स्थान-वंशपुर की सड़क
(अनन्त, सरल और सलोने आते हैं)
अनन्त : सचमुच न जाने मेरा जी इतना क्यों उदास रहता है, इससे मैं तो व्याकुल हो ही गया हूँ पर तुम कहते हो कि तुम लोग भी घबड़ा गए। हा, न जाने यह उदासी कैसी है, कहाँ से आई है और क्यों मेरे चित्त पर इसने ऐसा अधिकार कर लिया है? मेरी बुद्धि ऐसी अकुला रही है कि मैं अपने आपे से बाहर हुआ जाता हूँ।
सरल : आपका जी क्या यहाँ है, आपका चित्त तो वहाँ है जहाँ समुद्र में आप के सौदागरी के भारी जहाज बड़ी बड़ी पाल उड़ाए हुए धनमत्त लोगों की भाँति डगमगी चाल से चल रहे होंगे और वरुण देवता के विमान की भाँति झूमते और आस पास की छोटी छोटी नौकाओं की ओर दयादृष्टि से देखते आते होंगे और वे बेचारियाँ भी अपने छोटे-छोटे परों से उड़ती हुई और सिर झुका झुकाकर बारंबार उनको प्रणाम करती किसी तरह से लगी बुझी उनका अनुगम करती चली आती होंगी।
सलोने : महाराज! हम सच कहते हैं! जो हमारी इतनी जोखिम जहाज पर होती तो हमारा जी आठ पहर उसी में लगा रहता, प्रति क्षण तिनका उठाकर हम हवा का रुख देखा करते, रात दिन नकशा लिए सड़क, बन्दर और खाड़ियों को ताका करते और थोड़े से खटके में भी अपनी हानि के डर से घबड़ा जाते।
सरल : और मेरा कलेजा तो गरम दूध के फूँकने में भी तूफान की याद करके दहल जाता और सोचता कि हाय यदि कहीं समुद्र में आँधी चली तो जहाजों की क्या गति होगी। बालू की घड़ी देखने से मुझे यह ध्यान बँधता कि मेरा माल से लदा जहाज बालू की चर पर चढ़ गया है और उसके उलट जाने से उसका ऊँचा मस्तूल झुका हुआ ऐसा दिखाई देता है मानो वह अपने प्यारे जलयान की समाधि को गले लगा कर रो रहा है। देवालय के शिखर का ऊँचा पत्थर देखते ही मुझे पहाड़ों की चट्टानें याद आतीं और सोचता कि इन्हीं चट्टानों से ठोकर खाकर मेरा भरा पूरा जहाज टूट गया है, किराना पानी पर फैल गया है और रंग रंग के रेशमी कपड़े समुद्र की लहरों पर लहरा रहे हैं, यहाँ तक कि जो जहाज अभी लाखों रुपये का था छन भर में एक पैसे का भी न रहा। बतलाइए कि जब एक बार इस तरह का सोच जी में आवे तो संभव है कि मनुष्य हानि के डर से उदास न हो जाय?
सलोने : मैं जानता हूँ कि आपको अपनी जोखों ही का सोच है।
अनन्त : इसका नहीं। मैं धन्यवाद करता हूँ कि मेरा माल कुछ एक ही जहाज पर नहीं लदा है, और न सबके सब एक ही ओर भेजे गए हैं, और न एक साल के घाटे नफे से मेरे व्यापार की इतिश्री है, इससे सौदागरी की जोखों के सबब से मैं इतना उदास नहीं हूँ।
सरल : तो कहीं किसी से आँख तो नहीं लगी है?
अनन्त : छिः छिः!
