पहली कहानी की तरह इस कहानी की प्रेरणा भी समाज में फैले नाना विध भ्रष्टाचार से मिली। यह किसी एक व्यक्ति की कहानी नही है बल्कि अनेकानेक व्यक्तितो का प्रतिनिधित्व करने वाले एक ठेकेदार की कहानी है। साधारणतः में इतनी तीव्र कहानियां नहीं लिखता। लेकिन इसको में बड़े सहजभाव से लिख गया। कुछ लोगों को यह पहली कहानी से भी अधिक पसन्द आई ।
धीरे-धीरे कहकहों का शोर शांत हो चला और मेहमान एक-एक करके विदा होने लगे । लकदक करती ठेकेदारों की फैशनेबल बीवियां और अपने को अब भी जवान मानने वाली छोटे अफसरों की अधेड़ घरवालियां, सभी ही ही करती, चमकती, इठलाती चली गई, लेकिन रोशनलाल की पत्नी तब तक आई भी नहीं। वह कई बार बीच में से उठकर होटल के बाहर गया । खाते-पीते, बातें करते, उसकी दृष्टि बराबर द्वार की ओर लगी रही पर सन्तोष उसे नहीं दिखाई दी, नहीं दिखाई दी । यह बात नहीं कि सन्तोष को इस पार्टी का पता नहीं था, इसके विपरीत उसने रोशनलाल को कई बार इस पार्टी की याद दिलाई थी । आज सबेरे उसने विशेष रूप से कहा था, 'राजकिशोर शाम को वेन्गर में पार्टी दे रहे हैं। भूलिएगा नहीं ।'
'तुम नहीं चलोगी ?'
'क्यों नहीं चलूंगी, लेकिन आपके साथ न चल सकूंगी ।' 'क्यों ?'
'मुझे अपनी एक सहेली से मिलना है। मैं वहीं श्रा जाऊंगी ।'
और इतने पर भी वह नहीं आई। वह पार्टियों की शौकीन है, विशेषकर होटल में दी गई पार्टी में वह सो काम छोड़कर जाती है। रोशन का मन खट्टा होने लगा । उसे क्रोध भी थाया, पर ऊपर से वह शांत बना रहा। यही नहीं, उसने कहकहे लगाए और जैसा कि पार्टियों में होता है उसने उपस्थित नारियों के बारे में अपनी बेलाग राय भी प्रकट की, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर नुक्ताचीनी की, पर अपनी पत्नी की अनुपस्थिति के बारे में वह किसीका समाधान न कर पाया ।
एक मित्र ने चुटकी लेते हुए कहा, 'रोशन और सन्तोष प्रदर्श दम्पति हैं । एक दूसरे के काम में बिल्कुल दखल नहीं देते ।'
दूसरे बोले, 'देना भी नहीं चाहिए। पति-पत्नी दोनों बराबर के साझीदार हैं ।'
तीसरे ठेकेदार मित्र कुछ गम्भीर थे। कहने लगे, 'यह तो ठीक है लेकिन स्त्री आखिर स्त्री है । उसे ढील चाहे कितनी ही दो पर रस्सी अपने ही हाथ में रखनी चाहिए।'
इसपर एक कहकहा लगा और वही कहकहा रोशन की छाती में शूल की तरह कसक उठा । उस क्षरण आवेग के कारण वह कांपने लगा, मुख तमतमा आया और उसने चाहा कि वह भाग जाए। पर यह सब आंतरिक था । प्रकट में वह भी मुक्त भाव से हंसा और बोला, 'जी नहीं, मैं मदारी नहीं हूं जो बन्दरिया को नचाया करूं ।'
कहकों की आवाज़ और भी तेज हो उठी और उसीके बीच एक महिला ने कहा, 'होशियार रहिए। यह जनतंत्र का युग है। इसमें बन्दरिया मदारी को नचाने लगी है ।'
'कोई अन्तर नहीं । दोनों रस्सी में बंधे हुए हैं और दोनों समझते हैं कि वे एक दूसरे को नचा रहे हैं,' एक और साथी अट्टहास बखेरते हुए बोल उठे । 'बेशक आप ठीक कहते हैं । इसीका नाम विवाह है और विवाह एक ठेका है ।'
वह सज्जन अपना वाक्य पूरा कर पाते कि दूसरी अपेक्षाकृत युवती महिला तीव्रता से बोल उठी, 'खाक है, आप लोगों के ऐसे विचार हैं तभी तो तलाक की जरूरत पड़ी । नारी अब पुरुष की दासी नहीं रह सकती
और वह वहां से उठकर चली गई। जैसे कहकहों को पाला मार गया हो । उस मेज की महफिल फिर नहीं जमी। दूसरी मेजों पर उसी तरह खिलखिलाहउठती रही पर रोशन का मन नहीं लगा। उसने चाहा कि तुरन्त उठकर चला जाए पर शायद सन्तोष अब भी आ जाए, इसी लालच में वह अन्त तक रुका रहा और जब उसने राजकिशोर और उसकी पत्नी श्यामा से विदा ली तो राजकिशोर ने पूछ ही लिया, 'आखिर सन्तोष रही कहां ?"
