स्थान-विल्वमठ पुरश्री के घर का एक कमरा
(पुरश्री, लवंग, जसोदा और बालेसर आते हैं)
लवंग : प्यारी यद्यपि आप के मुँह पर कहना सुश्रूषा है पर आप में ठीक देवताओं का सा सच्चा और पवित्र प्रेम पाया जाता है और इसका बड़ा प्रमाण यह है कि आपने इस भाँति अपने स्वामी का विरह सहन किया। किन्तु यदि आपको विदित हो कि आपने किस पर इतनी कृपा की है और वास्तव में कैसे सच्चे सभ्य को सहायता भेजी है और उसको मेरे स्वामी अर्थात् आपके स्वामी से कैसी प्रीति है तो आपको अपने इस कृत्य पर और साधारण कर्तव्यों की अपेक्षा कहीं बढ़ कर प्रसन्नता हो।
पुरश्री : मैं अच्छे काम करके न आज तक पछताई हूँ और न अब पछताऊँगी क्योंकि ऐसे मित्र जो हर क्षण मिले जुले रहते हैं ओर जिनके चित्त में एक दूसरे का समान प्रेम है मानो एक प्राण दो देह हैं उनकी चाल ढाल रहन सहन और चित्त भी अवश्य ही एक सा होगा तो मैं समझती हूँ कि यह अनन्त जो मेरे स्वामी के अन्तरंग मित्र हैं उन्हीं के सदृश्य होंगे। यदि ऐसा है तो मैंने अपने स्वामी के चित्त को महा आपत्ति के पंजे से कैसे थोड़े व्यय में छुड़ा पायी। पर इससे तो मेरी ही प्रशंसा निकलती है। इसलिए अब इस प्रकरण को छोड़कर दूसरी बातें सुनो। लवंग मैं अपने घर और गृहस्थी का सारा प्रबन्ध अपने स्वामी के लौट आने तक तुम्हारे आधीन करती हूँ। रही मैं तो मैंने अपने मन में ईश्वर के सामने एक मन्नत मानी है कि नरश्री को साथ लेकर उसके स्वामी के आने तक प्रार्थना करती और उसकी ओर लौ लगाए रहूँ। यहाँ से दो मील पर एक मठ है, उसी में जाकर हम लोग रहंेगी। मैं आशा करती हूँ कि तुम मेरी इस प्रार्थना से जिसे अपनी प्रीति और कुछ अधिक आवश्यकता होने के कारण करती हूँ अनंगीकार न करोगे।
लवंग : प्यारी मैं तन मन से आप की आज्ञा का अनुगामी हूँ।
पुरश्री : मेरे नौकर चाकर इस इच्छा को जान चुके हैं और वह तुम्हें और जसोदा को महाराज वसन्त और मेरे स्नानापन्न समझेंगे। अच्छा अब मैं तुम लोगों से विदा होती हूँ, जब तक कि भगवान तुमसे फिर न मिलाए।
लवंग : भगवान् आपको उच्च मनोरथ और उत्तम साहस दें।
जसोदा : मेरी आसीस है कि आपका आन्तरिक मनोरथ पूरा हो।
पुरश्री : मैं तुम्हारी इस अभिलाषा का धन्यवाद देती हूँ और तुम्हारे विषय में भी वैसा ही जी से चाहती हूँ। जसोदा मेरा राम राम लो।
(जसोदा और लवंग जाते हैं)
हाँ बालेसर जैसा कि मैंने तुम्हें सदा सच्चा और धामिक पाया है वैसा ही मैं चाहती हूँ कि अब भी पाऊँ। इस पत्र को लो और जहाँ तक कि तुम्हारे पाँव में बल हो शीघ्र पाँडुपुर पहुँचने का प्रयत्न करो और इसे मेरे चचेरे भाई कविराज बलवन्त के हाथ में दो और देखो कि जो पत्र और वस्त्र वह तुम्हें दंे उन्हें ईश्वर के वास्ते मन से अधिक तीव्र उस घाट पर जहाँ से वंशनगर को व्यापार का माल जाता है, लेकर आओ। बस अब चले जाओ, बातों में समय नष्ट न करो। मैं तुमसे पहिले वहाँ पहुँच जाऊँगी।
वालेसर : बबुई मैं जितना शीघ्र सम्भव होगा जाऊँगा।
पुरश्री : इधर आओ नरश्री मुझे अभी वह काम करना है जो तुम्हें अभी विदित नहीं है। हम तुम चल कर अपने स्वामी को देखेंगे और उनको इसका ध्यान भी न होगा।
नरश्री : हमें भी वह देखेंगे या नहीं?
पुरश्री : हाँ हाँ परन्तु ऐसे भेस में कि उन्हें ध्यान न होगा कि वे वीरता के चिन्ह जो स्त्रियों में नहीं होते हम में उपस्थित हैं। मैं प्रण करती हूँ कि जब हम तुम युवा मनुष्यों की भाँति वस्त्र इत्यादि पहिन कर तैयार हो जाएँगे, उस समय मैं तुमसे बढ़कर सजीली जान पडँ़ईगी और अपनी तलवार को खूब तिरछी बाँध कर चलूँगी और बालक और युवा के शब्द के बीच का भारी शब्द बनाकर बोलूँगी और स्त्रियों की मन्दगति छोड़कर पुरुषों की भाँति लम्बे पैर रक्खूंगी और एक अभिमानी नवयुवक व्यसनी पुरुष की भाँति युद्ध इत्यादि का भी वर्णन करूँगी और झूठी बातें गढ़ गढ़ कर कहूँगी कि बड़ी प्रतिष्ठित स्त्रियाँ मुझ पर आसक्त हुईं पर मैंने उन्हें ऐसा कोरा उत्तर दिया कि नैराश्य से पीड़ित होकर मर गईं पर मेरा इसमें क्या बस था फिर मैं खेद प्रकट करूँगी और कहूँगी कि यद्यपि इसमें मुझ पर कुछ दोष नहीं है किन्तु यदि वह मेरे इश्क में न मरतीं तो उत्तम था और इसी प्रकार के बांसों झूठ ऐसे बोलूँगी कि लोगों को इस बात का पक्का विश्वास हो जायेगा कि मुझे पाठशाला छोड़े साल भर से अधिक न हुआ होगा। मुझे इन अभिमानी छोकरों के सहस्र ों चुटकुले स्मरण हैं और मैं इन्हीं से अपना काम निकालूँगी। परन्तु आओ मैं तुमसे अपना सब उपाय गाड़ी में जो बगीचे के फाटक पर खड़ी है सवार होकर वर्णन करूँगी। बस अब शीघ्र ही चलो क्योंकि हमें आज ही बीस मील समाप्त करना है।
(दोनों जाती हैं।)