्हें रोक भी न सकी थी। रोकती कैसे ? मैंने बचपन में ही सीखा था- मैं स्त्री हूं । मास्टर साहब ! जब मैं कुमारी थी, तो स्वयं मेरे पितृकुल के एक सम्बन्धी ने ... !
'ओह !' - सोना सिर से पैर तक कांप गई ।
अजीत ने चिल्लाकर कहा - 'सोना, सोना ! क्या है यह ?"
'घबराइए नहीं' – सोना ने अपने को संभाला । 'सच ही कहती हूं मास्टर साहब ! पर वे आगे नहीं बढ़ सके थे, तो भी अन्दर ही अन्दर जो भावना मुझ- में भरी वही आगे फली फूली । पर कब तक ? मेरी नींद भी जागी, लेकिन तब मेरा जो अपना था वह मैं लुटा चुकी थी.''
अजीत ने करुण पागल की भांति कहा, 'जी भरा श्रा रहा है सोना ! मुझे जाने दो ।'
सोना हंसकर बोली, 'जानती हूं प्रापके जी में क्या भरा भा रहा है-भय और घृणा ? उनसे क्या होगा मास्टर साहब ! जी में तो साहस और विश्वास भरना होगा । जाइए, साहस हो तो चले जाइए। कब रोक सकती हूं, अबला हूं मैं !'
'सोना, सोना !'
'सो तो मैं आपके पास ही बैठी हूं।'
और फिर कहने लगी, 'उनमें कई कवि भी थे, जो तारों को देख कविता किया करते थे । कई माया में विचरने वाले युवक थे पर एक वकील का लड़का भी उनमें था । उसने कहा था- 'मुझसे विवाह कर लो सोना ! रानी बनाकर रखूंगा।' पर विवाह का नाम सुनकर मैं कांप उठी। दूसरी बार भी स्त्री का विवाह हो सकता है, यह बात मैं न जानती थी। ऊंची जाति की हिन्दू-विधवा विवाह नहीं कर सकती, यही मैने सुना था सो माना था। तभी भागकर मैं यहां आ गई। जानती हूं वह पाप नहीं था, पर नियम में जो श्रद्धा मैने पाई थी उसने मुझे भरमा लिया, मैं फिर वहां नहीं गई ।'
यहां आकर सोना चुप हो गई।
अजीत ने इतना ही कहा, 'जाऊं !'
सोना नहीं बोली। लालटेन उठा ली और जीने के पास लाकर खड़ी हो गई। मानो उसने कहा, सब सुन लिया तो जाइए ।
श्रजीत खूब संयत होकर सीढ़ियों पर उतरने लगा। पैर नीचे रखते ही उसे लगता — अब गिरा ! अब गिरा ! तब वह एकदम दौड़कर नीचे आ गया। सोना लालटेन थामे ऊपर ही खड़ी रही ।
अजीत ने कहा, 'किवाड़ बन्द न करोगी सोना ?'
सोना हंसकर बोली, 'आज खुले ही रहने दीजिए। क्या है मेरा जो कोई मुझसे मांगेगा ?'
'सोना', नीचे खड़े-खड़े अजीत ने गम्भीर परन्तु धीमी वाणी से कहा । 'जाइए मास्टर साहब ! साहस न खोइए, निर्बल का बल राम है, उसे कर तो आप रास्ता भी न पायेंगे ।'
सोना मुड़ चली । अजीत ने कहा, 'नमस्कार सोना !'
सोना स्थिर होकर बोली, 'नमस्कार मास्टर साहब !'
भूल-और फिर लौट पड़ी, नीचे वह गई नहीं। बिस्तरे पर किसुन सोया था, मुग्ध होकर उसे देखने लगी। निद्रा देवी की गोदी में दुनिया के इस दुर्गम और कठोर मार्ग को भूलकर वह खेल रहा था, चिर- कल्यारण-सुन्दरी कल्पना के साथ । उस बालक के मुख पर उसने मानो देखा-भय तो कहीं भी नहीं है है केवल भावना की सूझ, तो उनसे यह परे है । अन्धता के इस आवरण में अभी यह घिर नहीं सका है । मैं जो हूं''।
तभी किसुन जागकर बोला, 'जी-जी-ई ।' सोना करुण स्वर में बोली, 'भैया मेरे !'
