(बसन्त और शैलाक्ष आते हैं)
शैलाक्ष : छः सहस्र मुद्रा-हूँ।
बसन्त : हाँ साहिब-तीन महीने के वादे पर।
शैलाक्ष : तीन महीने का वादा-हूँ।
बसन्त : और इसके लिये, जैसा कि मैं आप से कह चुका हूँ, अनन्त जामिन होंगे।
शैलाक्ष : अनन्त जामिन होंगे-हूँ।
बसन्त : तो आप मुझे देंगे? आप से मेरा काम निकलेगा? मैं आप के उत्तर की राह देखता हूँ।
शैलाक्ष : छः सहस्र मुद्रा तीन महीने का वादा-और अंनत की जमानत।
बसन्त : जी हाँ। आप क्या उत्तर देते हैं?
शैलाक्ष : अनन्त है तो अच्छा मनुष्य।
बसन्त : क्यों क्या आपने इसके विरुद्ध कुछ सुना है?
शैलाक्ष : नहीं नहीं, मेरा अभिप्राय उनके अच्छे होने से यह है कि उनकी जमानत ही बहुत है-यद्यपि आजकल उनकी दशा हीन है क्योंकि उनका एक जहाज विपुल को गया है दूसरा हिन्दुस्तान। को सुना है कि बाजार में भी कुछ व्यवहार है, एक तीसरा जहाज मौक्षिक में तथा चैथा अंग देश में है। इसी भाँति इधर-उधर और बन्दरों में भी उनकी जोखों है। परन्तु जहाज फिर भी काठ ही है और मल्लाह भी मनुष्य ही है; चूहे थल में भी होते हैं और जल में भी, वैसे ही चोर पृथ्वी पर भी होते हैं और पानी में भी अर्थात् डाकुओं का भय सभी स्थल है और फिर आँधी, तूफान और चट्टान का भय अलग लगा हुआ है पर फिर भी वह बहुत हैं-छः सहस्र मुद्रा-मैं समझता हूँ कि उनकी जमानत स्वीकार कर लूँगा।
बसन्त : सन्तोष रखिए उनकी जमानत निस्सन्देह ग्रहण करने योग्य है।
शैलाक्ष : मैं अपना मन भर लूँगा और किस तरह मेरा तोष होगा इस पर विचार करूँगा-मैं अनन्त से इसकी बातचीत कर सकता हूँ?
बसन्त : यदि दोपहर को कृपा कर के हम लोगों के साथ खाना खाइए तो वहाँ सब बात निश्चय हो जाय।
शैलाक्ष : जी हाँ सूअर सूँघने को और उस घर में खाने को जहाँ आप के देवताओं ने सब पिशाची की बातें भर दी हैं। मैं आप लोगों से लेन देन करूँगा बोलूँगा, आप के साथ चलूँ फिरूँगा और ऐसे ही दूसरी बातें करूँगा, परन्तु यह नहीं हो सकता कि मैं आप लोगों के साथ खाना खाऊँ, पानी पीऊँ या पूजा करूँ। बाजार की क्या खबर है?-यह कौन आता है।
(अनन्त आता है)
बसन्त : अनन्त आप आ पहुँचे।
शैलाक्ष : (आप ही आप) देखो इसकी सूरत ही से यह बात झलकती है कि यह हिन्दुओं को प्रसन्न करने के लिये जैनियों से शत्रुता रखता है। मैं इससे घृणा करता हूँ क्योंकि यह ईसाई है परन्तु मुख्यतः इस कारण से यह ऐसा निरुत्साह और नीच है कि लोगों को रुपया बिना ब्याज के ऋण दे दे कर हम लोगों के ब्याज का भाव बिगाड़ देता है। यदि एक बार भी मेरे हाथ चढ़े तो मैं सब पुरानी कसर निकाल लूँ। यह मनुष्य हमारी पवित्र जाति को तुच्छ समझता है और मेरी और मेरे व्यवहारों की निन्दा वहाँ भी नहीं छोड़ता जहाँ बहुत से व्यापारी इकट्ठा होते हैं। धम्र्मोपार्जित द्रव्य का ब्याज नाम रखता है। धिक्कार है मेरी जाति को यदि मैं इस मनुष्य से बदला न लूँ।
बसन्त : शैलाक्ष आपने सुना?
शैलाक्ष : मैं अभी आपने जी में हिसाब कर रहा था कि मेरे पास कितना रुपया तैयार है और जहाँ तक मैंने सोचा इस समय मेरे पास छः सहस्र रुपया न निकलेगा-पर इससे क्या? मैं त्रयंबक से जो मेरी जाति का एक धनिक पुरुष है शेष मुद्रा से लूँगा। परन्तु नेक ठहरिए-कै महीने की मिती आप चाहते हैं? (अनन्त से) प्रणाम महाशय, आपकी बड़ी आयु है, अभी आप ही का हम लोग वर्णन कर रहे थे।
अनन्त : शैलाक्ष यद्यपि मैं ब्याज पर रुपये का कभी लेन देन नहीं करता तो भी अपने मित्र की अत्यन्त आवश्यकता को समझ कर अपने नियम के तोड़ने पर प्रस्तुत हूँ। बसन्त तुम इनसे कह चुके हो कि कितने रुपये की आवश्यकता है?
