स्थान-वंशनगर की एक सड़क
(शैलाक्ष, सलारन, अनन्त और कारागार के प्रधान आते हैं)
शैलाक्ष : प्रधान इससे सचेत रहो; मुझसे दया का नाम न लो। यही वह मूर्ख है जो लोगों को बिना ब्याज रुपये ऋण दिया करता था। प्रधान इससे सावधान रहो।
अनन्त : मेरे सुहृद शैलाक्ष कुछ तो मेरी सुन लो।
शैलाक्ष : मैं तमस्सुक के प्रणों को नहीं तोड़ने का, उसके विरुद्ध कुछ मत कहो। मैं इस बात की शपथ खा चुका हूँ कि अपने तमस्सुक की शर्तों पर दृढ़ रहूँगा। तुम ही न इस मुकद्दमे के होने से पहले मुझे कुत्ता कहा करते थे। अच्छा मैं तो तुम्हारे कहने अनुसार कुत्ता हो ही चुका पर नेक मेरे पंजों से डरते रहना; मण्डलेवश्वर साहिब मेरा विचार करेंगे! मुझे तो ऐ दुष्ट प्रधान तुझ पर आश्चर्य होता है कि तुझे क्या मूर्खता सूझी है जो इसकी बातों में आकर इसे बेखटके इधर उधर लिए फिरता है।
अनन्त : भगवान के वास्ते एक बात तो मेरी सुन लो।
शैलाक्ष : मुझे अपने तमस्सुक से काम है, मैं कदापि तुम्हारी बात न सुनूंगा, मुझे केवल अपने तमस्सुक से काम है; बस अब अधिक गिड़गिड़ाने से क्या लाभ। मैं कुछ ऐसा चित्त का दुर्बल अथवा आँखों का अंधा थोड़े ही हूँ जो सिर हिला कर खेद करूँ, आहें भरूँ और आर्यों के समझाने बुझाने में आकर पिघल जाऊँ। मेरे पीछे न आओ, मैं कदापि सुनने का नहीं, मुझे अपने तमस्सुक से काम है।
(शैलाक्ष जाता है)
सलारन : मनुष्य की आकृति में ऐसा पाषाणहृदय कुत्ता काहे को निकलेगा।
अनन्त : जाने दो, अब मैं उसके पीछे व्यर्थ गिड़गिड़ाता न फिरूँगा। वह मेरे प्राण लेने की चिन्ता में है और इसका कारण भी मैं भलीभाँति जानता हूँ। प्रायः मैंने बहुतेरे लोगों को जो मेरे पास आकर रोए हैं उसके पंजे से छुड़ाया है और इसी कारण से वह मेरा प्राणघातक शत्रु हो रहा है।
सलारन : मुझे निश्चय है कि मण्डलेश्वर उसकी शर्त को कदापि स्थिर न रहने देंगे।
अनन्त : क्यों नहीं, मण्डलेश्वर कानून के उद्देश्य को जिससे विदेशी वंशनगर में आकर बेखटके लेन देन करते हैं क्योंकर बदल सकते हैं। यदि अस्वीकार किया जाये तो यहाँ के राज्य का अपवाद है क्योंकि इस नगर का वाणिज्य और लाभ सब जाति वालों के मिलाप होने के कारण है। अच्छा तो अब तुम जाओ। जो दुःख और क्षतियाँ मैंने इधर उठाई हैं उनके कारण मेरी अवस्था ऐसी नष्ट हो गई है कि कदाचित कल तक मेरे रक्त के प्यासे ऋणदाताओं के लिए मेरे शरीर में आध सेर माँस भी शेष न रहे। आओ प्रधान चलो। ईश्वर करे कहीं बसन्त आ जाय और मुझे अपना ऋण चुकाते हुए देख ले, फिर मेरे जी में कोई लालसा शेष न रहेगी।
ख्सब जाते हैं,
भारतेन्दु हरिश्चंद्र की अन्य किताबें