किसुन फिर सो गया । सोना भी उससे लिपटकर सोने के लिए लेट गई, मानो उस अथाह और अगाध सागर में यही बालक उसका अवलम्ब था । लेकिन दीवार पर लटका लैम्प और देहली पर रखी हुई लालटेन उसके साहस रूपी चन्द्रमा में कलंक बनकर वहीं उसी तरह पड़ी रही ।
अगले दिन श्रजीत जब स्कूल गए तो किसुन नहीं आया था। उन्होंने सोचा, क्यों नहीं आया वह ? फिर उनके भीतर कुछ उमड़-घुमड़ श्राया पर छाती चीरकर देख न सके। काम करते रहे। बीच-बीच में ध्यान श्रा जाता पर साहस न होता, कहें किसीसे - जाकर देखना, भैया किसुन कहां रहा ?
अपनी इस निर्बलता को जानकर उन्हें क्रोध भी हो आया और शायद तभी लड़कों ने जाना भी कि आज मास्टर साहब हंसते-हंसते खीझ उठते हैं ।
इसी बीच में आधी छुट्टी की घंटी बज उठी । लड़कों ने मानो जीवन पाया, मानो बछड़े को गैया के थन मिले। सबके सब खोमचे पर टूट पड़े । खोमचे वालों ने भी अपने संतोष का फल खूब मीठा करके लिया, एक के तीन उन्होंने पाए ।
जो गरीब थे वे धूप में बैठकर समय को खाने लगे। कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने किताबों से सिर भी न उठाया। किसुन भी उन्ही में से था, पर आज वह दीख नहीं रहा था । श्रजीत मास्टर इसी विचार में डूबे डूबे अखबार के पन्ने पलट रहे थे । हरेक पन्ने पर वे यही लिखा पाते थे --- ओह ! कैसी है यह जड़ता जिसने मुझे बांधा है । इसे तो लांघना होगा, नहीं तो जो मार्ग है वह अवरुद्ध रहेगा और तब जीते जी मरना होगा। सोच रहे थे, पर आ गए हरसुख चौधरी । देखकर बोले- 'आप हैं ! बैठिए, बैठिए !' चौधरी हैं हैं कहते बैठ गए। फिर कुछ स्कूल की बात छेड़ी । अन्त में बोले – 'तो मास्टर साहब ! सोना फिर सुसराल चली गई ?'
अजीत समझे नहीं, बोले, 'क्या कह रहे हैं आप ?'
'वही जो है ? क्या आप नहीं जानते ?'
'कुछ भी नहीं ।'
'आज सबेरे मैंने देखा, किसुन को लेकर सोना स्टेशन की ओर जा रही थी । पूछा, 'बिटिया किधर को ?' तो बोली, 'ताऊ ! जहां मुझे रहना था, वहीं जा रही हूं।' सो तुम समझे उसका क्या मतलब था ?'
अजीत के मन ने क्या समझा ? सो कैसे बतावे ? उसके लिए आस्मान गिरा या धरती फटी, उन्हें कैसे रोके ? उसकी चेतना शक्ति नष्ट हो चली। कुर्सी पर बैठा-बैठा आस्मान में उड़ चला ।
चौधरी ने फिर कहा, 'पर उसका वहां है कौन ?'
अजीत ने सुना और दोहरा दिया, 'हां, उसका वहां है कौन ?' पर दूसरे ही क्षरण संभलकर बोला, 'है क्यों नहीं, चौधरी साहब ! पति की देहली क्या उसके लिए सब कुछ नहीं है ? माना आकार वाली कोई वस्तु वहां नहीं है पर नाम को कौन मिटा सकता है ?"
