स्थान-विल्वमठ, पुश्री के घर का प्रवेशद्वार
(लवंग और जसोदा आते हैं)
लवंग : आहा! चाँदनी क्या आनन्द दिखा रही है! मेरे जान ऐसी ही रात में जब कि वायु इतना मन्द चल रहा था कि वृक्षों के पत्तों का शब्द तक सुनाई न देता था, त्रिविक्रम दुर्ग की भीत पर चढ़ कर कामिनी की राह ताकता हुआ, जो यवनपुर के खेमे में थी, हृदय से ठण्डी साँस निकाल रहा था।
जसोदा : ऐसी ही रात में कादम्बिनी ओस पड़ी हुई घास पर डर डर कर कदम रखती थी कि यकायक सिंह की पर्छांई सामने देखकर बेचारी भय से भाग गई।
लवंग : ऐसी ही रात में जयलक्ष्मी समुद्र के किनारे खड़ी होकर छड़ी से अपने प्यारे को कामपुर लौट आने के लिये संकेत करती थी।
जसोदा : ऐसी ही रात में मालिनी ने जड़ी बूटियों को जंगल में एकत्र किया था, जिनके प्रभाव से बूढ़ा पुरुष जवान हो गया।
लवंग : ऐसी ही रात में जसोदा अपने समृद्ध पिता के घर से निकल भागी और एक दरिद्र पे्रमी के साथ वंशनगर से विल्वमठ को चली आई।
जसोदा : ऐसी ही रात में लवंग ने उससे चित्त से प्रेम करने की सौगन्ध खाई और निर्वाह का प्रण करके उसका मन छीन लिया परन्तु एक भी सच्चे न निकले।
लवंग : ऐसी ही रात में कामिनी जसोदा ने दुष्टता से अपने प्रेमी पर दोष लगाया और उसने कुछ न कहा।
जसोदा : क्या कहूँ मैं तो तुम को बात ही बात में बेबात कर देती यदि कोई आता न होता। देखो मुझे किसी के पैर की आहट जान पड़ती है।
(तूफानी आता है)
लवंग : रात के ऐसे सन्नाटे में कौन इतना शीघ्र चला आता है!
तूफानी : मैं हूँ, आप का एक मित्र।
लवंग : ऐं, मित्र? कैसे मित्र? भला मित्र, कृपा करके अपना नाम तो बताओ।
तूफानी : मेरा नाम तूफानी है। मैं यह समाचार लाया हूँ कि मेरा स्वामिनी आज मुँह अँधेरे विल्वमठ में पहुँच जायँगी। वह मंदिरों में घुटने के बल विवाह मंगल होने की प्रार्थना कर रही हैं।
लवंग : उनके साथ और कौन आता है?
तूफानी : कोई नहीं, केवल वह आप एक जोगिन के भेष में और उनकी सहेली। पर यह तो कहिए कि हमारे स्वामी अभी तक लौट आए या नहीं।
लवंग : न वह आए हैं न कुछ उनका हाल विदित हुआ है। पर आओ जसोदा हम तुम भीतर चलकर घर के स्वामी के शिष्टाचार का प्रबन्ध कर रक्खें।
(गोप आता है)
गोप : धूतू धूतू पिपी धूतू धूतू!
लवंग : कौन पुकारता है?
गोप : धूतू धूतू! तुम जानते हो कि लवंग महाशय और उनकी स्त्री कहाँ हैं? धूतू धूतू!
लवंग : अरे कान न फोड़े डाल, इधर आ।
गोप : धूतू धूतू! किधर? किधर?