शैलाक्ष : हाँ हाँ-छः सहस्र मुद्रा।
अनन्त : और तीन महीने के लिये।
शैलाक्ष : हाँ मैं भूल गया था-तीन महीने के मिती पर-आप कह चुके हैं-तो किन प्रतिज्ञाओं पर, नेक ठहरिए-किन्तु सुनिए तो सही अभी आपने कहा था कि हम सूद पर लेन देन नहीं करते।
अनन्त : मैं इसका व्यापार कभी नहीं करता।
शैलाक्ष : जब कि यादव अपने मामा लवेन्द्र की भेड़ों को चराते थे-तो उनको उनकी माँ की चातुरी से बरकत मिली थी।
अनन्त : तो उनके नाम से यहाँ क्या तात्पर्य है? क्या वह सूद खाते थे?
शैलाक्ष : नहीं ब्याज नहीं खाते थे, जिसे आप सूद कहते हैं ठीक वैसा ब्याज नहीं लेेते थे-सुनिए वह क्या उपाय करते थे। जब कि लवेन्द्र और उनमें परस्पर यह बात निश्चय हुई कि जितने भेड़ों के बच्चे धारीदार और चितकबरे पैदा हों वह यादव को वेतन में मिलें तो यादव ने चतुराई से बहुत सी हरी छड़ियाँ काट कर और स्थान स्थान से छिलका उड़ा कर उन्हें गण्डेदार बनाया और उठी हुई भेड़ों के सामने गाड़ दिया और जब यह गाभिन हुईं तो इसके प्रयोग से चितकबरे बच्चे उत्पन्न हुए, जो यादव के भाग में आये। यह लाभ उठाने का एक उपाय था और यादव पर ईश्वर की कृपा थी क्योंकि लाभ भी होना ईश्वर की कृपा है, यदि मनुष्य उसको चोरी से न उपार्जन करे।
अनन्त : यह तो ईश्वर की दया थी जिससे यादव ने अपने परिश्रम का इस प्रकार से फल पाया। इसमें उनका कुछ वश न था वरंच केवल ईश्वर की माया से यह बात प्रकट हुई। पर क्या आपका यह तात्पर्य है कि इतिहास में इस कथा के लिखने से यह अभिप्राय था कि ब्याज लेना उचित समझा जाय, या आप अपने रुपये और अशरफी को भेड़ी समझते हैं।
शैलाक्ष : मैं यह नहीं कह सकता परन्तु मैं उनसे बच्चे वैसे ही शीघ्र उत्पन्न कर लेता हूँ। परन्तु नेक इस बात को सुनिए।
अनन्त : बसन्त इस पर विचार करो, राक्षस भी अपने स्वार्थ के लिये इतिहास और पुराण का प्रमाण दे सकता है। दुष्ट मनुष्य जो अपनी निष्कलंकता प्रकट करता है एक हँसमुख बात करनेवाला होता है। वह एक सेब की भाँति है जिसका छिलका बहुत स्वच्छ और उत्तम है परन्तु भीतर बिलकुल सड़ा हुआ है, देखो झूठ की सूरत देखने में कैसी चिकनी चुपड़ी होती है।
शैलाक्ष : छः हजार रुपया-यह तो एक पूरी जमा है-और महीने भी तीन-तो हमें भाव सोचने दीजिए।
अनन्त : स्पष्ट कहो रुपया देना है या नहीं।
शैलाक्ष : अनन्त महाशय आपने बाजार में सहस्रों ही बार मेरे धन और लाभ के लिये मेरी दुर्दशा की होगी पर मैंने क्षमा करने के सिवाय कभी कुछ उत्तर नहीं दिया क्योंकि क्षमा हमारी जाति का चिन्ह है। आप मुझे नास्तिक, गलकट्टा और कुत्ता कह कर मेरे जातीय परिधान पर थूकते थे और यह सब केवल इस अपराध के लिये कि मैं अपनी जमा को जिस भाँति चाहता हूँ काम में लाता हूँ। अस्तु तो अब जान पड़ता है कि आप मेरी सहायता के अपेक्षी हैं। आप मेरे पास आए हैं और कहते हैं कि शैलाक्ष हमें रुपया ऋण दो-ऐं आप ऐसा कहते हैं, आप जो मेरी डाढ़ी को अपना उगालदान समझते थे और मुझे ठीक इस तरह ठोकर मारते थे जैसे कोई अपनी देहली पर अनजान कुत्ते को मारता है। आपकी प्रार्थना रुपये की है-इसका मैं आपको क्या उत्तर दूँ? क्या मैं आपसे यह पूछूँ कि साहिब कही कुत्ते के पास भी रुपया सुना है? कभी संभव है कि अपवित्र कुत्ता भी छः सहस्र मुद्रा ऋण दे सके? या नम्रता से सिर झुका कर भृत्य की भाँति काँपता हुआ धीमे स्वर से निवेदन करूँ ‘महाराज ने कृपापूर्वक मुझ पर गए बुध को थूका था और फलाने दिन ठोकर मारी थी और फलाने दिन कुत्ते की उपाधि दी थी, अतः इन कृपाओं के बदले मैं उतना रुपया देने को प्रस्तुत हूँ?’