सरल : वह भी नहीं यह भी नहीं तब तो आप का जी झूठ मूठ उदास है, अभी हँसो, बोलो, वू$दो, अभी प्रसन्न हो जाव। संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो बे समझे बूझे तुच्छ तुच्छ बात पर बड़े बडे़ दाँत निकाल कर खिलखिला उठते हैं और बाजे ऐसे (मुहर्रमी पैदाइश के) होते हैं कि ऐसा उत्तम परिहास जिस पर धर्मराज सा गंभीर मनुष्य हँस पड़े उसपर भी उनका फूला हुआ थूथन नहीं पिचकता।
(बसन्त, लवंग और गिरीश आते हैं)
सलोने : लो गिरीश और लवंग के साथ आपके प्रियबंधु बसन्त आते हैं। अब हमारा प्रणाम लो। हम लोग आपको अपने से अच्छी मण्डली में छोड़ कर जाते हैं।
सरल : भाई यदि ये उत्तम मित्रगण न आ जाते तो मैं आपको अच्छी तरह प्रसन्न किये बिना कभी न जाता।
अनन्त : मेरे हिसाब तो तुम भी बहुत उत्तम मित्र हो। परन्तु तुम्हें किसी आवश्यक काम से जाना है इसी हेतु अवसर पाकर यह बात बनाई है।
सरल : प्रणाम महाशयो।
बसन्त : दोनों मित्रों को प्रणाम। कहो अब हम लोग फिर कब हँसे बोलेंगे। तुम लोग तो अब निरे अपरिचित हो गए। सचमुच क्या चले ही जाओगे।
सरल : हम लोग अवसर के समय फिर मिलेंगे।
(सरल और सलोने जाते हैं)
लवंग : मेरे श्रीमन्त बसन्त लीजिए आपसे और अनन्त गुणकन्त अनन्त से भेंट हो गई अब हम लोग भी जाते हैं, परन्तु खाने के समय जहाँ मिलने का निश्चय किया उसे न भूलिएगा।
बसन्त : नहीं, न भूलूँगा।
गिरीश : भाई अनन्त। आप उदास मालूम पड़ते हो। हुआ ही चाहैं। संसार के कामों में जो जितना विशेष फँसा रहेगा उतना ही विशेष वह उदास रहेगा। मैं सच कहता हूँ कि आपकी सूरत बिलकुल बदल गई है।
अनन्त : मैं संसार को उसके वास्तविक रूप से बढ़कर कदापि नहीं समझता। गिरीश! संसार एक रंगशाला है, जहाँ सब मनुष्यों को एक न एक स्वाँग अवश्यक बनना पड़ता है उनमें से उदासी का नाट्य मेरे हिस्से है।
गिरीश : और मैं विदूषक की नकल करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे बाल भी हँसते खेलते पकें। नित्य मद्य-पीने से मेरे कलेजे में गर्मी पहुंचे न कि आहों के भरने से उसमें शीत आवे। शरीर में रक्त की गर्मी रहते भी लोग क्योंकर मूरत की तरह चुपचाप बैठे रह सकते हैं, जागते हुए लोग भी किस तरह सो जाते हैं, या रोगी की तरह कराह कराह कर दिन बिताते हैं। आप मेरी बात से अप्रसन्न न हूजिएगा, मैं आपको जी से चाहता हूँ तब इतनी धृष्टता की है। बहुतेरे मनुष्य ऐसे होते हैं कि बँधे पानी के तालाब की भाँति उनके मुख का रंग सदा गँदला बना रहता है और यह समझ कर कि लोग हमको बड़ा सोचने वाला, विचारवान, पंडित और गम्भीर कहेंगे व्यर्थ को भी मुंह फुलाए रहते हैं। उनका मुंह देखने से स्पष्ट प्रगट होता है कि वह लोग अपने को बढ़कर लगाते और अपनी बात को वेदव्यास से भी बढ़कर समझते हैं। मेरे प्यारे अनन्त। मैं ऐसे बहुतेरे लोगों को जानता हूँ जो केवल जीभ न हिलाने के कारण समझदार प्रसिद्ध हैं। मैं सच कहता हूँ कि ऐसे लोगों से बोलना ही पाप है क्योंकि इनकी बात के सुनते ही क्रोध आ जाता है और मनुष्य के मुंह से बुरा भला निकल ही आता है। मैं इस विषय में आप से फिर कभी बातचीत करूँगा। देखिए ऐसा न हो कि उसी झूठी बड़ाई की इच्छा आप पर भी प्रबल हो। भाई लवंग चलो अब इस समय बिदा। खाने के पीछे आकर मैं अपना व्याख्यान समाप्त करूंगा।
लवंग : तो खाने के समय तक के लिए जाता हूँ। परन्तु मैं तो उन्हीं गूंगे बुद्धिमानों में से एक हूँ, क्योंकि गिरीश अपनी बकवाद में मुझे तो कभी बोलने ही नहीं देता।
गिरीश : अभी दो बरस मेरी संगति में और रहो तो फिर तुम्हारी जिह्ना का शब्द तुम्हारे कान को भी न सुनाई पड़ेगा।
अनन्त : अच्छा जाओ, मैं भी तब तक बकवाद करना सीख रखता हूँ।
गिरीश : आप बड़ी कृपा कीजिएगा क्योंकि चुप रहने का स्वभाव यों तो पशुओं के लिये योग्य होता है या ऐसी स्त्रियों के लिये जिसे ब्याह करने वाला न मिलता हो।
(गिरीश और लवंग जाते हैं)
अनन्त : कहो भाई इनकी बात में कोई आनन्द था?
वसंत : गिरीश बहुत ही व्यर्थ बकता है। सारे वंशनगर में उससे बढ़कर कोई बक्की न निकलेगा। व्यर्थ की बकवाद की जाल में उसका वास्तविक आशय ऐसा छिपा रहता है जैसे गट्ठे भर भूसे में अनाज का एक दाना। जब दिन भर उसके लिए हैरान हो तब कहीं एक दाना हाथ लगे, वैसे ही जब बहुत सा समय इसकी बात के पीछे नाश करो तब उसका आशय समझ में आवै और इतने कष्ट के पीछे समझने पर भी कुछ उसका फल नहीं...