लवंग : यहाँ।
गोप : उनसे कह दो कि मेरे स्वामी के पास से एक दूत आया है जिसकी तुरुही मंगल समाचारों से भरी हुई है, वह सवेरा होते होते यहाँ पहुँच जायँगे।
लवंग : प्यारी आओ, घर में चल कर उनके आने की राह देखें, या अच्छा यहीं बैठी रहो भीतर जाने की कौन सी आवश्यकता है। भाई तूफानी नेक भीतर जाकर लोगों से जना दो कि तुम्हारी स्वामिनी आती हैं और अपने साथ गवैयों को बाहर बुलाते लाओ।
(तूफानी जाता है)
इस बुरुज पर चाँदनी कैसी छिटक रही! आओ हम बैठकर गाना सुनें। एक तो सन्नाटा मैदान और दूसरे रात, यह दोनों राग का आनन्द दूना बढ़ा देेते हैं। बैठो जसोदा, देखो तो आकाश क्या शोभा दिखला रहा है, यह प्रतीत होता है कि मानो उसमें हजारों सोने के कुंकुमे लटकते हैं। जितने यह दृष्टि आते हैं इनमें से छोटे से छोटे की चाल से भी देवताओं के राग का सा शब्द आता है, मानो वह उनके शब्द के सात सुर मिलाते हैं। ऐसा ही सुरीलापन मनुष्य की निश्शब्द आत्मा में भी है परन्तु वह इस भौतिक वस्त्र को, जो नष्ट हो जाने वाला है, पहने है इसलिये हम उसके मीठे राग को सुन नहीं सकते।
(गाने बजाने वाले आते हैं)
इधर आओ और कोई राग ऐसा छेड़ो कि तानसेन भी नींद से चैंक उठे और जब तुम्हारे मीठे सुरों का आलाप तुम्हारी स्वामिनी के कान तक पहुँचे तो वह भी विवश होकर घर की ओर दौड़ी आवें।
जसोदा : मैं तो जिस समय अच्छा राग सुनती हूँ सब सुध बुध दूर भाग जाती है।
(लोग गाते हैं)
लवंग : इसका कारण यह है कि तुम अपना ध्यान जमाती और उस पर सोचती हैं। तुमने देखा होगा कि नये सीधे बछड़े जिन्हें किसी ने हाथ तक न लगाया हो आपस में क्या क्या कुलेलें करते, छलाँगें मारते और हिनहिनाते हैं जिससे उनके रुधिर की गर्मी जानी जाती है। परन्तु यदि संयोग से उनके सामने तुरुही या किसी दूसरे प्रकार का बाजा बजाया जाय तो यह शीघ्र ही सबके सब ठठक कर खड़े हो जायँगे और राग के प्रभाव से कुछ देर के लिये उनकी घबड़ाहट दूर हो जायगी। एक कवि का कथन ठीक है कि तानसेन के गाने का प्रभाव वृक्ष, पत्थर, जल पर भी होता था क्योंकि कोई वस्तु ऐसी कठोर और भयानक नहीं जिसकी प्रकृति-स्वभाव को अधिक नहीं तो थोड़ी ही देर के लिये राग बदल न देता हो। जिस मनुष्य के गाने का आनन्द नहीं और जिसके जी पर सुरीले शब्द का प्रभाव नहीं होता उससे अत्याचार, छल और चोरी इत्यािद जो कुछ न हो सब थोड़ा है क्योंकि ऐसे मनुष्य का चित्त नरक से अधिक अंधा और भ्रष्ट और बुरा होता है और वह कदापि विश्वास के योग्य नहीं होता। तुम ध्यान देकर गाना सुनो।
(पुरश्री और नरश्री कुछ दूर पर चली आती हैं)
पुरश्री : वह प्रकाश जो सामने दृष्टि पड़ता है मेरे ही दालान में हो रहा है। देखो तो एक छोटे से दीपक का प्रकाश कितनी दूर तक फैला हुआ है। इसी भाँति संसार में शुभकर्म चमकता है।
नरश्री : जब चाँदनी थी तो यह प्रकाश जान नहीं पड़ता था।
पुरश्री : इसी भाँति बड़ा तेज अपने सामने छोटे तेज को दबा लेता है। किसी कवि ने कितना ठीक कहा है-दिये (दीपकों) को तो प्रकट में चमक है, पर दिये (दान) का प्रकाश परलोक में भी है। राजा की अनुपस्थिति में उसके प्रतिनिधि ही की प्रतिष्ठा राजा के समान होती हैं परन्तु उसके सामने जैसे नदी की समुद्र के सामने कुछ गिनती नही उसका भी कोई मान नहीं होता। ऐं देखो, कहीं से गाने का शब्द आता है!
नरश्री : सखी यह आप ही के महल में गाना हो रहा है।
पुरश्री : इसमें सन्देह नहीं कि हर वस्तु के लिये एक नियत काल है और उसी समय वह भली जान पड़ती है। मेरी सम्मति में इस समय गाना दिन की अपेक्षा अधिक मनोहर होता है।
नरश्री : सखी यह आनन्द एकान्त के कारण से प्राप्त हुआ है।
पुरश्री : यदि कोई कान ही न दे तो कौवे का शब्द वैसा ही कोमल और मधुर है जैसा कोयल का और मेरी सम्मति में दिन को जब कि बत्तक काँव-काँव कर रही हों, बुलबुल हजार दास्ताँ का चहचहाना कोलाहल से बुरा है। कितनी वस्तुओं की सुन्दरता और उत्तमता समय ही पर जानी जाती है। बस बन्द करो, चन्द्रमा समुद्र के साथ सोने को गया और अभी उसकी आँख नहीं खुलने की।
(गाना बन्द हो गया)
लवंग : यदि मेरे कानों ने त्रुटि न की तो यह शब्द पुरश्री का है!
