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बुर्क़े

24 अप्रैल 2022

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ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उसने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का जिसमें अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है।


वो कॉलिज से ख़ुश ख़ुश वापस आया कि थर्ड ईयर में ये उसका पहला दिन था। जूंही वो अपने घर में दाख़िल होने लगा, उसने एक बुर्क़ापोश लड़की देखी जो टांगे में से उतर रही थी। उसने टांगे में से उतरती हुई हज़ारहा लड़कियां देखी थीं, मगर वो लड़की जिसके हाथ में चंद किताबें थीं, सीधी उसके दिल में उतर गई।


लड़की ने टांगे वाले को किराया अदा किया और ज़हीर के साथ वाले मकान में चली गई। ज़हीर ने सोचना शुरू कर दिया कि इतनी देर वो उसकी मौजूदगी से ग़ाफ़िल कैसे रहा?


असल में ज़हीर आवारा मनिश नौजवान नहीं था, उसको सिर्फ़ अपनी ज़ात से दिलचस्पी थी। सुबह उठे, कॉलिज गए, लेक्चर सुने, घर वापस आए, खाना खाया, थोड़ी देर आराम किया और आमोख़्ता दुहराने में मसरूफ़ हो गए।


यूं तो कॉलिज में कई लड़कियां थीं, उसकी हम-जमाअत, मगर ज़हीर ने कभी उनसे बातचीत नहीं की थी। ये नहीं कि वो बड़ा रुखा-फीका इंसान था। असल में वो हर वक़्त अपनी पढ़ाई में मशग़ूल रहता था। मगर उस रोज़ जब उसने उस लड़की को टांगे पर से उतरते देखा तो वो पॉलीटिकल साईंस का ताज़ा सबक़ बिल्कुल भूल गया। ख़्वाजा हाफ़िज़ के तमाम नए अशआर के मआनी उसके ज़ेहन से फिसल गए और वो उन हाथों के मुतअल्लिक़ सोचने लगा जिनमें किताबें थीं... पतली-पतली सफ़ेद उंगलियां, एक उंगली में अँगूठी, दूसरा हाथ जिसने टांगे वाले को किराया अदा क्या वो भी वैसा ही ख़ूबसूरत था।


ज़हीर ने उसकी शक्ल देखने की कोशिश की, मगर नक़ाब इतनी मोटी थी कि उसे कुछ दिखाई न दिया। लड़की तेज़ तेज़ क़दम उठाती, उसके साथ वाले मकान में दाख़िल हो गई और ज़हीर खड़ा देर तक सोचता रहा कि इतना कम फ़ासिला होने के बावजूद वो क्यों उसकी मौजूदगी से ग़ाफ़िल रहा।


अपने घर में जा कर उसने पहला सवाल अपनी माँ से ये किया, “हमारे पड़ोस में कौन रहते हैं?”


उसकी माँ के लिए ये सवाल बहुत तअज्जुबख़ेज़ था, “क्यों?”


“मैंने ऐसे ही पूछा है।”


उसकी माँ ने कहा, “मुहाजिर हैं, हमारी तरह।”


ज़हीर ने पूछा, “कौन हैं, क्या करते हैं?”


माँ ने जवाब दिया, “बाप बेचारों का मर चुका है... माँ थी, वो उम्र के हाथों माज़ूर थी। अब तीन बहनें और एक भाई है, भाई सब से बड़ा है। वही बाप समझो, वही माँ... बहुत अच्छा लड़का है। उसने अपनी शादी भी इसलिए नहीं की कि इतना बोझ उसके काँधों पर है!”