शायद
रोशन बोला, 'समझ में नहीं आता । श्राने का पक्का वायदा करके गई थी ।
....
श्यामा हंस पड़ी, 'शायद आपको मालूम नहीं । मैंने आज उन्हें साहब के साथ देखा था ।'
'मिस्टर वर्मा के साथ ?'
'जी हां।'
रोशन के मुख की लालिमा सहसा पीली पड़ गई।
राजकिशोर ने मुंह 'ओह, तो यह बात है ।' फिर रोशन से कहा, 'कुछ भी हो। उसे आना चाहिए था। मैं बहुत नाराज । उससे कह देना, समझे ।'
छिपाकर श्यामा की ओर देखा, मुस्कराया मानो कहता हो
रोशन ने किसी तरह हंसते हुए कहा, 'कह दूंगा जनाब ।'
और वह एक झटके के साथ अपने को तुड़ाकर वहां से नीचे उतर गया । उसीके साथ राजकिशोर और श्यामा की शरारत भरी हंसी भी उतरी। श्रगर वह सुन पाता तो श्यामा कह रही थी, 'सन्तोष मुझे पराजित करना चाहती है। पर।'
लेकिन रोशन कुछ भी सुनने की स्थिति में न था । उसका तन-मन झुलस रहा था और आवेश के कारण पैर डगमगा रहे थे । क्रोध के कारण या ग्लानि के, कुछ पता नहीं । पर वह विचारों के तूफान में फंस गया था। उन्हींमें उलझ उलझकर उसकी बुद्धि बार-बार लड़खड़ा पड़ती थी- 'वह क्यों नहीं आई । श्राखिर क्यों ? क्या वह सचमुच वर्मा के साथ थी ? सचमुच लेकिन उसने मुझसे क्यों नहीं कहा ? मुझसे क्यों छिपाया ? क्यों, आाखिर क्यों ? उसका इतना साहस कैसे हुआ ? कैसे...'
अन्तिम वाक्य उसने इतने जोर से कहा कि वह स्वयं चौंक पड़ा । श्रास- पास वाले व्यक्ति उसे अचरज से देखने लगे, पर दूसरे ही क्षरण वह फिर तूफान में खो गया । वह जानता है कि सन्तोष बड़ी सामाजिक है। खूब मिलती-जुलती है। सरकारी विभागों के प्रमुख कर्मचारियों से उसकी काफी रब्त जब्त है । इस- का प्रारम्भ उसीने तो कराया था। नहीं तो वह इतनी लजीली थी कि उसके सामने भी नयन नहीं उठाती थी।
...
