स्थान-बंशनगर-एक सड़क
(गोप आता है)
गोप : निस्सन्देह मेरा धर्म मुझे इस जैन अपने स्वामी के पास से भाग जाने की सम्मति देगा। प्रेत मेरे पीछे लगा है और मुझे बहकाता है कि गोप, मेरे अच्छे गोप, पाँव उठाओ, आगे बढ़ो, और चलते फिरते दिखलाई दो। मेरा धर्म कहता है नहीं, खबरदार सच्चे गोप खबरदार, सच्चे गोप भागो मत, भागने पर लात मारो। तो एक ओर से बली भूत बहका रहा है कि अपनी बोरिया बँधना बाँधो, धता हो, दून हो, साहस को दृढ़ करो और नौ दो ग्यारह हो जाओ-दूसरी ओर से धर्म मेरे चित्त को, गले का हार होकर, इस प्रकार से शिक्षा देता है-मेरे धर्मिष्ट मित्र गोप! तुम कि एक धर्मात्मा के पुत्र हो वरंच यों कहना चाहिए कि एक धर्मात्मा स्त्री के पुत्र हो-अस्तु मेरा धर्म कहता है कि अपने स्थान से हिलो मत-तो अब भूत कहता है कि अपने स्थान से हिलो और धर्म कहता है कि अपने स्थान से मत हिलो। मैं अपने धर्म से कहता हूँ कि तुम्हारी सम्मति बहुत अच्छी है। फिर मैं भूत से कहता हूँ कि तुम्हारी राय बहुत अच्छी है। यदि मैं अपने धर्म की आज्ञा मानता हूँ तो मुझे अपने स्वामी जैन के साथ ठहरना पड़ता है जो कि आप ही एक प्रकार का भूत है-यदि मैं जैन के पास भाग जाता हूँ तो भूत की आज्ञा पर चलता हूँ जो कि (स्वामी की प्रतिष्ठा में अन्दर नहीं डालता) आप ही भूत है। निस्सन्देह जैन तो निज भूत का अवतार है इसलिये मेरी जान से तो मेरा धर्म बड़ा कठोर है जो इस जैन के साथ ठहरने की सम्मति देता है। भूत की सम्मति बहुत भली जान पड़ती है, तो ले भूत मैं भागने को उपस्थित हूँ, मेरे पाँव तेरी आज्ञा में हैं, मैं अवश्य भागूँगा।
(वृद्ध गोप एक टोकरा लिए हुए आता है)
वृद्ध गोप : भाई समृद्ध परदेसी महाजन के घर का कौन सा मार्ग है?
गोप : (आप ही आप) ईश्वर का त्राण! आप मेरे सगे बाप हैं, जो ऐसे अंधे हो गए हैं कि अपने जनमाए हुए लड़के को नहीं पहिचानते। ठहरो तनिक इनकी परीक्षा लूँगा।
वृद्ध गोप : साहिब नेक कृपा करके परदेसी महाजान के घर का मार्ग तो बता देते।
गोप : आगे के मोड़ पर पहुँच कर अपने दाहिने हाथ को फिर जाना, और सबसे आगे के मोड़ पर जब पहुँचो तो अपने बायें हाथ को मुड़ना, फिर दूसरे मोड़ पर किसी ओर न फिरना वरंच तिरछे मुड़ कर सीधे परदेसी महाजन के घर चले जाना।
वृद्ध गोप : भगवान की शपथ है इस मार्ग का पाना तो कठिन होगा। भला आप को विदित है कि एक मनुष्य गोप नाम का जो उनके यहाँ रहता था अब वहाँ है या नहीं?
गोप : क्या तुम युवक गोप को पूछते हो?-(आप ही आप) अब देखो मैं कैसा खेल करता हूँ-क्या तुम युवा गोप महाशय का वर्णन करते हो?
