बलिदानी सिपाही
शूल सी चुभती हृदय में
उस शिशु की चीत्कार है,
जनक जिसका है सिपाही,
करता वतन से प्यार है ।
जो अपनी मातृभूमि के सदके
जान अपनी कर गया,
श्रृंगार-रत नवयौवना को
श्वेत वसन दे गया;
वतन की मिट्टी की खातिर
जिसने गोली खाई है,
देश की माटी की इज्ज़त
लुटने से जिसने बचाई है;
इज्ज़त लुटे न बहन की,
सौगंध जिसने खाई है,
उस बहन रुपी वतन का भाई
जांबाज़ एक सिपाही है ।
ध्येय जिसका प्रतिशोध हो,
उद्देश्य जिसका हो अमन,
उस सच्चे सपूत को मन
आज करता है नमन ।
उस दिव्यात्मा के स्वप्न को
करना हमें साकार है,
गर धुल में रिपु न मिले तो
जीने से हमें धिक्कार है ।
लहू से दुश्मन के है धोना
वेवा के दुर्भाग्य को ,
अरि की हड्डी का खिलौना करेगा
शांत शिशु की चीत्कार को ।
आओ प्रण लें आज हम उस
शहीद की मज़ार पर,
चैन से सोयेंगे न तब तक, है-
जब-तक, रिपु एक भी ज़िन्दा द्वार पर ।