डॉ० राजेंद्र प्रसाद को ऐसे ही नहीं देशरत्न का उपाधि मिला। बल्कि 3 दिसम्बर 1884 को बिहार के जिरादेई नामक स्थान में जन्म लिए डॉ० राजेंद्र प्रसाद आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। और 28 फ़रवरी 1963 (उम्र 78) को उनका देहांत हुआ था। उनको आज पूरा देश सलाम करता है।
उनकी रोचक कहानी पढ़ के आप भी कहेंगें की ऐसा राष्ट्रपति शायद ही हमारे देश की मिल भी पायेगा?
आजाद भारत के लिए अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने वाले हमारे महान नेताओं में भारतीय गणतंत्र के प्रति कितना गहरा सम्मान था, ये देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद से जुड़ा ये किस्सा प्रतीत है।
उनके राष्ट्रपति रहते हुए एक बार ऐसा हुआ कि जब घर में उनकी बहन का शव रखा हुआ था, फिर भी देश के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठा दिखाते हुए वे गणतंत्र दिवस पर सलामी लेने पहुंच गए। तब तक बहन का शव घर में ही रखा रहा। जैसे ही वे परेड पूरी कर लौटे और फुफककर रोने लगे। इसके बाद अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पूरी की जा सकी।
किस्सा 60 के दशक का है। जब डॉ० राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति थे। वे हर साल की भांति 26 जनवरी को आने वाले गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति की हैसियत से सलामी लेते थे और देश के सबसे बड़े लोकतांत्रिक पर्व की खुशियां देशवासियों के साथ बांटते थे। मगर 1960 में एक अनहोनी ऐसी हो गई।
डॉ. प्रसाद की बड़ी बहन भगवती देवी का निधन 26 जनवरी से एक दिन पहले 25 जनवरी की रात्रि में हो गया। भगवती देवी राजेंद्र बाबू के लिए बड़ी बहन ही नहीं बल्कि मां भी थीं। वे घर में एकमात्र ऐसी सदस्य थीं, जो बड़ी होने के नाते डॉ. राजेंद्र प्रसाद को उनके अदम्य आदर्शवाद और अनुचित नरमी के लिए डांट भी सकती थीं।
भाई-बहन के दृष्टिकोण में काफी अंतर था लेकिन दोनों में अत्यंत स्नेह था। बहन की मृत्यु से राजेंद्र बाबू गहरे शोक में डूबे हुए थे। अपनी सबसे निकटस्थ बहन के चले जाने से उन्हें इतना सदमा पहुंचा कि वे बेसुध होकर पूरी रात बहन की मृत्युशैया के निकट बैठे रह गए।
धीरे-धीरे सुबह का समय होने लगा लेकिन डॉ. राजेंद्र प्रसाद पलभर के लिए भी वहां से नहीं हटे। रात के आखिरी पहर में घर के किसी सदस्य ने उन्हें स्मरण कराया कि ‘सुबह 26 जनवरी है और आपको देश का राष्ट्रपति होने के नाते गणतंत्र दिवस परेड की सलामी लेने जाना होगा। इतना सुनते ही उनकी चेतना जाग्रत हो गई और पलभर में सार्वजनिक कर्त्तव्य ने निजी दुख को मानो ऐसा ढंका की वे सबकुछ भूल गए।
चंद घंटों बाद सुबह वे सलामी की रस्म के लिए परेड के सामने थे। बुजुर्ग होने के बावजूद वे घंटों खड़े रहे। मगर उनके चेहरे पर न बहन की मृत्यु का शोक था, न ही थकान की क्लान्ति। सलामी की रस्म पूरी करने के बाद वे घर लौटे और बहन की मृत शारीर के पास जाकर फफककर रोने लगे। फिर अंत्येष्टि के लिए अर्थी के साथ यमुना तट तक गए और रस्म पूरी की।