अनन्त : मैं तुझे फिर भी ऐसा कहूँगा और तुझ पर थूकूंगा और लात मारूँगा। यदि तुझे रुपया उधार देना है तो मुझे अपना मित्र समझ कर मत दे (क्योंकि मित्रता रुपये से जो एक बाँझ की भाँति है बच्चे कब उत्पन्न कर सकती है?) वरंच अपना शत्रु समझ कर जिससे भंगप्रतिज्ञ होने पर तुझे सर्व प्रकार से प्रतिज्ञानुसार दण्ड ग्रहण करने का मुँह पड़े।
शैलाक्ष : वाह वाह देखिए तो आपे कैसा आपने से बाहर हो गये! मैं आपसे मित्रता का नाता रक्खा चाहता हूँ और पिछले बैरों को भुला कर आपके स्नेह की आशा रखता हूँ, मैं आपको रुपया उधार देने को प्रस्तुत हूँ और सूद एक पैसा नहीं चाहता तिस पर जो आप मेरी बात नहीं सुनते। क्या यह मेरा बर्ताव मित्रता का नहीं है?
अनन्त : यह आपकी दया है।
शैलाक्ष : मैं इस कृपा को दिखलाऊँगा। (अनन्त से) मेरे साथ किसी व्यवस्थापक के यहाँ चलिए और उसके सामने तमस्सुक पर अपनी मुहर कर दीजिए और हँसी की रीति पर वह शर्त लिख दीजिए कि यदि अमुक दिन और अमुक स्थान पर आप रुपया मेरा जिसका तमस्सुक में वर्णन है न चुका दें तो मुझे अधिकार होगा कि उसके बदले मैं आपके जिस शरीर के अंश से चाहूँ आध सेर माँस काट लूँ।
अनन्त : मैं चित्त से प्रसन्न हूँ और इन शर्तों पर मुहर कर दूँगा और यह भी कहूँगा कि इस जैन में बड़ी मनुष्यता है।
बसन्त : तुम मेरे लिये ऐसे तमस्सुक पर हस्ताक्षर न करने पाओगे इससे तो मैं अपनी दरिद्रावस्था में रहना ही श्रेय समझूँगा।
अनन्त : क्यों? डरो मत-प्रतिज्ञा भंग होने की घड़ी कदापि न आवेगी-दो महीने के भीतर अर्थात् तमस्सुक की मिती पूजने के एक महीना पहिले मुझे आशा है कि इसका तिगुना धन मेरे पास पहुँच जायगा।
शैलाक्ष : हे ईश्वर, ये आर्य भी कैसे मनुष्य होते हैं! जैसा इनका चित्त कठोर होता है वैसा ही औरों का भी समझ कर सन्देह करते हैं! भला यह तो बतलाइये कि यदि इन्होंने प्रतिज्ञा भंग की तो मुझे इस शर्त के पूरा कराने से क्या लाभ, होगा? मनुष्य के शरीर का आध सेर माँस किस रोग की औषधि है और वह किस गिनती में है? क्या वह उतना भी काम में आ सकता है जैसा भेड़ी बकरी का माँस? सुनिए केवल इनसे मैत्री करने के लिये मैं इनके साथ ऐसी कृपा करता हूँ, यदि यह इसे समझें तो अच्छी बात है नहीं तो प्रणाम, और मेरी प्रीति के बदले मेरे साथ बुराई न कीजिएगा।
अनन्त : हाँ शैलाक्ष मैं इस तमस्सुक पर मुहर कर दूँगा।
शैलाक्ष : तो अभी व्यवस्थापक के घर पर जाइए और इस हँसी की दस्तावेज के लिखने को कहिए। मैं भी शीघ्र ही जा कर थैली में छ हजार रुपये लिये हुए वहीं पहुँचता हूँ और अपना घर भी देखता आऊँगा जिसे एक बड़े बहुव्ययी और अविश्वासी भृत्य को सौंप आया हूँ-मैं सब काम करके बात की बात में आप से मिलता हूँ। (जाता है)
अनन्त : अच्छा झटपट जाओ। यह जैन ऐसा कृपालु होता जाता है कि आर्य बन जायगा।
बसन्त : मैं चिकनी चुपड़ी बातें और दुष्ट अन्तःकरण नहीं पसन्द करता।
अनन्त : आओ, इसमें कोई धोका नहीं हो सकता क्योंकि मेरे जहाज मिती पूजने के एक महीना पहिले अवश्य ही पहुँच जायँगे। (जाते हैं)