वह कांप उठा। एक के बाद एक सिहरन तरंग की भांति एड़ी से उठती और उसे मस्तिष्क तक झनझना देती । वह फुसफुसाया - इस सामाजिकता से उन्हें कितना लाभ हुआ है लेकिन सन्तोष उससे छिपकर कभी किसीसे नहीं मिलती। कभी उससे कुछ नहीं छिपाती । कभी उससे दूर नहीं जाती। हां, कभी उससे दूर नहीं जाती। जो कुछ करती है, उसके कहने से करती है। संतोष उसीकी है । सन्तोष रोशन की है।
'नहीं, नहीं, वह चीख उठा, 'राजकिशोर मुस्करा रहा था। उसकी मुस्कराहट का साफ यही मतलब था कि सन्तोष मेरी चिन्ता नहीं करती । मुझसे छिपकर अफसरों से मिलती है। मुझे धोखा देती है, चराती है, हरजाई है ।'
वह तेजी से दौड़ने लगा । उसके हाथ कुलमुलाने लगे। वह किसीका गला घोंटने को श्रातुर हो उठा। उसने न तांगे वालों की पुकार पर ध्यान दिया न बस के अड्डे पर रुका। अभी गर्मी नहीं आई थी। मार्च की संध्या हल्की-हल्की शीतलता से महकती आ रही थी पर वह पसीने से तर था। घर न जाकर वह यंत्र की भांति मथुरा रोड की ओर मुड़ गया। अभी वहां कुछ हरियाली शेष थी। रेल का पुल पार करके वह उत्तर की ओर बढ़ा। उधर बंगले थे । कुछ ही देर में वह वहां पहुंच गया जहां मिस्टर वर्मा रहते थे। पास ठिठका पर वहां सर्वत्र मौन था । सब कुछ स्तब्ध था। रात्रि के शीतल श्रावरण में प्रवेश करता जा रहा था। तनाव ढीला पड़ा। वह फुसफुसाया, 'नहीं, यहां नहीं ।'
वह उनके बंगले के समूचा वातावरण उसकी शिराओं का
लेकिन दूसरे ही क्षण वह फिर दौड़ने लगा। उस स्तब्धता में उसके अपने पैरों की पदचाप उसे कंपाने लगी। जलाशय के किनारे दूर-दूर तक फैली हरी घास पर दो-चार रोमान्टिक मूर्तियां मुक्त वातावरण का श्रानन्द ले रही थीं। उसका दिल धुकधुकाया और वह उनके पास से होकर सर्र से निकल गया ।
वह फिर रेस्तरां और फैशनेबल सामान वाले बाजार की ओर मुड़ गया मौर कुछ देर बाद विचारों के तूफानों के थपेड़े खाता हुआ शानदार रेस्तरां के सामने आकर रुक गया। वह अपने को बटोरने के लिए कुछ पीना चाहता था पर जैसे ही द्वारपाल ने उसके लिए किवाड़ खोले और वह अन्दर दाखिल वह लड़खड़ाकर पीछे हट गया— सामने सन्तोष और वर्मा बैठे हैं। दोनों मुस्करा रहे हैं। दोनों।
वह एकाएक हांफने लगा । गिरते-गिरते बचा और फिर द्वारपाल को चौंकाता हुआ तेजी से एक ओर चला गया। भागने लगा। भागता गया, भागता गया। तब तक भागता ही गया जब तक उसका घर नहीं आ गया। रोशनी जल रही थी। दोनों बच्चे सो गए थे पर नोकर ऊंघ रहा था। उसने किसी श्रोर ध्यान नहीं दिया। सीधा अपने पलंग पर जाकर गिर पड़ा। बहुत देर तक पड़ा रहा। वह न सोच सकता था, न अपना कोई अंग हिला सकता था । वह तब हर दृष्टि से मानो मर चुका था.....
लेकिन सहसा उसके प्रारण लौट आए। वह उठकर बैठ गया। उसने निश्चय किया कि वह श्राज सन्तोष को मार डालेगा, हां, मार डालेगा। जान से मार डालेगा । उसने उसे पार्टी में अपमानित करवाया। मित्रों ने उसपर फब्तियां कसीं । उसे देखकर राज मुस्कराया और श्यामा ने चुटकी ली। श्यामा ने, श्यामा जो वह सन्तोष को मार डालेगा । जरूर मार डालेगा...
