मेरी प्यारी सी बच्ची,
पहले बसंत की प्रतीक्षा में,
लेटी हुई एक खाट पर
मेरे घर के आँगन में।
प्रकृति की पवित्र प्रतिकृति
एकदम शान्त, एकदम निर्दोष
अवतरित मेरे घर
परमात्मा की अनुपम कृति।
देखती टुकुर-टुकुर
कभी इधर, कभी उधर,
निगहबानी में है सब
कौन कब गया किधर,
हाथों को, पैरो को
जोर से पटकती है,
मेरी प्यारी सी बच्ची
आनंद की अतिरेकता में।
सभी के चेहरों को
अच्छे से परखती है,
आप के हँसते ही
मुस्कान त्वरित बिखेरती है,
मेरी प्यारी सी बच्ची।
देखती है- भाई के
आने को, जाने को
उठकर दो पग चलने को
शायद वो मचलती है,
मेरी प्यारी सी बच्ची।
हो जायेगी शनैः शनैः
थोड़ी बड़ी फिर और बड़ी
बैठेगी, रेंगेगी और
हो जाएगी खड़ी,
मेरी प्यारी सी बच्ची।
भाई को पकड़ने को
फिर वो दौड़ेगी,
घर के किसी सामान का
अध्ययन नहीं छोड़ेगी,
पढ़ेगी, बढ़ेगी
होगी पैरों पर खड़ी,
ऐसी होगी बेटी मेरी
दूर रहेगी छड़ी,
मेरी प्यारी सी बच्ची।
घर फिर भी ये मगर
वो सराय ही पायेगी
दिन दो-चार बिता
पी के घर जायेगी,
सारी उम्र का वहाँ
आशियाँ बसाएगी,
लडकियाँ उस रोज़ को
सबसे अधिक खलती हैं
मेरी प्यारी सी बच्ची।
अनुमति लेकर आएगी
आदेश पर जाएगी,
फिर भी घर भर की आँखों के
मोती बन बसती है,
मेरी प्यारी सी बच्ची।
इस तरह हर बार फिर
बिदा बेला आएगी,
आते वक़्त हँसाएगी
जाते वक़्त रुलाएगी,
ऐसे ही बिदा के पलों से
दुनिया डरती है,
मेरी प्यारी सी बच्ची।
(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”