पुरश्री : मेरा शब्द तो इस समय मानो अंधे के लिये लकड़ी हो गया।
लवंग : ऐ मान्य सखी, आपके कुशलतापूर्वक लौट आने पर धन्यवाद देता हूँ।
पुरश्री : हम लोग अपने अपने स्वामी की कुशलता की प्रार्थना करती थीं और हम आशा करती हैं कि हमारी प्रार्थना स्वीकार हुई। वह लोग आए?
लवंग : इस समय तक तो नहीं आए हैं परन्तु उनके पास से अभी एक दूत समाचार लाया है कि वह लोग निकट ही हैं।
पुरश्री : नरश्री भीतर जाकर नौकरों से कह दो कि वह हमारे बाहर जाने के विषय में किसी से कुछ न कहें, लवंग तुम भी ध्यान रखना और तुम भी स्मरण रखना जसोदा।
(तुरुही की ध्वनि सुनाई देती है)
लवंग : आपके पति आन पहुँचे, मेरे कान में उनकी तुहही का शब्द आता है। हम लोग लुतरे नहीं हैं, आप तनिक भय न कीजिए।
पुरश्री : आज के सबेरे की दशा तो कुछ पीड़ित सी जान पड़ती है क्योंकि उसके मुंह पर नियम से अधिक पियराई छा रही है जैसा कि सूर्यास्त के समय दृष्टि आती है।
(बसन्त, अनन्त, गिरीश और उनके नौकर चाकर आते हैं)
बसन्त : यदि सूर्यास्त होने पर आप घूँघट उलट कर निकल आएँ तो हमको उसके अस्त होने की कुछ चिन्ता न हो।
पुरश्री : ईश्वर करे मुख की कान्ति आपको प्रकाशित कर सके परन्तु मेरी गति में चमक न आए क्योंकि चमक मटक छिछोरेपन का चिद्द है जिसका परिणाम यह होता है कि अन्त को स्वामी के चित्त में अपनी स्त्री की ओर से एक चमक आ जाती है, इसलिये ईश्वर मुझको इस आपत्ति से बचाए। आपका जाना हम लोगों को शुभंकर हो।
बसन्त : प्यारी मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ, पर इस समय तुम मेरे मित्र के आने पर प्रसन्नता प्रकट करो। यही अनन्त है जिनका मैं अन्तःकरण से अत्यन्त उपकृत हूँ।
पुरश्री : इसमें कोई सन्देह है, आपको अवश्य उपकार मानना चाहिए क्योंकि जहाँ तक मैंने सुना है उन्होंने आप के साथ बड़ा उपकार किया है।
अनन्त : आप लोग इस कहने से मुझे व्यर्थ लज्जित करते हैं, मैंने तो जो कुछ सेवा की होगी उससे कहीं अधिक भर पाया।
पुरश्री : महाशय आपके पधारने से हमारे घर की शोभा और हम लोगों की प्रसन्नता दूनी हुई परन्तु मुख से कहना बनावट है और मैं अपने आन्तरिक हर्ष को बनावट की आवश्यकता नहीं समझती।
(गिरीश और नरश्री पृथक् बात करते जान पड़ते हैं)
अनन्त : शपथ है अपने प्राण की तुम मुझ पर झूठा दोष लगाती हो, मैंने सचमुच उसे न्यायकर्ता के लेेखक को दिया।
पुरश्री : वाह वाह आते ही झगड़ा होने लगा! यह क्या बात है।
गिरीश : एक सोने के छल्ले के लिये, एक टके की मुँदरी के लिये जो आपने दी थी और जिस पर यह वाक्य खुदा था जैसा प्रायः बिसातियों की छुरियों पर लिखा होता है-मुझसे स्नेह रक्खो और कभी जुदा न हो’।
नरश्री : तुम लिखने और मूल्य का क्या कहते हो। क्या तुमने लेने के समय शपथ नहीं खाई थी कि मैं उसे आमरण अपनी उँगली में रक्खूँगा और वह मेरे साथ समाधि में जायगी? यदि मेरा कुछ ध्यान न था तो भला अपनी कठिन सौगन्धों का तो ध्यान करते। हंह! न्यायी के लेखक को दिया! मैं भली भाँति जानती हूँ कि जिस लेखक को तुम ने दिया है उसके मुँह पर दाढ़ी कभी न निकलेगी।