ज़हीर को तीन बहनों के इस बोझ से कोई दिलचस्पी नहीं थी जो उसके इकलौते भाई के काँधों पर था। वो सिर्फ़ उस लड़की के बारे में जानना चाहता था जो हाथ में किताबें लिए साथ वाले घर में दाख़िल हुई थी, ये तो ज़ाहिर था कि वो उन तीन बहनों में से एक थी।


खाने से फ़ारिग़ हो कर वो पंखे के नीचे लेट गया। उसकी आदत थी कि वो गर्मियों में खाने के बाद एक घंटे तक ज़रूर सोया करता था। मगर उस रोज़ उसे नींद न आई। वो उस लड़की के मुतअल्लिक़ सोचता रहा जो उसके पड़ोस में रहती थी।


कई दिन गुज़र गए, मगर उनकी मुडभेड़ न हुई। कॉलिज से आ कर उसने सैकड़ों मर्तबा कोठे पर घंटों धूप में खड़े रह कर उसकी आमद का इंतिज़ार किया। मगर वो न आई... ज़हीर मायूस हो गया। वो बहुत जल्द मायूस हो जाने वाला आदमी था। उसने सोचा कि ये सब बेकार है। मगर इश्क़ कहता था कि ये बेकारी ही सबसे बड़ी चीज़ है। इश्क़ में सबसे पहले आशिक़ को इस चीज़ से वास्ता पड़ता है, जो घबराया, वो गया।


चुनांचे ज़हीर ने अपने दिल में अह्द कर लिया कि पहाड़ भी टूट पड़ें तो वो घबराएगा नहीं, अपने इश्क़ में साबित क़दम रहेगा।


बहुत दिनों के बाद जब वो साईकल पर कॉलिज से वापस आ रहा था, उसने अपने आगे एक टांगा देखा, जिसमें एक बुर्क़ापोश लड़की बैठी थी। उसका क़ियास बिल्कुल दुरुस्त निकला, क्योंकि ये वही लड़की थी, टांगा रुका... ज़हीर साईकल पर से उतर पड़ा। लड़की के एक हाथ में किताबें थीं, दूसरे हाथ से उसने टांगे वाले को किराया अदा किया और चल पड़ी। मगर टांगे वाला पुकारा, “ए बीबी जी, ये क्या दिया तुमने?”


उसके लहजे में बदतमीज़ी थी... लड़की रुकी, पलट कर उसने टांगे वाले को अपने बुर्के की नक़ाब में से देखा, “क्यों, क्या बात है?”


टांगे वाला नीचे उतर आया और हथेली पर अठन्नी दिखा कर कहने लगा, “ये आठ आने नहीं चलेंगे।”


लड़की ने महीन लर्ज़ां आवाज़ में कहा, “मैं हमेशा आठ आने ही दिया करती हूँ।”


टांगे वाला बड़ा वाहियात क़िस्म का आदमी था, बोला, “वो आपसे रिआयत करते होंगे... मग...”


ये सुन कर ज़हीर को तैश आ गया, साईकल छोड़ कर आगे बढ़ा, आओ देखा न ताव, एक मुक्का टांगे वाले की थोड़ी के नीचे जमा दिया, वो अभी सँभला भी नहीं था कि एक और उसकी दाहिनी कनपटी पर इस ज़ोर का कि वो बिलबिला उठा।


इसके बाद ज़हीर उस लड़की से जो ज़ाहिर है कि घबरा गई थी, मुख़ातिब हुआ, “आप तशरीफ़ ले जाइए, मैं इस हरामज़ादे से निबट लूंगा।”


लड़की ने कुछ कहना चाहा, शायद शुक्रिए के अल्फ़ाज़ थे जो उसकी ज़बान की नोक पर आ कर वापस चले गए। वो चली गई... दस क़दम ही तो थे, मगर ज़हीर को पूरे बीस मिनट इस टांगे वाले से निबटने में लगे। वो बड़ा ही लीचड़ क़िस्म का टांगे वाला था।


ज़हीर बहुत ख़ुश था कि उसने अपनी महबूबा के सामने बड़ी बहादुरी का मुज़ाहरा किया। उसने टांगे वाले को ख़ूब पीटा था और उसने ये भी देखा था कि वो बुर्क़ापोश लड़की अपने घर से, चिक़ लगी खिड़की के पीछे से उसको देख रही है। ये देख कर ज़हीर ने दो घूंसे और उस कोचवान की थोड़ी के नीचे जमा दिए थे।