कि सहसा किवाड़ खुले और सन्तोष द्वार पर दिखाई दी। वह मुस्करा रही थी और उसके मंदिर नयनों से सुरा जैसे छलकी पड़ती थी। उसने आगे बढ़ते हुए कहा, 'हलो डार्लिंग, तुमने रेस्तरां का दरवाजा खोला और फिर चले श्राए । शायद तुमने हमें देखा नहीं। सामने ही तो थे । मिस्टर वर्मा भी थे... रोशन चीख उठा, 'निर्लज्ज ! मैं तुम्हें मार डालूंगा !'
सन्तोष ने चौंककर उसे देखा, 'यह क्या कह रहे हो ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है ? अरे, तुम तो कांप रहे हो ? मैं पार्टी में न आ सकी शायद इसीलिए
रोशन उठकर खड़ा हो चुका था और सन्तोष की ओर बढ़ रहा था। उस की श्रांखें जल रही थीं। उसके मुख पर हिंसा उभर श्राई थी। उसके हाथ अकड़ रहे थे, पर सन्तोष ने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया। बोलती रही, 'मैंने पार्टी ने का बहुत प्रयत्न किया। मैं वहां आना ही चाहती थी पर मैं श्यामा को नीचा दिखाना चाहती थी ।'
रोशन और भागे बढ़ा । उसका मुंह और विकृत हुआ । हाथ ऐंठे...
लेकिन संतोष ने फिर भी कुछ ध्यान नहीं दिया । बोलते-बोलते वह रोशन के पास आई और उसके कंधे पर हाथ रख दिया। फिर नयन उठाकर उसकी प्रांखों में झांका। रोशन का शरीर एकाएक झनझनाया पर उसने कड़ककर पूछा, 'तुम कहां थीं? मैं पूछता हूं तुम कहां थीं ।'
संतोष निस्संकोच बोली, 'तुम्हें क्रोध श्रा रहा है। माना ही चाहिए, पर मैं क्या करूं ? श्यामा ने वर्मा को तभी छोड़ा जब पार्टी का समय हो गया । वह उसे वहां ले जाना चाहती थी। वह ठेका लगभग प्राप्त कर चुकी थी।'
रोशन फिर कांपा पर अब उसका कारण दूसरा था। उसने तेजी से गरदन को झटका दिया और संतोष को देखा, बोला, 'क्या कहती हो ?' 'यही कि मैं वर्मा के साथ न रहती तो वह ठेका
जाता ।'
'राजकिशोर को मिल जाता ? मैंने तो सुना है वह उसे मिल चुका है । उसकी बड़ी पहुंच है। श्यामा।'
सन्तोष व्यंग्य से चीख उठी, 'तुमने गलत सुना है । श्यामा कुछ नहीं कर सकती । ठेका राजकिशोर को नहीं मिला । ''
'तो किसको मिला...?'
सन्तोष के हाथ में एक लिफाफा था, उसीको उसने रोशन की घोर तेजी से फेंका, 'यह देखो।'
'सन्तोष ।' स्तब्ध रोशन चीख उठा। वह सब कुछ भूल गया। उसका सब संघर्ष निमिषमात्र में घुल-पुछ गया । उसने लपककर लिफाफा खोला."
सन्तोष शरारत से हंसी, बोली, 'सरकारी पत्र कल तुम्हारे पास ग्रा जाएगा और परसों हम वेनगर में एक शानदार पार्टी देंगे। एक बहुत शानदार पार्टी....
रोशन तब तक उस पत्र को पढ़ चुका था । उसने कांपते हुए, चीखते हुए सन्तोष को बांहों में भर लिया और बार-बार कहने लगा, 'संतोष, तुम कितनी अच्छी हो, कितनी बड़ी हो । श्रोह मैं तुम्हारे लिए क्या करूं ? क्या करूं?' सन्तोष बोली, 'कुछ नहीं डार्लिंग, मैं पिक्चर जा रही हूं। मेरा इन्तजार न करना । सो जाना ।'