गिरीश : क्यों नहीं, जब वह पूर्ण युवा होगा तो अवश्य निकलेगी।
नरश्री : हाँ, यदि स्त्री पुरुष हो सकती हो।
गिरीश : शपथ भगवान की, मैंने उसे एक लड़के को दिया, एक मझले कद के छोकरे को जो तुम से ऊँचा न था। यही विचारपति का लेखक था। उसने ऐसी मीठी मीठी बातें करके अँगूठी पारितोषिक में माँगी कि मैं अनंगीकार न कर सका और उसको सौंपते ही बनी।
पुरश्री : सुनो साहिब मैं स्पष्ट कहती हूँ कि इस विषय में सब दोष तुम पर है कि एक लड़के की बातों में आकर अपनी स्त्री का दिया हुआ पहला चिन्ह उसे दे डाला और वह वस्तु, जिस पर तुमने अपनी उँगली में पहनने के समय सौगन्ध की बौछार मचा दी थी और प्रतिज्ञा के ढेर लगा दिए थे, ऐसे सहज में दे डाली। मैंने भी अपने प्यारे स्वामी को एक अँगूठी दी है और उसने शपथ ले ली है कि उसे कभी जुदा न करे। यह देखिए यहाँ उपस्थित हैं। परन्तु उनकी सन्ती मैं शपथ खा सकती हूँ कि यदि कोई उन्हें कुबेर का भण्डार भी अर्पण करे तो यह उसे अपनी उँगली से न उतारें, दे डालना तो दूर है। तात्पर्य यह है कि गिरीश तुम ने अपनी स्त्री को व्यर्थ इतना बड़ा दुःख दिया। यदि मैं उसके स्थानापन्न होती तो इस समय क्रोध के मारे पागल हो जाती।
बसन्त : (आप ही आप) इस समय इससे उत्तम कोई उपाय नहीं कि मैं अपना बायाँ हाथ काट डालूँ और शपथ खा लूँ कि जहाँ तक बस चला रक्षा की परन्तु अन्त को जब हाथ कट गया तो उसी के साथ अँगूठी भी गई।
गिरीश : मेरे स्वामी बसन्त ने अपनी अँगूठी विचाराधीश को उसकी प्रार्थना पर दे दी और निस्सन्देह उसने काम भी ऐसा ही किया था। इस पर उसके लेखक ने लिखाई की सन्ती मेरी अँगूठी माँगी और अभाग्य यह है कि उसे और उसके स्वामी दोनों को इस बात का आग्रह हुआ कि सिवाय इन अँगूठियों के और कोई वस्तु हाथ से न छुएँगे।
पुरश्री : क्यों साहब आपने कौन सी अँगूठी दी? वह तो काहे को दी होगी जो आपने मुझ से पाई थी।
बसन्त : यदि मुझे झूठ बोल कर अपने अपराध को दूना कर देना स्वीकार हो तो हाँ निस्सन्देह अस्वीकार करूँ परन्तु तुम देखती हो कि मेरी उँगली में अँगूठी नहीं है, वह जाती रही।
नरश्री : ऐसे ही आपका निर्दय चित्त भी स्नेह से शून्य है। शपथ भगवान की, जब तक आप मेरी अँगूठी मेरे सामने लाकर न रखिएगा मैं आपके साथ अंक में सोना पाप समझूँगी।
पुरश्री : और मैं भी जब तक अपनी अँगूठी देख न लूंगी आपसे बात न करूँगी।
गिरीश से,
बसन्त : मेरी प्यारी पुरश्री, यदि तुम्हें विदित हो कि मैंने अँगूठी किसे दी, किसके लिये क्यों दी और कैसी निर्वशता से दी जब कि वह पुरुष सिवा उस अँगूठी के दूसरी वस्तु के लेने पर प्रसन्न ही नहीं होता था तो तुम्हारा क्रोध इतना न रह जाय।
पुरश्री : यदि आप को अँगूठी का गौरव विदित होता, या आपने उसके देने वाली को आधा भी दिया होता, या अपनी बात का कि मैं सदा अँगूठी प्राण सदृश रक्खूँगा नेक भी विचार किया होता तो आप उसे कभी अपने से जुदा न करते। भला कौन ऐसा मूर्ख होगा कि आप से निर्लज्जता के साथ एक रीति की वस्तु को माँग ले जाता, यदि आप ने कुछ भी चित्त से उसके न देने का यत्न किया होता। नरश्री का विचार मुझे यथार्थ प्रतीत होता है, मैं शपथ खा सकती हूँ कि आप ने अँगूठी अवश्य किसी स्त्री को दी।