वृद्ध गोप : 'महाशय' न कहिए वरंच एक दरिद्र का बेटा। उसका बाप एक बहुत ही धर्मात्मा दरिद्री है पर धन्य है ईश्वर को कि रोटी कपड़े से सुखी है।
गोप : उसके बाप को कौन पूछता है वह जो चाहे सो हों, यहाँ तो इस समय युवा गोप महाशय का वर्णन है।
वृद्ध गोप : जी हाँ वही गोप आप का मित्र।
गोप : इसीलिये तो बूढ़े बाबा मैं तुम से कहता हूँ, इसीलिये तो निवेदन करता हूँ कि उसे युवा महाशय कहो।
वृद्ध गोप : आपकी साहिबी बनी रहे मैं गोप को पूछता हूँ।
गोप : तो उसका नाम गोप महाशय हुआ-बाबा गोप महाशय का वर्णन न करो क्योंकि वह युवा सज्जन मनुष्य तो कुछ दिन हुए मर गया या यों समझ लो कि स्वर्ग को गया।
वृद्ध गोप : भगवान न करे! वही लड़का तो मेरे बुढ़ापे की लकड़ी था, मेरे अँधेरे घर का दीपक था।
गोप : मेरी सूरत तो कहीं लकड़ी या दिये से नहीं मिलती? - बाबा तुम मुझे पहचानते हो?
वृद्ध गोप : सोच है कि मैं आपको नहीं पहिचानता, किन्तु ईश्वर के लिये मुझे शीघ्र बतलाइए कि मेरा लड़का (भगवान सबकी आत्मा को सुख दे!) जीता है कि मर गया?
गोप : बाबा तुम मुझे नहीं पहिचानते?
वृद्ध गोप : साहिब मैं तो बिल्कुल अंधा हूँ और तुम्हें नहीं पहिचान सकता।
गोप : और न यदि तुम्हारे आँख होती तो तुम मुझे पहिचान सकते। यह बड़े बुद्धिमान पिता का काम है कि अपने लड़के को पहिचान लें। अच्छा बूढ़े बाबा मैं तुम्हारे बेटे का हाल तुमसे कहूँगा, मुझे आशीर्वाद दो, अभी सच्चा हाल खुल जायगा। रुधिर अधिक दिन तक नहीं छिप सकता, लड़का कदाचित् छिप सकें-परन्तु अन्त को मुख्य बात प्रकट हो जाती है। (घुटने के बल झुकता है)।
वृद्ध गोप : भाई उठो यह क्या बात है-मुझे निश्चय है कि तुम मेरे लड़के गोप नहीं हो।
गोप : ईश्वर के लिये अब अधिक मूर्ख मत बनो और मुझे आशीर्वाद दो। मैं वही गोप हूँ जो पहिले तुम्हारा लड़का था, अब तुम्हारा बेटा है, और आगे तुम्हारा बच्चा कहलायेगा।
वृद्ध गोप : मैं कैसे जानूँ कि तुम मेरे बेटे हो?
गोप : मैं नहीं जानता कि तुम्हारी समझ को क्या कहूँ पर महाजन का नौकर गोप मैं ही हूँ और भली भाँति जानता हूँ कि तुम्हारी पत्नी मागधी मेरी माता है।
वृद्ध गोप : निस्सन्देह उसका नाम मागधी है। मैं शपथ से कह सकता हूँ कि यदि तू गोप है तो तू मेरे ही माँस और रुधिर से है। वाह वाह तेरी दाढी कितनी लंबी निकल आई है! जितने बाल तेरी टुड्डी पर हैं उतने तो मेरे घोड़े दमनक की पोंछ पर भी न होंगे।
गोप : तो इससे मालूम होता है कि दमनक की पोंछ बढ़ने के बदले दिन पर दिन भीतर घुसी जाती है। मुझे स्मरण है कि जब मैंने उसे अंतिम बार देखा था तो उसकी पोंछ के बाल मेरी डाढ़ी के बाल से कहीं बड़े थे।
वृद्ध गोप : हे भगवान्! तुम में कितना अन्तर हो गया है। भला तुझ से और तेरे स्वामी से कैसी पटती है? मैं उसके लिये कुछ भेंट लाया हूँ। बता तेरी उनके साथ कैसी निभती है?