इसके बाद ज़हीर सर से पैर तक उस बुर्क़ापोश की मोहब्बत में गिरफ़्तार हो गया। उसने अपनी वालिदा से मज़ीद इस्तिफ़सार किया तो उसे मालूम हुआ कि उस लड़की का नाम यासमीन है। तीन बहनें हैं, बाप इनका मर चुका है, माँ ज़िंदा है, मामूली सी जायदाद है जिसके किराए पर इन सब का गुज़ारा हो रहा है।


ज़हीर को अब अपनी माशूक़ा का नाम मालूम हो चुका था। चुनांचे उसने यासमीन के नाम कई ख़त कॉलिज में बैठ कर लिखे, मगर फाड़ डाले। लेकिन एक रोज़ उसने एक तवील ख़त लिखा और तहय्या कर लिया कि वो उस तक ज़रूर पहुंचा देगा।


बहुत दिनों के बाद जब कि ज़हीर साईकल पर कॉलिज से वापस आ रहा था उसने यासमीन को टांगे में देखा। वो उतर कर जा रही थी, लपक कर वो आगे बढ़ा, जेब से ख़त निकाला और हिम्मत और जुर्रत से काम ले कर उसने काग़ज़ उसकी तरफ़ बढ़ा दिए, “ये आपके कुछ काग़ज़ टांगे में रह गए थे।”


यासमीन ने वो काग़ज़ ले लिये, नक़ाब का कपड़ा सरसराया, “शुक्रिया!”


ये कह कर वह चली गई। ज़हीर ने इत्मिनान का सांस लिया लेकिन उसका दिल धक-धक कर रहा था। इसलिए कि उसे मालूम नहीं था कि उसके ख़त का क्या हश्र होने वाला है, वो अभी इस हश्र के मुतअल्लिक़ सोच ही रहा था कि एक और टांगा उसकी साईकल के पास रुका। उसमें से एक बुर्क़ापोश लड़की उतरी, उसने टांगे वाले को किराया अदा किया। ये हाथ जिससे किराया अदा किया गया था, वैसा ही था, जैसा उस लड़की का था, जिसको पहली मर्तबा ज़हीर ने देखा था।


किराया अदा करने के बाद, ये लड़की उस मकान में चली गई जहां यासमीन गई थी। ज़हीर सोचता रह गया लेकिन उसको मालूम था कि तीन बहनें हैं। हो सकता है कि ये लड़की यासमीन की छोटी बहन हो।


ख़त दे कर ज़हीर ने ये समझा था कि आधा मैदान मार लिया है, पर जब दूसरे रोज़ उसे कॉलिज जाते वक़्त एक छोटे से लड़के ने काग़ज़ का एक पुर्ज़ा दिया तो उसे यक़ीन हो गया कि पूरा मैदान मार लिया गया है। लिखा था,


“आपका मोहब्बतनामा मिला, जिन जज़्बात का इज़हार आपने किया है, उसके मुतअल्लिक़ मैं आप से क्या कहूं... मैं... मैं... मैं इससे आगे कुछ नहीं कह सकती, मुझे अपनी लौंडी समझिए।”


ये रुक्क़ा पढ़ कर ज़हीर की बाछें खिल गईं, कॉलिज में कोई पीरियड अटेन्ड न किया। बस सारा वक़्त बाग़ में घूमता और उस रुक्क़े को पढ़ता रहा।


दो दिन गुज़र गए, मगर यासमीन की मुडभेड़ न हुई। उसको बहुत कोफ़्त हो रही थी। इसलिए कि उसने एक लंबा-चौड़ा मोहब्बत भरा ख़त लिख दिया था और वो चाहता था कि जल्द-अज़-जल्द उस तक पहुंचा दे।


तीसरे रोज़ आख़िर कार वो ज़हीर को टांगे में नज़र आई। जब वो किराया अदा कर रही थी, साईकल एक तरफ़ गिरा कर वो आगे बढ़ा, और यासमीन का हाथ पकड़ लिया, “हुज़ूर! ये आपके चंद काग़ज़ात टांगे में रह गए थे!”