बसन्त : प्यारी, मैं अपनी प्रतिष्ठा, अपने प्राण की शपथ खाकर कहता हूँ कि मैंने उसे किसी स्त्री को नहीं दिया वरंच एक वकील को, जिसने छ हजार रुपया लेना अस्वीकार किया और केवल वह अँगूठी माँगी। फिर भी मैंने निवेदन किया और उसे अप्रसन्न होकर चले जाने दिया यद्यपि यह वह पुरुष था जिसने मेरे प्यारे मित्र की जान बचाई थी। मेरी प्यारी तुम ही बतलाओ कि मैं क्या करता? मेरे शील ने सहन न किया कि ऐसे उपकारी को अप्रसन्न करूँ, मुझे बड़ी लज्जा पर्दे पड़ी और स्वभाव इस बात को सह न सका कि मैं अपनी मर्यादा में कृतघ्नता का धब्बा लगाऊँ। अन्त को मुझे विवश होकर अँगूठी उसके पीछे भेज देनी पड़ी। मेरी प्यारी मेरा अपराध क्षमा करो। शपथ है यदि तुम वहाँ होती तो अँगूठी को मुझ से छीन कर उस योग्य वकील को सौंप देती।
पुरश्री : अच्छा अब उस वकील की ओर से सचेत रहना और उसको मेरे घर के निकट कदापि न फटकने देना क्योंकि जिस वस्तु से मुझको प्रीति थी और आपने मेरे निहोेरे सदा अपने पास रखने की शपथ खाई थी वह उसके हाथ में आ गई तो मैं भी आप की भाँति उदारता पर कमर बाँधूँगी और जो कुछ वह मुझसे माँगेगा उसके स्वीकार करने से मुँह न मोड़ूँगी। पहिचान तो मैं उसको लूँ हीगी, इसमें किसी भाँति का सन्देह नहीं। अब आप को उचित है कि कभी रात के समय घर से बाहर न जायँ और आठ पहर मेरी रक्षा करते रहें। यदि आपने मुझे किसी दिन अकेला छोड़ा तो शपथ है अपने लज्जा की जिस पर अब तक किसी पुरुष की परछाईं नहीं पड़ी है, मैं उस वकील को अपने पास सुला लूँगी।
नरश्री : और मैं उसके लेखक को, इस लिये सावधान कभी मुझको मेरे भरोसे पर छोड़ कर न जाना।
गिरीश : अच्छा जैसा तुम्हारा जी चाहे करो, पर उस अवस्था में उसे मेरे पंजे से बचाए रहना नहीं तो लेखक साहब की लेखनी पर आपत्ति आ जायगी।
अनन्त : मैं ही अभागा इन झगड़ों का कारण हूँ।
पुरश्री : आप न उदास हूजिए, आपके आने की मुझे बड़ी प्रसन्नता है।
बसन्त : पुरश्री, इस बार मेरा अपराध जो निरी निर्वशता की अवस्था में हुआ क्षमा कर दो और अब मैं इन सब मित्रों के सामने तुमसे प्रतिज्ञा करता हूँ वरंच तुम्हारी आँखों की जिनमें मेरा प्रतिबिंब दृष्टि पड़ता है शपथ कर कहता हूँ कि-
पुरश्री : देखिए नेक आप लोग इस बात को विचारिए, वह मेरे दो नेत्रों में अपना दुहरा प्रतिबिंब देखते हैं यानी हर नेत्र में एक, इसलिये आप अपनी दुहरी सूरत की शपथ खाइए तो हाँ विश्वास हो।
बसन्त : अच्छा थोड़ा मेरी सुन लो। इस अपराध को क्षमा करो और अब मैं अपने जीवन की सौगन्ध खाता हूँ कि अब फिर कभी तुम्हारे सामने प्रतिज्ञा से भ्रष्ट न हूँगा।
अनन्त : मैंने एक बार रुपयों के बदले अपना शरीर इनके लिये धरोहर रक्खा था और यदि वह मनुष्य, जिसने आपके स्वामी की अँगूठी ली, न होता तो यह अब तक कभी का नष्ट हो गया होता। अब मैं इस बार अपने प्राण को जमानत में दे करके प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपके स्वामी फिर कभी जान बूझ कर अपना वचन न तोड़ेंगे।