चौधरी को यह सदुपदेश बहुत रुचा । जो कहने आए वे उसे भूलकर श्रद्धा मे भर चले, 'ठीक कहते हैं आप, यही बातें हैं, जो श्राज दुनिया भूल चली है ।'
और वे उठकर चले गए। अजीत सोचता ही रहा - कैसी है यह सोना ? उसने अपने को रोका नहीं और छिपाया भी नहीं, जो मन में आया कह चली । श्रावरण के नीचे हम सब ही नंगे हैं, पर इस तरह प्रावरण उठाकर फेंकने का साहस किसने किया । तो भी मार्ग की अवरुद्धता जिसे छू भी नहीं सकी थी वही सोना लाज छिपकर क्यों भागी ? वह मुझसे कहती तो क्या मैं रोक सकता ? यही गुत्थी अजीत सुलझा न सका ।
उसके तीसरे दिन की बात है। घ्रजीत स्कूल जाने के लिए सोच रहा था कि किसुन सामने प्रा खड़ा हुआ ।
अचरज से अजीत भर आया, 'तुम मा गए किसुन ?'
'जी हां, जीजी ने कहा है, स्कूल की पढ़ाई है, उसे क्या छोड़ना होगा ?" 'और तेरी जीजी नहीं आई ?'
'जी नहीं, वे अब नहीं आएंगी।' हाथ जोड़कर कहा है, 'कृपा कर ज़मीन का काम मास्टर साहब ही देखें ।'
श्रजीत श्रद्धा से जैसे भर-सा आया। मानो वह जो अजीत मास्टर है, यही कच्चा था । करुणा और ममता के दो शब्द उसका जो कुछ कोमल है उसे पाने के लिए बस है ।
और इन बातों को तीन महीने बीत गए !
अजीत सोच रहा था कि अब की बार बाडी अच्छी होने से जो लाभ हुआ था, उसमें से सोना को भी कुछ भेजना चाहिए। किन्तु उसने सुना आर्य- समाज मन्दिर में जाकर सोना ने एक वकील के लड़के के साथ पुनर्विवाह कर लिया है ।
शीत की ठिठरती हुई वायु के समान यह समाचार गांव-भर में फैल गया । गांव के चिरपरिचित मार्ग से होकर वह घर-घर में बेरोक-टोक घुसा। चौपाल के कोने-कोने में उसने धूनी रमाई और फिर पनघट पर पानी पीता हुआ पिछवाड़े के तालाब में अनन्त काल के लिए समा गया ।
कल्याणी ने अचरज को साकार बनाकर कहा, सुना तुमने जीवन की भाभी ! सोना ने पुनर्विवाह किया है ।'
'हां प्रां !' - भाभी चौंक पड़ी मानो उसके सामने पानी नहीं रक्त था ।
घड़े को घाट पर रखते-रखते पीताम्बरी बोल उठी, 'क्या ग्राज जाना है तुमने ? न जाने कब से मास्टर के पीछे पड़ी थी। वह नहीं फंसा तो वहां जाकर छापा मारा।'
कल्याणी श्रद्धा से भर उठी, 'मास्टर खरा सोना है ।'
दुलारी से भी न रहा गया। बोली, 'दया तो उसमें भी बहुत थी। जीवन के बेटे को हाथों पर रखा था।'
कल्याणी चूकी नहीं - 'सो तुम ठीक कहती हो दुलारी ! एक जीवन के बेटे को क्या ? न जाने कितनों को उसने जीवन दिया, पर बुरा काम तो बुरा ही है ।'
'बुरा क्या है जीजी !' दुलारी ने कहा, 'जी नहीं माना तो धर्म से एक की हो गई । घर-घर पाप जगाती तो न फिरी ।'
कुछ भी हो। अजीत मास्टर ने उस गांव में पुनर्जन्म पाया । सोना के पुनववाह से मानो गांव की श्रद्धा को भोजन मिला, फिर पनप उठी। लोग उन्हें देखते और कहते - आदमी क्या है, हीरा है। लेकिन अजीत के जी की किसने जानी । ऐसा लगता था जैसे वे अपना सब श्रानन्द उल्लास खो चुके है, जैसे जीवन में अब अपना कुछ भी नहीं रहा है । मानो उनकी सारी सद्भावनाएं पछाड़ खाकर छाती पर टूट पड़ी। सारे विश्व को उन्होंने भूकम्प से हिलते देखा । विश्वास और श्रद्धा जैसे उन्हें ढूंढे भी न मिली। वे सचमुच सोना के प्रति कठोर हो उठे - क्या हुंकार थी उसमें, मानो चंडी का रूप हो; पर मुंहलगा खून क्या छोड़े बनता है ? इसी सिलसिले में चौधरी से कहा भी, 'जिसे लाल समझा था वह पत्थर निकला !'