यासमीन ने एक ग़ुस्से से भरे हुए झटके के साथ अपना हाथ छुड़ाया और तेज़ लहजे में कहा,“बदतमीज़ कहीं के, शर्म नहीं आती तुम्हें?”


ये कह कर वो चली गई और ज़हीर के मोहब्बत भरे ख़त के काग़ज़ सड़क पर फड़फड़ाने लगे। वो सख़्त हैरतज़दा था कि वो लड़की जिसने ये कहा था कि मुझे अपनी लौंडी समझिए, इतनी रऊनत से क्यों पेश आई है। लेकिन फिर उसने सोचा कि शायद ये भी अंदाज़-ए-दिलरुबा है।


दिन गुज़रते गए, मगर ज़हीर के दिल-ओ-दिमाग़ में यासमीन के ये अल्फ़ाज़ हर वक़्त गूंजते रहते थे, “बदतमीज़ कहीं के, शर्म नहीं आती तुम्हें...” लेकिन इसके साथ ही उसे उस रुक्क़े के अल्फ़ाज़ याद आते जिसमें ये लिखा था, “मुझे अपनी लौंडी समझिए।”


ज़हीर ने इस दौरान में कई ख़त लिखे और फाड़ डाले, वो चाहता था कि मुनासिब-ओ-मौज़ूं अल्फ़ाज़ में यासमीन से कहे कि उसने बदतमीज़ कह कर उसकी और उसकी मोहब्बत की तौहीन की है। मगर उसे ऐसे अल्फ़ाज़ नहीं मिलते थे। वो ख़त लिखता था, मगर जब उसे पढ़ता तो उसे महसूस होता कि दुरुस्त है।


एक दिन जब कि वो बाहर सड़क पर अपनी साईकल के अगले पहिए में हवा भर रहा था। एक लड़का आया और उसके हाथ में एक लिफ़ाफ़ा दे कर भाग गया। हवा भरने का पंप एक तरफ़ रख कर उसने लिफ़ाफ़ा खोला, एक छोटा सा रुक्क़ा था जिसमें ये चंद सतरें मर्क़ूम थीं,


“आप इतनी जल्दी मुझे भूल गए... मोहब्बत के इतने बड़े दावे करने की ज़रूरत ही क्या थी, ख़ैर आप भूल जाएं तो भूल जाएं... आपकी कनीज़ आपको कभी भूल नहीं सकती।”


ज़हीर चकरा गया। उसने ये रुक्क़ा बार बार पढ़ा। सामने देखा तो यासमीन टांगे में सवार हो रही थी। साईकल वहीं लिटा कर वो उसकी तरफ़ भागा।


टांगा चलने ही वाला था कि उसने पास पहुंच कर यासमीन से कहा,“तुम्हारा रुका मिला है... ख़ुदा के लिए तुम अपने को कनीज़ और लौंडी न कहा करो, मुझे बहुत दुख होता है।”


यासमीन के बुर्के की नक़ाब उछली। बड़े ग़ुस्से से उसने ज़हीर से कहा, “बदतमीज़ कहीं के, तुम्हें शर्म नहीं आती। मैं आज ही तुम्हारी माँ से कहूँगी कि तुम मुझे छेड़ते हो।”


टांगा चल ही रहा था... थोड़ी देर में निगाहों से ओझल हो गया। ज़हीर रुक्क़ा हाथ में पकड़े सोचता रह गया कि ये मुआमला क्या है? मगर फिर उसे ख़याल आया कि मा’शूक़ों का रवैय्या कुछ इस क़िस्म का होता है, वो सर-ए-बाज़ार इस क़िस्म के मुज़ाहिरों को पसंद नहीं करते। ख़त-ओ-किताबत के ज़रिये ही से, तरीक़ा है सारी बातें तय हो जाया करती हैं।