गोप : किसी भाँति निभ जाती है। मैं अपने जी में नौ दो ग्यारह होने की ठान चुका हूँ और जब तक कुछ दूर भाग न लूँगा कदापि दम न लूँगा। मेरा स्वामी पूरा जैन है। उसे भेंट दोगे! हुंह, उसे फाँसी दो। मैं उसकी नौकरी में भूखों मरता हूँ-नेक मेरी दशा तो देखो कि कोई चाहे तो मेरी नसों को हर एक अँगुली को गिन ले। बाबा बड़ी बात हुई कि तुम यहाँ आ गए। चलो अपनी भेंट बसन्त महाराज को दो जो अच्छी नई नई वर्दियाँ बाँटता है। यदि मुझे इसकी नौकरी न मिली तो जहाँ तक कि ईश्वर के पास पृथ्वी है, मैं भाग जाऊँगा। अहा! मेरा भाग्य कैसा प्रबल है! देखो वह आप चले आते हैं। बाबा इनसे कहो, क्योंकि यदि अब मैं एक दम भी जैन की नौकरी करूँ तो मैं उससे अधम।
(बसन्त लोरी तथा दूसरे भृत्यों के सहित आता है)
बसन्त : अच्छा यों ही करो-परन्तु देखो ऐसी शीघ्रता से सब प्रबन्ध हो कि अधिक से अधिक पाँच बजे तक ब्यालू तैयार हो जाय। इन पत्रों को डाक में डाल आओ, वर्दियाँ झटपट बनवा लो और गिरीश से जाकर कहो कि अभी मेरे घर आवें।
(एक नौकर जाता है)
गोप : बाबा-हूँ।
वृद्ध गोप : ईश्वर आपको चिरायु करै!
बसन्त : (धन्यवादपूर्वक) तुम्हें मुझसे कुछ काम है?
वृद्ध गोप : धम्र्मावतार यह दीन बालक मेरा पुत्र-
गोप : दीन बालक नहीं महाराज वरंच धनिक महाजन का मनुष्य जो इस बात को चाहता है जैसा कि मेरा पिता विवरण के साथ कहेगा कि-
वृद्ध गोप : इसे नौकरी की बड़ी इच्छा है और-
गोप : सचमुच महाराज मुख्य बात यह है कि मैं जैन के यहाँ नौकर हूँ और इच्छा रखता हूँ जैसा कि मेरा बाप कहेगा कि-
वृद्ध गोप : महाराज इसकी और इसके स्वामी की जरा भी नहीं पटती-
गोप : मैं थोड़े में सच्ची बात कहे देता हूँ कि जैन ने मेरे साथ बुराई की है जिसके कारण से मैं चाहता हूँ जैसा कि मेरा बाप जो मैं आशा करता हूँ कि एक वृद्ध मनुष्य है आपसे सविस्तार वर्णन करेगा-
वृद्ध गोप : मैं एक थाली कबूतर के मांस की आपकी पारितोषिक देने को लाया हूँ और मेरी प्रार्थना यह है कि -
गोप : सौ बात की एक बात यह है कि यह प्रार्थना मेरे विषय में जैसा कि आपको इस सच्चे बुड्ढे के कहने से विदित होगा जो यद्यपि बूढ़ा और दीन है तो भी मेरा बाप है।
बसन्त : दो के बदले एक मनुष्य बोलो-तुम क्या चाहते हो?
गोप : सर्कार की सेवा करना।
वृद्ध गोप : जी हाँ यही मुख्य तात्पर्य है।
बसन्त : मैं तुम्हें भली भाँति जानता हूँ, तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार हुई। तुम्हारे स्वामी शैलाक्ष ने आज ही तुम्हारी सिफारिश की है, यदि एक धनवान जैन की सेवा छोड़ कर मुझ ऐसे दरिद्री की नौकरी करना चाहते हो।
गोप : वह पुरानी कहावत सर्कार के और मेरे स्वामी शैलाक्ष के विषय में ठीक ठीक घट गई है-सर्कार पर ईश्वर की कृपा है और उसके पास पुष्कल धन है।
बसन्त : यह बात तो तुमने खूब कही। बूढ़े बाबा अपने बेटे के साथ जाओ अपने पुराने स्वामी से बिदा होकर मेरे घर का पता लगा कर उपस्थित हो। (अपने भृत्यों से) इस मनुष्य को एक वर्दी जिसमें औरों की वर्दियों से उत्तम लैस टँकी हो दे दो, देखो अभी निबटा दो।