आधुनिक हिंदी के जन्मदाता कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म उत्तर प्रदेश के काशी जनपद वर्तमान में वाराणसी में 9 सितंबर 1850 को एक वैश्य परिवार में हुआ था। भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता का नाम गोपालचंद्र था, जो एक महान कवि थे और गिरधर दास के नाम से कविताएँ लिखते थे। हरिश्चंद्र की माता का नाम पार्वती देवी था, जो एक बड़ी शांति प्रिय और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी, किन्तु दुर्भाग्यवश भारतेंदु हरिश्चंद्र की माता का देहांत 5 वर्ष की अवस्था पर और उनके पिता का देहांत उनके 10 वर्ष की अवस्था पर हो गया और इसके बाद का उनका जीवन बड़ा ही कष्टों में बीता। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके जन्म स्थान पर हुई फिर भी उनका मन हमेशा पढ़ाई से दूर भागता रहा, किंतु अपनी प्रखर बुद्धि के कारण वह हर परीक्षा में उत्तीर्ण होते चले गए। अंततः उन्होंने केवीन्स कॉलेज बनारस में प्रवेश लिया भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उस समय के सुप्रसिद्ध लेखक राजा सितारे शिवप्रसाद हिंद को अपना गुरु मान लिया था और उनसे ही उन्होंने अंग्रेजी भाषा का ज्ञान सीखा, जबकि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने संस्कृत, मराठी, बांग्ला, गुजराती, उर्दू आदि का ज्ञान घर पर ही अध्ययन करने के फलस्वरूप प्राप्त किया। जब भारतेंदु हरिश्चंद्र 15 वर्ष के हुए तो उन्होंने हिंदी साहित्य में प्रवेश किया, और 18 वर्ष की अवस्था में उन्होंने 1968 में कविवचन सुधा नामक एक पत्रिका निकाली जिस पत्रिका में बड़े-बड़े कवियों के लेख लिखे जाते थे। इसके पश्चात उन्होंने 1873 में हरिश्चंद्र मैगजीन 1874 में बाला बोधिनी नामक पत्रिका भी प्रकाशित की। भारतेंदु हरिश्चंद्र की आयु 20 वर्ष की हुई तब उन्हें ऑननेरी मजिस्ट्रेट के पद पर आसीन किया गया और आधुनिक हिंदी साहित्य के पिता के रूप में जाना जाने लगा। हिंदी साहित्य में उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि काशी के सभी विद्वानों ने मिलकर उन्हें भारतेंदु की अर्थात भारत का चंद्रमा की उपाधि प्रदान की। भारतेंदु हरिश्चंद्र के द्वारा भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, श्री चंद्रावली, नील देवी, प्रेम जोगनी, सती प्रताप के साथ अन्य कई नाटक रचे गए हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र एक बहुत ही प्रसिद्ध निबंधकार के रूप में भी हिंदी साहित्य में जाने जाते हैं। उनके द्वारा लिखे गए कुछ निबंध संग्रह नाटक, कालचक्र (जर्नल), लेवी प्राण लेवी, कश्मीर कुसुम, जातीय संगीत, हिंदी भाषा, स्वर्ग में विचार सभा, आदि तथा निबंध काशी, मणिकर्णिका, बादशाह दर्पण, संगीतसार, नाटकों का इतिहास, सूर्योदय आदि है।
प्रेम मालिका, प्रेम सरोवर, प्रेम माधुरी, प्रेम तरंग, होली, वर्षाविनोद, कृष्णचरित्र, दानलीला, बसंत, विजय बल्लरी आदि भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती जैसी आत्मकथाऐं लिखी है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक माना जाता है, इसीलिए 1857 से लेकर 1900 तक के काल को भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है। ऐसे महान हिंदी साहित्य के नाटककार निबंधकार और कहानीकार का नाम हमेशा हिंदी साहित्य में सम्मान के साथ लिया जायेगा। D