पुरश्री : तो मैं आपको उनका जामिन समझूँगी। अच्छा उन्हें यह अँगूठी दीजिए और शपथ ले लीजिए कि इसको पहली से अधिक सावधानी के साथ रक्खें।
अनन्त : लो बसन्त इसको लो और शपथ खाओ।
बसन्त : शपथ भगवान की यह वही अँगूठी है, जो मैंने उस वकील को दी थी।
पुरश्री : और मैंने भी तो उसी से पाई। बसन्त मुझे क्षमा करना क्योंकि इसी अँगूठी के स्वत्व से वह मेरे साथ आकर सोया था।
नरश्री : और मेरे सुहृद गिरीश आप भी मेरा अपराध क्षमा करें क्योंकि वही मझलाकद वकील का लेखक इस अँगूठी के बदले कल रात को मेरे साथ सोया हुआ था।
गिरीश : ऐं, यह तो मानो भरी बरसात में खेत को कुएँ के पानी से सींचना है। क्या हम लोगों में कोई दोष पाया जो हमारी स्त्रियों ने हमें अपना भँडुआ बनाया।
पुरश्री : इतनी असभ्यता से मत बको। आप लोग चकित हो गए। लीजिए यह पत्र पाण्डुपुर से बलवन्त के पास से आया है, इसे अवकाश के समय पढ़ियेगा, उससे आपको विदित होगा कि पुरश्री वकील थी और नरश्री उसकी लेखक। लवंग उपस्थित है वह साक्षी ही देंगे कि ज्योंही आप सिधारे मैं भी उसी क्षण चल दी और अभी चली आती हूँ, यहाँ तक कि घर में पैर नहीं रक्खा। अनन्त महाराज आपका आगमन मंगल, मैं आपको वह समाचार सुनाती हूँ जिसका आपको स्वप्न में भी ध्यान न होगा। इस पत्र की मुहर तोड़ कर पढ़िये, इसमें आप देखिएगा कि आपके तीन जहाज अनमोल माल से लदे हुए घाट (बन्दरगाह) में आ गए हैं। परन्तु मैं आपको यह न बतलाऊँगी कि मेरे हाथ यह पत्र क्योंकर लगा।
अनन्त : मेरे मुख से तो शब्द नहीं निकलता।
बसन्त : आप ही वकील थीं और मैंने पहचाना तक नहीं!
गिरीश : आप ही वह लेखक हैं जो मुझे जोरू का भँडुआ बनाया चाहती थीं?
नरश्री : जी हाँ, पर वह लेखक जिसकी इच्छा कभी ऐसा करने की नहीं परन्तु हाँ उस अवस्था में कि वह स्त्री से पुरुष बन सके।
बसन्त : मेरे सुहृद वकील अब आपको मेरे साथ सोना होगा और जब मैं न रहूँ उस समय मेरी स्त्री के साथ सोइए।
अनन्त : बबुई आपने जीवन और उसकी सामग्री दोनों मुझे दी, क्योंकि इस पत्र से विदित हुआ कि वास्तव में मेरे जहाज कुशलता के साथ बन्दरगाह में आ गए।
पुरश्री : लवंग, मेरे लेखक के पास आपके लिये भी कुछ सौगात प्रस्तुत है।
नरश्री : और मैं आपको बिना लिखाई लिए सौंपती हूँ, लीजिये यह उस धनी जैनी ने आपको और जसोदा को एक दानपत्र अपनी सारी संपत्ति का लिख दिया है, जिसके आप लोग उसके मरने पर उत्तराधिकारी होंगे।
लवंग : महाशय जी, यह मानो भूखों के सामने मोहनभोग का ढेर लगा देना है।
पुरश्री : सबेरा हो गया अब तक मेरी जान में आप लोगों को इन सब बातों के विषय पूरा तोष नहीं हुआ, इसलिये उचित होगा कि भीतर चल कर जो जो सन्देह हों उनके विषय मुझसे प्रश्न कीजिए और ब्योरेवार वृत्तान्त सुनिए।
गिरीश : बहुत ठीक-
है जब तक मेरे दम में दम डरूँगा हर घड़ी हर दम।
रहेगा रात दिन खटका नरश्री की अँगूठी का।
(सब जाते हैं)
इति