चुनांचे उसने दूसरे रोज़ एक तवील ख़त लिखा और जब वो कॉलिज से वापस आ रहा था, टांगे में यासमीन को देखा, वो उतर कर किराया अदा कर चुकी थी और घर की जानिब जा रही थी, ख़त उसके हाथ में दे दिया। उसने कोई एहतिजाज न किया। एक नज़र उसने अपने बुर्के की नक़ाब में से ज़हीर की तरफ़ देखा और चली गई।


ज़हीर ने महसूस किया था कि वो अपनी नक़ाब के अंदर मुस्कुरा रही थी और ये बड़ी हौसला-अफ़्ज़ा बात थी। चुनांचे दूसरे रोज़ सुबह जब वो साईकल निकाल कर कॉलिज जाने की तैयारी कर रहा था, उसने यासमीन को देखा। शायद वो टांगे वाले का इंतिज़ार कर रही थी।दाहिने हाथ में किताबें पकड़े थी, बायां हाथ झूल रहा था।


मैदान ख़ाली था, यानी उस वक़्त बाज़ार में कोई आमद-ओ-रफ़्त न थी। ज़हीर ने मौक़ा ग़नीमत जाना, जुर्रत से काम ले कर उसके पास पहुंचा और उसका हाथ जो कि झूल रहा था, पकड़ लिया और बड़े रूमानी अंदाज़ में उससे कहा, “तुम भी अजीब लड़की हो, ख़तों में मोहब्बत का इज़हार करती हो और बात करें तो गालियां देती हो।”


ज़हीर ने बमुश्किल ये अल्फ़ाज़ ख़त्म किए होंगे कि यासमीन ने अपनी सैंडल उतार कर उसके सर पर धड़ाधड़ मारना शुरू कर दी।


ज़हीर बौखला गया... यासमीन ने उसको बेशुमार गालियां दीं। मगर वो बौखलाहट के बाइस सुन न सका। इस ख़्याल से कि कोई देख न ले, वो फ़ौरन अपने घर की तरफ़ पलटा। साईकल उठाई और क़रीब था कि अपनी किताबें वग़ैरा स्टैंड के साथ जमा कर कॉलिज का रुख़ करे कि टांगा आया। यासमीन उसमें बैठी और चली गई। ज़हीर ने इत्मिनान का सांस लिया।


इतने में एक और बुर्क़ापोश लड़की नमूदार हुई, उसी घर में से जिसमें से यासमीन निकली थी। उसने ज़हीर की तरफ़ देखा और उसको हाथ से इशारा किया, मगर ज़हीर डरा हुआ था। जब लड़की ने देखा कि ज़हीर ने उसका इशारा नहीं समझा तो वो उससे क़रीब हो के गुज़री और एक रुक्क़ा गिरा कर चली गई।


ज़हीर ने काग़ज़ का वो पुरज़ा उठाया, उस पर लिखा था,


“तुम कब तक मुझे यूं ही बेवक़ूफ़ बनाते रहोगे? तुम्हारी माँ मेरी माँ से क्यों नहीं मिलतीं। आज प्लाज़ा सिनेमा पर मिलो। पहला शो, तीन बजे। 

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“पापों की गठड़ी” की शूटिंग तमाम शब होती रही थी, रात के थके-मांदे ऐक्टर लकड़ी के कमरे में जो कंपनी के विलेन ने अपने मेकअप के लिए ख़ासतौर पर तैयार कराया था और जिसमें फ़ुर्सत के वक़्त सब ऐक्टर और ऐक्ट्रसें

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अल्लाह दत्ता

24 अप्रैल 2022
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दो भाई थे। अल्लाह रक्खा और अल्लाह दत्ता। दोनों रियासत पटियाला के बाशिंदे थे। उनके आबा-ओ-अजदाद अलबत्ता लाहौर के थे मगर जब इन दो भाईयों का दादा मुलाज़मत की तलाश में पटियाला आया तो वहीं का हो रहा। अल

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झुमके

24 अप्रैल 2022
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सुनार की उंगलियां झुमकों को ब्रश से पॉलिश कर रही हैं। झुमके चमकने लगते हैं, सुनार के पास ही एक आदमी बैठा है, झुमकों की चमक देख कर उसकी आँखें तमतमा उठती हैं। बड़ी बेताबी से वो अपने हाथ उन झुमकों की तर