चौधरी ने मानो मुराद पाई. 'सच कहता हूं आप ही थे जो बचकर निकले, नहीं तो नारी का मन्त्र किसने कीला है ?'
प्रजीत खुश होकर भी आप ही कांप-सा गया ।
चौधरी फिर बोले, 'कहता हूं, थाप झगड़े में क्यों पड़े ? पड़ी रहने दीजिए उसकी ज़मीन ।'
नशे में भरा अजीत बोला, 'ठीक कहते हैं प्राप । दूसरे के झगड़े में क्यों पहूं ?" परन्तु जब घर लौटा तो किसुन मनमारे खाट पर लेटा था । श्रजीत ने ?' कहा, 'तू कब जाएगा ?"
किसुन जो बालक था, बोला, 'कहां ?'
'अपनी जीजी के पास ।'
'नहीं जाऊंगा।'
अचरज से प्रजीत वोले, 'क्यों ?'
किसुन ने कहा, 'जब श्राया था तो जीजी ने कहा था- 'तुम मास्टर साहब के पास ही रहना ।"
'हां...' अजीत इतना ही स्पष्ट बोल सके और इस 'हां' ने तीव्र हुंकार द्वारा उन्हें सिर से पैर तक हिला डाला। वे इतने उत्तेजित हुए कि प्रांखों में प्रांसू भर आए । दस बरस का बालक क्या भाप ही ऐसी बात कह सकेगा ? यह तो मानने को वह तैयार नहीं थे ! कितना भोला है किसुन, उफ़ ! उनका हृदय अत्यन्त व्याकुल हो आया । सन्ध्या के उस बढ़ते हुए अन्धकार में वे चुपचाप किसुन के पास बैठकर सोचने लगे - क्या करूं तो ?
और उसी रात को अजीत ने देखा अनेक बार भय से कातर होकर बालक पुकार उठा था, 'मास्टर साहब ! मास्टर साहब !'
अजीत ने भी मानो स्नेह में भरकर कहा था, 'किसुन !'
लेकिन जागकर किसुन बोला नहीं, चुपचाप पड़ा सोता रहा। अजीत अपनी खाट से उठे और उसके पास आकर बैठ गए, फिर धीरे-धीरे उस मातृ-पितृ- विहीन बालक को छाती से चिपटाकर अपनी शैया पर ले आए। बालक उनकी छाती पर हाथ धरे-धरे सोता ही रहा मानो जो उसका अवलम्ब शेष रहा था वह भी न खो जाए। पर तब भी अजीत का मन यही कह रहा था, 'उसने मुझ- से कुछ भी न छिपाया, पर वह दूसरे की क्यों हुई ?"
और यू ही चलते-चलते एक समूचा वर्ष और बीत गया। बाड़ी इस साल भी खूब फूली - फली पर सोना को भेजने की बात न उठ पाई। अजीत के मन ने सोना को पकड़ा था सो छोड़ा तो नही, पर देखने-सुनने से श्राग्रह जैसी बात कोई जान न पड़ी। सोना ने भी अपने को घर- गिरस्ती की चिन्ताओं में इतना फंसा लिया कि सिरोही की सुध लेने का विचार कभी सामने आया ही नहीं !
किसुन चौथे दर्जे से निकलकर पांचवें में आ गया। उसने जीजी की बात को पकड़ा तो, पर बालक का मन एक दिन उलझ ही पड़ा, 'जीजी के पास जाऊंगा ।'
अजीत ने चपरासी के साथ उसे सोना के पास भेज दिया। एक हफ्ता रहकर वह लौट आया । जब आया तो अजीत ने पूछा, 'तेरी जीजी अच्छी तो है ?" 'जी हां मास्टर जी ! और वहां एक छोटी-सी मुन्नी भी थी।'
अजीत सुनकर न जाने कैसा हो गया। उसने जाना सोना के लड़की भी हुई है । फिर सोचा - सोना सुखी है, सो अच्छा है ।
और किसुन कहता रहा, 'बड़ी सुन्दर है और हंसती रहती है' इत्यादि । अजीत भी हंसता रहा, 'और कुछ भी कहा था ?'
