*भक्त के जीवन में दो ही शब्द हैं*
और सारा जीवन उन्हे इन दो शब्दों के बीच में बिताना चाहिए।
एक है *"हरि कृपा"*।
और
दूसरा है *"हरि इच्छा"*।
यदि अपने मन के अनुकूल है तो समझ लीजिए कि *"हरि-कृपा"*
और
जब मन के अनुकूल न हो तो *"हरि-इच्छा"*
*कितनी बढ़िया बात है ना मित्रों*
*हरि - कृपा* माने... ?
हमारी जो इच्छा है उसे उन्होने पूरा कर दिया।
और *हरि - इच्छा*...?
माने उनकी जो इच्छा हुई वह उन्होंने किया।
तो चाहे हमारी *इच्छा* वे पूरी करें
या चाहे अपनी *इच्छा* हमसे पूरी करावें ,
चाहे *"आत्मा"* की इच्छा पूरी हो,
चाहे *"परमात्मा"* की इच्छा पूरी हो ।
हमारे जीवन में कोई *"द्धन्द"* नही होना चाहिए क्योकि हमारे , *"परमात्मा"* तो सदैव ही हमारा भला ही चाहते हैं..!!