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गुरमुख सिंह की वसीयत

24 अप्रैल 2022
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पहले छुरा भोंकने की इक्का दुक्का वारदात होती थीं, अब दोनों फ़रीक़ों में बाक़ायदा लड़ाई की ख़बरें आने लगी जिनमें चाक़ू-छुरियों के इलावा कृपाणें, तलवारें और बंदूक़ें आम इस्तेमाल की जाती थीं। कभी-कभी देसी

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इश्क़िया कहानी

24 अप्रैल 2022
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मेरे मुतअ’ल्लिक़ आम लोगों को ये शिकायत है कि मैं इ’श्क़िया कहानियां नहीं लिखता। मेरे अफ़सानों में चूँकि इ’श्क़-ओ-मोहब्बत की चाश्नी नहीं होती, इसलिए वो बिल्कुल सपाट होते हैं। मैं अब ये इ’श्क़िया कहानी लि

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बाबू गोपीनाथ

24 अप्रैल 2022
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बाबू गोपीनाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हुई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावार पर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सेनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था।

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मोज़ेल

24 अप्रैल 2022
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त्रिलोचन ने पहली मर्तबा... चार बरसों में पहली मर्तबा रात को आसमान देखा था और वो भी इसलिए कि उसकी तबीयत सख़्त घबराई हुई थी और वो महज़ खुली हवा में कुछ देर सोचने के लिए अडवानी चैंबर्ज़ के टेरिस पर चला आ

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एक ज़ाहिदा, एक फ़ाहिशा

24 अप्रैल 2022
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जावेद मसऊद से मेरा इतना गहरा दोस्ताना था कि मैं एक क़दम भी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उठा नहीं सकता था। वो मुझ पर निसार था मैं उस पर। हम हर रोज़ क़रीब-क़रीब दस-बारह घंटे साथ साथ रहते। वो अपने रिश्तेदारों स

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बुर्क़े

24 अप्रैल 2022
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ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उसने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का जिसमें अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है। वो कॉलिज से ख़ुश ख़ुश वापस आया कि थर्ड

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आँखें

24 अप्रैल 2022
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ये आँखें बिल्कुल ऐसी ही थीं जैसे अंधेरी रात में मोटर कार की हेडलाइट्स जिनको आदमी सब से पहले देखता है। आप ये न समझिएगा कि वो बहुत ख़ूबसूरत आँखें थीं, हरगिज़ नहीं। मैं ख़ूबसूरती और बदसूरती में तमीज़ क

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अनार कली

24 अप्रैल 2022
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नाम उसका सलीम था मगर उसके यार-दोस्त उसे शहज़ादा सलीम कहते थे। ग़ालिबन इसलिए कि उसके ख़द-ओ-ख़ाल मुग़लई थे, ख़ूबसूरत था। चाल ढ़ाल से रऊनत टपकती थी। उसका बाप पी.डब्ल्यू.डी. के दफ़्तर में मुलाज़िम था। तन

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टेटवाल का कुत्ता

24 अप्रैल 2022
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कई दिन से तरफ़ैन अपने अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस बारह फ़ायर किए जाते जिनकी आवाज़ के साथ कोई इंसानी चीख़ बुलंद नहीं होती थी। मौसम बहुत ख़ुशगवार था। हवा ख़ुद रो फूलों की महक में

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धुआँ

24 अप्रैल 2022
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वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उसने रास्ते में एक क़साई देखा, जिसके सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे थे खालें उतरी हुई थीं, और उनके नंगे गोश्त में से धुआँ उठ रहा था

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आर्टिस्ट लोग

24 अप्रैल 2022
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जमीला को पहली बार महमूद ने बाग़-ए-जिन्ना में देखा। वो अपनी दो सहेलियों के साथ चहल क़दमी कर रही थी। सबने काले बुर्के पहने थे। मगर नक़ाबें उलटी हुई थीं। महमूद सोचने लगा। ये किस क़िस्म का पर्दा है कि बुर

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