स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा,
(तुरहियाँ बजती हैं। पुरश्री और मोरकुटी का राजुकुमार अपने अपने साथियों के साथ आते हैं)
पुरश्री : जाओ, पर्दे उठाओ और इस प्रतिष्ठित राजकुमार को तीनों सन्दूक दिखलाओ। अब आप पसन्द कर लें।
मोरकुटी : पहला सन्दूक सोने का है जिस पर यह लेख लिखा है। "जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उस वस्तु को पावेगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं।"
दूसरा चाँदी का है जिस पर यह प्रतिज्ञा लिखी है।
"जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।"
तीसरा कुन्त सीसे का है जिस पर भी वैसी ही धमकी लिखी हुई है। "जो कोई मुझे पसन्द कर वह अपनी सब वस्तुओं को भय में डाते और उनसे हाथ धोवै।"
भला मैं कैसे जानूँगा कि मैंने सही सन्दूक चुना?
पुरश्री : इनमें से एक में मेरी तस्वीर है-यदि आप उसे चुनेंगे तो मैं भी उस चित्र के साथ आप की हो जाऊँगी।
मोरकुटी : कोई देवता इस अवसर पर मेरी सहायता करता! देखूँ तो;
मैं इस सन्दूकों के परिलेखों पर फिर तो विचार करूँ। इस सीसे के सन्दूक पर क्या लिखा है?
"जो कोई मुझे पसन्द करे वह अपनी सब वस्तुओं को भय में डाले और उनसे हाथ धोवै।"
हाथ धोवे-किस के लिये? सीसे के लिये? भय में डालना और सीसे के लिये? यह सन्दूक तो बहुत ही धमकाता है; लोग जो अपनी सब वस्तुओं को जोखों में डालते हैं तो अच्छे अच्छे लाभ की आशा में; सहृदय वू$ड़े करकट की ओर कब झुक सकता है; तो मैं सीसे के लिये न किसी वस्तु से हाथ धोऊँगा और न उसे भय में डालूँगा। अब देखो यह चाँदी जिसकी रंगत अल्पवयस्क कामिनियों की सी है क्या कहती है? "जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।" उतना जितने के वह योग्य है?-मोरकुटी के राजकुमार नेक ठहर और हाथ साध कर अपनी योग्यता को तौल। यदि तू अपने नाम की ख्याति के अनुसार आँका जाय तो तू निस्सन्देह बहुत कुछ पाने के योग्य है, पर कौन जाने कदाचित यह कुमारी इस बहुत कुछ से बढ़कर हो। किन्तु इसी के साथ अपनी योग्यता में सन्देह करना भी निर्बलता की बात है और अपनी योग्यता में बट्टा लगाना है। उतना जितने के मैं योग्य हूँ? वाह वह तो यही कुमारी है; मैं अपनी उत्पत्ति, अपनी लक्ष्मी, अपनी शिक्षा, अपनी चालचलन हर बात से उसके पाने की क्षमता रखता हूँ, पर सबसे बढ़ कर अपने प्रेम के ध्यान से मैं अपने को उसके योग्य कह सकता हूँ। तो अब मैं आगे क्यों भटकूँ और इसी को चुन लूँ-पर एक बार सोने के सन्दूक की लिपि को फिर तो देखूँ। 'जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उस वस्तु को पावेगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं।'
वाह वह तो यही कुमारी है; सारा संसार इसकी इच्छा रखता है और पृथ्वी के चारों कोनों से लोग इस जागृत महात्मा के पैर चूमने को चले आते हैं। हरिद्वार के जंगल और बीकानेर के उजाड़ मैदान दोनों आज कल पुरश्री के प्रणयी राजकुमारों के लिये साधारण मार्ग हो रहे हैं। समुद्र जिसका अभिमानी मस्तक आकाश के मुँह पर थूकता है उसका भय भी आने वालों के साहस को नहीं तोड़ सकता और लोग पुरश्री के देखने की लालसा में उस पर से ऐसे चले आते हैं जैसे कोई एक छोटे से नाले को पार करता हो। इन सन्दूकों में से एक में उसका मनोहर चित्र है। क्या यह सम्भव है कि वह सीसे के भीतर हो? ऐसा तुच्छ विचार मेरे नाश का कारण होगा।
सीसा तो अंधेरी समाधि में उसके कफन के रखने के लिये भी एक बड़ी भद्दी वस्तु होगी। या यह समझूँ कि वह चाँदी में बन्द है जिसका मूल्य खरे सोने से दस गुना कम है? ऐसा सोचना ही पाप है! भला कभी भी ऐसा लभ्य रत्न सोने से कम मूल्य वाले पदार्थ में जड़ा गया है? अंग में एक सोने का सिक्का होता है जिस पर पार्षदों का चित्र खुदा रहता है, परन्तु वह तो ऊपर खुदा रहता है और यहाँ सचमुच एक अप्सरा सोने के बिछौने पर भीतर मग्न है। अच्छा मुझे ताली दो मैं इसी को चुनता हूँ आगे जो कुछ मेरे भाग्य में हो!
पुरश्री : यह लो राजकुमार यदि मेरी तस्वीर इसके भीतर निकली तो मैं आपकी हो चुकी। (सोने के सन्दूक को खोलता है)
मोरकुटी : हाय अन्धेर! यह क्या निकला। एक खोपड़ी जिसकी आँख के गढे़ में एक लिपटा हुआ पत्र खोसा है। इसे पढूँ तो सही-
"करि विचार देखहु जिय माहीं।
कितने ही मम छबि ललचाने।
जे समाधिगन कनक रँगाये।
जिमि तुम अंग वीर रस साना।
जिमि तुमरे तन जोबन जोती।
तो न होत यह पढ़ि òम नासा।
सचमुच सर्द और श्रम व्यर्थ, तो अब गर्मी को विदा और सर्दी से काम-पुरश्री का ईश्वर रक्षक हो! मेरा जी इतना टूट गया है कि अब एक दम ठहरने का सामथ्र्य नहीं रखता। जिसका मनोरथ पूरा नहीं होता वे ऐसे ही विदा होते हैं।
(जाता है)
पुरश्री : अच्छी छूटी, जाओ परदों को गिराओ। यदि इस राजकुमार की रंगत के सब लोग मुझे इसी भाँति बरैं तो क्या बात है।
(सब जाते हैं)