'जी हां', जीजी ने कहा है, 'सुन, अब तू यहां मत आना। पढ़ाई का हर्ज होगा ।
सुनकर अजीत सन्न-सा हो गया। अपने एक मात्र भाई को भी भूल जाना चाहती है वह ? ऐसी निर्मम कठोरता को कैसे पाया जा सकता है ? गांव के बालकों पर जो जी-जान से मरती थी वही सोना अपने भाई को देखना भी नहीं चाहती ? मानो अपने अतीत को वह पूर्ण रूप से इस जगती से मिटा डालना चाहती है। पर जानती नहीं, एक दिन उसे भी मिटाकर प्रतीत की पुस्तक में एक पृष्ठ भोर जोड़ देना होगा।
सोचता- सोचता वह अपने श्राप ही समर्थ सा हो प्राया । तभी ग्रागए हरसुख चौधरी ।
'आइए- आइए !' - अजीत बोला ।
चौधरी थाए थे सो बैठ गए और बोले, 'एक बात कहने श्राया था। सुनेंगे आप ?"
चलें ।'
'हां हां, कहिए ?"
'श्राप बनारस ही तो रहते हैं ?"
'हां, किसी दिन रहता था। अब सिरोही में हूं।'
चौधरी खिलखिला पड़े, 'सो तो हैं ही, पर सोचता था श्राप भी क्यों न
'कहां ?'
'बनारस । हमारा तीर्थ होगा और श्राप देश हो आएंगे ।'
अजीत कुछ सोचने लगा। चौधरी के प्रति वह किसी विशेष श्रद्धा से तो नहीं भरा था पर चौधरी अवश्य श्रजीत को देवता मानकर चलते थे, इसीसे कहना पड़ा, 'मैं चलूंगा और किसुन भी ।'
'हां हां, वह भी क्या कहने की बात है।' चौधरी मानो कृतज्ञता से दब से गए ।
इन्हीं दिनों अचानक एक पत्र अजीत को मिला। वह सोना के शहर से श्राया था, लिखा था, 'परसों सोना के पति का स्वर्गवास हो गया !'
न भेजने वाले का नाम था न कुछ दूसरी बात उसमें थी। सोना के धौर था भी कौन जो पत्र लिखता ? पति उसका अपना था सो उसे गंवाकर वह फिर अकेली थी। पत्र में सोना का नाम था सो भजीत ने जान लिया और जानकर खत फाड़कर फेंक दिया। जो होना था सो हो गया, वह प्रजीत के लिए बाधा बन्धन क्यों बने; किसुन को भी उसने कुछ नहीं कहा। वैसे ही बनारस जाने की तैयारी करता रहा ।
हां, तो कल वह जाएगा और जाकर उधर ही कहीं लगने की चेष्टा भी करेगा । यहां लौटकर आने को उसका मन नहीं मान रहा है । उस 'क्यों' को वह स्पष्ट तो नहीं कर पाता पर न लौटने को जी जमता ही जाता है। मार्ग में रुकावट है तो 'सोना' है पर वह यथाशक्ति उसे अपने से दूर ही रखता है। और फिर उसके प्रति अजीत ने ऐसी श्रद्धा पाई है कि मन करने पर भी बुद्धि रास्ता रोक लेती है । किसुन है, वह उसे साथ ले जाएगा और साथ ही रखेगा। स्नेह से भरकर उसने पूछा, 'किसुन, तुम बनारस में पढ़ सकोगे न ?'
'हां, हां ।'
'तब मैं भी रहूंगा।'
अजीत मानो भर-सा गया । अतृप्ति जैसे कहीं छिपी बैठी थी सो मिट चली ।
और तभी किसुन चिल्ला उठा, 'जीजी !'
चौंककर अजीत लौट पड़ा। सोना ही थी वह, सचमुच वही थी। वही स्नेह से परिपूर्ण आंखें, दृढ़ और संयत चेहरा पर कुछ-कुछ दुबली, कुछ-कुछ अपने को भूली-सी, जैसे झंझावात वायु के झपेड़े की चोट से दबी दबी । मानो रूप में जो रस था उससे कुछ-कुछ रीती पर वेदना से भरी भरी। ऐसी ही सोना बालिका को कन्धे से चिपटाए हुए उसी निर्भीकता से वहां आकर खड़ी थी । और अजीत ? जैसे स्थान, भाव, भाषा सब कुछ भूलकर अनन्त धारा में बह चला। वहां ही चला जाता तो क्या था, पर वह तो बार-बार रुककर कह उठता है, 'क्या करूं मैं ? अरे क्या करूं मैं ?'