अनन्त : हुआ, यह रामकहानी दूर करो। अब यह बतलाओ कि वह कौन सी स्त्री है, जिसके लिये तुम गुप्त यात्रा करने वाले हो। देखो, आज मुझसे सब वृत्तान्त कहने का वादा है।
वसंत : भाई अनन्त! तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैंने अपनी सब जायदाद किस तरह गंवा दी। समझ कर व्यय न करके सर्वदा बड़ी चाल चला और यही चाल मेरे नाश की कारण हुई। पंरतु मुझे अपनी अवस्था के घट जाने का कुछ भी सोच नहीं है, सोच है तो केवल इस बात का है कि मुझे जो बहुत सा ऋण हो गया है उसे किसी तरह चुका दूँ। भाई अनन्त! तुम्हारा मैं सब प्रकार ऋणी हूँ। रुपये का कहो दया का कहो। इसलिये ऋण चुकाने का मैं जो जो उपाय सोचता हूँ वह तुम से सब स्वच्छ स्वच्छ वर्णन करके अपने चित्त के बोझ को हलका करूंगा।
अनन्त : प्यारे वसन्त! परमेश्वर के वास्ते मुझसे सब वृत्तान्त स्पष्ट वर्णन करो। यदि वह उपाय धर्म का है जैसा कि तुम सदा बरतते आए हो तो निश्चय रक्खो कि मेरा रुपया मेरा शरीर सब कुछ तुम्हारे लिए समर्पण है।
वसंत : छोटेपन में जब मैं पाठशाला में पढ़ता था तब यदि मेरा कोई तीर खो जाता था तो उसके ढूँढ़ने को मैं वैसा ही दूसरा तीर उसी ओर छोड़ता था और ध्यान रखता था कि यह तीर कहाँ गिरता है। इसी भाँति दुहरी जोखम उठाने से प्रायः दोनों मिल जाते थे। इस लड़कपन की बात के छेड़ने से मेरा आशय यह है कि अब मैं जो उपाय किया चाहता हूँ वह भी इसी लड़कपन के खेल की भाँति है। मैं तुम्हारा बड़ा ऋणी हूँ। जो कुछ मैंने तुमसे लिया वह सब एक हठी लड़के भाँति गँवा दिया परन्तु जहाँ तुमने पहिले एक तीर छोड़ा है उसी ओर यदि एक तीर और फेंको तो मैं तुम्हें निश्चय दिलाता हूँ कि अब की मैं उसके लक्ष्य की ओर अच्छी तरह दृष्टि रख कर जैसे होगा वैसे दोनों तीर खोज लाऊँगा। और यदि संयोग से पहिला न मिला तो दूसरा तो अवश्य ही फेर लाऊँगा और पहिले के लिये धन्यवाद के साथ तुम्हारा सदा ऋणी रहूँगा।
अनन्त : भाई तुम तो मुझे अच्छी तरह जानते हो। फिर मेरा जी टटोलने के लिये फेरवट के साथ बात करके व्यर्थ क्यों समय नष्ट करते हो। मुझे इसका दुःख है कि तुमने इस बात में सन्देह किया कि मैं तुम्हारे लिए प्राण दे सकता हूँ। यदि तुम मेरी सर्वस्व हानि किए होते तब भी मुझे इतना दुःख न होता जो इस बात से हुआ। व्यर्थ बात बढ़ाने से क्या लाभ? केवल इतना कहो कि मुझे तुम्हारे हेतु क्या करना होगा, मैं उसके लिये प्रस्तुत हूँ शीघ्र बतलाओ।
वसंत : विल्वमठ में एक प्यारी स्त्री रहती है जो अपने माँ बाप के मर जाने से एक बड़ी रियासत की स्वामिनी हुई है। उसका रूप ऐसा है कि केवल सौन्दर्य के शब्द से उसकी स्तुति हो ही नहीं सकती। उसमें अनगिनत गुण हैं। कुछ दिन हुए उसकी चितवन ने मुझको ऐसे प्रेम सन्तेश दिए थे कि मुझको उसकी ओर से पूरी आशा है। उसका नाम पुरश्री है, वह सचमुच पुुरश्री है, पुरश्री क्या सारे संसार की श्री है। रूप में श्री और गुण में सरस्वती है। संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ उसकी स्तुति की सुगंध न फैली हो। चारों ओर से बड़े बड़े राजकुमार और धनिक उसके ब्याह की आशा में आते हैं। भाई अनन्त! यदि मुझे इतना रुपया मिलता कि वहाँ जाकर इन लोगों के समक्ष मैं विवाह की प्रार्थना कर सकता तो मेरा जी कहता है कि मैं अपने मनोरथ में अवश्य विजयी होता।
अनन्त : भाई तुम अच्छी तरह जानते हो कि मेरी सब लक्ष्मी समुद्र में है, इस समय न मेरे पास मुद्रा है न माल जिसे बेच कर रुपया मिल सके, इससे जाओ देखो तो मेरी साक वंशनगर में क्या कर सकती है। तुम्हें पुरश्री के पास विल्वमठ जाने के लिए जो रुपया चाहिए उसके प्रबन्ध में मैं ऊँचा नीचा सब काम करने को प्रस्तुत हूँ। देखो अभी जाकर खोज करो कि रुपया कहाँ मिलता है और मैं भी जाता हूँ मेरे नाम या जमानत से जिस प्रकार रुपया मिले मुझे किसी बात में सोच विचार नहीं है।
(दोनों जाते हैं)