गोप : बाबा चलो-मेरे लिये कहीं नौकरी की कमी हो सकती है, नहीं। मैं कभी अपने मुँह से प्रार्थना नहीं करता! हाँ (अपना हाथ देख कर) क्या मुझसे बढ़ कर मारवाढ़ भर में किसी को हथेली निकलेगी, जो पुस्तक लेकर शपथ खाने को प्रस्तुत है कि तुम खूब रुपया कमाओगे! यह देखो आयु की रेखा कैसी सीधी चली गई है!-और यह पत्नियों का एक साधारण लेखा है-हा केवल पन्द्रह स्त्री यह तो कुछ भी नहीं है-ग्यारह राँड़ और नौ क्वांरियों से ब्याह करना तो मनुष्य के लिये थोड़ी ही बात है-फिर तीन बार डूबते डूबते बचना-और फिर एक तिनके से जीव का जोखिम-यह देखो यह इन सब आपत्तियों से बचने की रेखा है-अहा! यदि विधाता कोई स्त्री है तो ऐसे उत्तम स्त्रीधन के साथ अवश्य ब्याहने के योग्य है-बाबा आओ-मैं पलक भांजते मैं जैन से विदा हो लूँगा। (गोप और वृद्ध गोप जाते हैं)।
बसन्त : लोरी इसको भली भाँति समझ लो। इन वस्तुओं को मोल लेकर और वर्दियाँ बाँट कर शीघ्र लौट आओ क्योंकि आज ही रात को मुझे अपने परम प्रतिष्ठित मित्र का आतिथ्य करना है। शीघ्रता करो, जाओ।
लोरी : जहाँ तक हो सकता है शीघ्र प्रबन्ध करके उपस्थित होता हूँ।
(गिरीश आता है)
गिरीश : तुम्हारे स्वामी कहाँ हैं?
लोरी : महाराज, वहाँ टहल रहे हैं।
(लोरी जाता है)
गिरीश : बसन्त महाशय-
बसन्त : गिरीश!
गिरीश : मेरी आपसे एक प्रार्थना है।
बसन्त : मैंने स्वीकार की-कहो।
गिरीश : देखिए अस्वीकार न कीजिएगा-मैं आपके साथ विल्वमठ चलूँगा।
बसन्त : इसमें कौन सी बात है आनन्द से चलो-लेकिन सुनो गिरीश, तुम में ढिठाई, अनार्यता और असभ्यता अधिक है जो यद्यपि तुम में गुण जान पड़ते हैं और हमारी दृष्टि में दुर्गुण नहीं ठहरते तथापि बाहर वालों की दृष्टि में धृष्टता समझी जाती है। नेक तथापि ध्यान रखना और लज्जा के ठंढे पानी से अपने चिलविलेपन की गर्मी को ठंढा करने का यत्न करना जिससे ऐसा न हो कि जहाँ मैं जाने वाला हूँ वहाँ तुम्हारी अनार्यता के कारण मैं भी हल्का समझा जाऊँ और मेरी सब आशाएँ धूलि में मिल जायँ।
गिरीश : बसन्त महाराज, सुनिए यदि मैं गंभीर बन जाऊँ, नम्रता के साथ न बोलूँ, शपथ खाने का अभ्यास कम न कर दूँ, स्तोत्र की पुस्तक जेब में न भरे रहूँ, दृष्टि नीची न रक्खूँ, केवल इतना ही नहीं वरंच जिस समय स्तुति पढ़ी जाती हो अपनी टोपी की इस तरह आँख पर अँधेरी न चढ़ा लूँ, और आह भर कर एवमस्तु कहूँ, और एक बड़े विद्वान सभ्य मनुष्य की भाँति नम्रता के साथ हर बात में चुनाचुनी न करूँ, तो आज से मेरी बात का विश्वास न कीजिएगा।
बसन्त : वह तो देखने ही में आवेगा।
गिरीश : हाँ पर आज की रात को इस प्रतिबंधन से दूर रखिए, आज की रात हँसी के लिये रुकावट न रहेगी।
बसन्त : नहीं नहीं मैं कब ऐसा चाहने लगा, वरंच मैं तो स्वयं कहने को था कि आज की सभा में नियम से भी अधिक ढीठ रहो क्योंकि आज ऐसे मित्रों का भोज है जो बहुत की इच्छा रखते हैं-परन्तु इस समय विदा हों क्योंकि मुझे कुछ काम है।
गिरीश : और मैं लवंग प्रभूति के पास जाता हूँ, पर भोजन के समय हम सब अवश्य उपस्थित होंगे।
(दोनों जाते हैं)