वहीं खड़ी-खड़ी सोना इतना ही बोली, 'आज फिर मैं श्राश्रय मांगती हूं, क्या दोगे ?'
रग-रग में तिरस्कार जैसे भर चला था । कठोर होकर बोला, 'तुम यहां आने का साहस कैसे कर सकीं ?"
सोना वैसे ही खड़ी रही । बोली, 'साहस ? उसीके सहारे तो आज तक रही हूं। तो भी श्राप डरे क्यों ? दुनिया सूनी नहीं है पर ।'
गला जैसे रुंधने लगा था ।
अजीत बोला नहीं, वह सोचता है, ऐसे आदमी बोलना खूब जानते हैं। फिर भी 'पर' जो था वह स्पष्ट होना ही चाहिए ! इसीसे उसने सप्रश्न सोना की घोर देखा ।
सोना संभलकर बोली, 'पर प्राज मार्ग अवरुद्ध है मास्टर साहब ! रास्ते में मातृत्व की पुकार लिए यह बालिका पड़ी है। सो क्या अनुसनी की जा सकेगी ?'
अजीत की छाती में मानो भूकम्प उठा, 'सोना ! सोना !'
'जा रही हू मैं !' उसने कहा और लौट चली ।
'नही ! नही !'
'क्या कहते हो और ?'
अजीत ने व्यग्र होकर कहा, 'अब नही जा सकोगी तुम..........
उस समय डूबते हुए सूरज की किरणें मानो उसके मुख पर अपने जीवन की कहानी का अन्तिम पृष्ठ लिख रही थीं। उसकी छाती के भीतर भी कुछ विदाई जैसा करुण दृश्य चित्रित हो प्राया था। वह फिर बोला, 'पर सोना, क्या तुम बताओगी उस दिन तुम चली क्यों गई थीं ?' सोना के कन्धे से चिपकी हुई बालिका हिल उठी । स्तब्ध होकर उसने कहा, 'मास्टर साहब''''''
'कहो सोना ।'
सोना ने कहा, 'ग्राप चाहते हैं तो कहूंगी। मैं जान गई थी प्राप भी मुझे अपनी बनाना चाहते थे । जानकर मैं दुखी हुई, पर सोचा पुरुष होकर तुम प्रपने उस स्वभाव को कैसे भूलते ? स्वभाव की प्रबलता मुझपर उसी दिन प्रकट हुई। आप चाहते थे मैं आपकी होती, यह अच्छा ही था । पर मास्टर साहब ! जिसके आश्रय के आवरण के नीचे आकर मैंने प्रनाथा की भांति लाड़-दुलार पाया; जिसकी ओर देखकर मैंने अपने हृदय को ममता से उमड़ते देखा उसी- के''''''''ओह ! उसीके सामने अपना श्रावरण कैसे हटाती ? और फिर
सोना फूट-फूटकर रोने लगी ।
'सोना ! सोना !'....ग्रजीत जैसे पृथ्वी में गड़ चला ।
'अब जाऊं, मास्टर साहब ! श्राप डरें नहीं, श्रात्महत्या नहीं करूंगी। मरना- जीना क्या भी प्राप होता है ? वह तो विधाता की बात है। श्रात्महत्या करना उसकी बात में दखल देना है, सो पाप है ।'
और वह मुड़ चली ।
उसी समय नीचे से चौधरी ने पुकारा, 'मास्टर साहब ! ओ जी मास्टर साहब !'
अजीत के रुंधे प्राण मानो मुक्त हुए। उसने लपककर सोना की लड़की को उठा लिया और दौड़कर नीचे आगया । 'आप मुझे क्षमा करें। मैं न जा सकूंगा। यह देखिये, यह सोना की लड़की है और सोना भी आई है । बेचारी का सोहाग - सिन्दूर फिर मिट गया, सो बाप के घर रहने को लौटी है । देखिए, चौधरी साहब ! कैसी सुन्दर है यह कन्या ? क्या इसे छोड़ते बनेगा ?'