स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा
(नरश्री एक नौकर के साथ आती है)
नरश्री : शीघ्रता करो; पर्दे को झटपट उठाओ; आर्यग्राम के राजकुमार शपथ ले चुके और सन्दूक चुनने के लिये पहुँचा ही चाहते हैं। (तुरहियाँ बजती हैं। पुरश्री और आर्यग्राम का राजकुमार अपने अपने मुसाहिबों के सहित आते हैं।)
पुरश्री : अवलोकन कीजिए, ऐ प्रसिद्ध राजकुमार, वह सन्दूक रक्खे हैं। यदि आपने उस मंजूषा को चुना जिसके भीतर मेरी छबि है तो अभी आप के साथ मेरे विवाह के उपचार हो जायँगे परन्तु यदि आप भ्रम में पड़े तो शीघ्र ही मुख से एक वर्ण उच्चारण किए बिना आप को यहाँ से चले जाना पड़ेगा।
आ. रा. : मुझे शपथ है कि प्रण के अनुसार तीन बातों का ध्यान रखना होगा। पहिले इस बात को किसी पर प्रकट न करना कि मैंने कौन सा सन्दूक चुना था; दूसरे यदि मैं लक्ष्य मंजूषा को न चुन सकूँ तो फिर अपनी अवस्था भर किसी स्त्री की ओर प्रणय की दृष्टि से न देखूँ , तीसरे यदि मैं सन्दूक के चुनने में त्रुटि करूँ तो शीघ्र ही तुमसे पृथक् हो कर अपनी राह लूँ।
पुरश्री : जो कोई मुझ अधम के प्राप्त करने का प्रयत्न करता है उसे इन्हीं प्रणों के अनुसरण करने की सौगन्ध खानी पड़ती है।
आ. रा. : और मैं भी तो उसी को अनुकूल कर चुका। हे ईश्वर मेरे मन का मनोरथ पूरा कर!-सोना, चाँदी और तुच्छ सीसा। "जो कोई मुझे चाहे वह अपनी सब वस्तुओं को विघ्न में डाले और उनसे हाथ धो बैठे।"
वाह, इसी रूप पर? नेक अपने मुख की श्यामता को धो ले सब विघ्न डालने और हाथ धोने की सुना और सोने का सन्दूक क्या कहता है? तनिक देखूँ तो सही; "जो कोई मुझे चाहेगा वह उस पदार्थ को पावेगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं।"
जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं। सम्भव है कि इस 'बहुत' का संकेत मूर्खों की ओर हो जो कि बाहरी चमक दमक पर जाते हैं और दृष्टि के ऐसे स्थूल होते हैं कि किसी वस्तु की आन्तरिक अवस्था को कदापि नहीं ज्ञात कर सकते, वरंच गोला कबूतर की भाँति अपने खोते को भय स्थान में घर की बाहरी दीवार पर बनाते हैं जहाँ कि हर समय भय रहता है। मैं उस वस्तु को नहीं चाहूँगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं क्योंकि मैं सर्वसाधारण के तुल्य नहीं हुआ चाहता और गँवार लोगों की सहायता नहीं किया चाहता। तो अब मैं तेरी ओर ध्यान देता हूँ ऐ चाँदी के सन्दूक, एक बार फिर तो बता तेरा क्या प्रण है, "जो कोई मुझे चाहेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।" भई सच्ची सच्ची तूने इसमें कही क्योंकि निज की योग्यता बिना कौन प्रतिष्ठा लाभ कर सकता है और कौन बड़ा हो सकता है। किसी मनुष्य को अपनी योग्यता से अधिक अधिकार पाने का साहस न करना चाहिए। अहा! कैसा अच्छा होता यदि अधिकार, उपाधि और पद उत्कोच से न मिल सकते और प्रतिष्ठा निष्कलंक बनी रहती अर्थात् केवल पाने वाले की योग्यता से मोल ली जा सकती। फिर कितने सिर जो अब मान सूचन में नंगे दिखलाई देते हैं टोपी से ढके हुए दृष्टि पड़ते। कितने लोग जो अब हाकिम हैं महकूम होते। कितने कमीन जो बड़े बन बैठे हैं मानियों में से दूध की मक्खी की भाँति निकाल दिए जाते और कितने प्रतिष्ठित जो समय के हेरफेर से साधारण में मिल गए हैं भूसी में से अन्न की भाँति छाँट कर बड़े पद तक पहुँचा दिए जाते। अस्तु, किन्तु मैं अपना काम देखूँ।
"जो कोई मुझे चाहेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।" मैं अपनी योग्यता को मान लेता हूँ। मुझे इसकी कुंजी दो तो मैं इसे तुरन्त खोलकर अपने भाग्य की परीक्षा करूँ।
(चाँदी के सन्दूक को खोलता है)
पुरश्री : क्या निकला? आह इतना क्यों रुके हैं?
आ. रा. : ऐं यह क्या है? एक झूंठे अंधे का चित्र जो मुझे एक पत्र दे रहा है! मैं इसे पढूँगा। हाँ! मुझमें और पुरश्री के स्वरूप में क्यों सादृश्य। और मुझसे और मेरी आशाएँ और योग्यता से क्या सम्बन्ध।
'जो कोई मुझे चाहेगा वह उतना पावेगा जिसके वह योग्य है।'
क्या मेरे मुँह के योग्य यही मूर्ख का मस्तक है? क्या मेरे लिये यही पारितोषिक है? क्या मेरी योग्यता इससे अधिक नहीं है।
पुरश्री : अपराध करना, और न्याय करना दो विरुद्ध बाते हैं और एक दूसरे के प्रतिकूल।
आ. रा. : इसमें लिखा क्या है?
(पढ़ता है)
जिमि यह उज्जल रजत सुहायो।
तिमि यह बुद्धिहु बहुत बिधि जाँची।
ऐसे बहु मूरख जग माँही।
पै कहूँ तिन को आस पुराई।
जो सुख छायहिं अंक लगाए।
ऐसे बहुत जग न अज्ञाना।
पै नहिं बुद्धि तिनहिं अछु आई।
जो रहिहै तुअ होइ निसानी।
ब्याहहु जाइ औरही काहू।
मैं जितनी देर तक यहाँ ठहरूँगा उतना ही अधिक मूर्ख बनूँगा, एक मूढ़ का सिर लेकर तो मैं ब्याह करने को आया पर अब दो लेकर जाता हूँ। प्यारी ईश्वर रक्षा करै! मैं अपनी सौगन्ध पर स्थिर रहूँगा और सन्तोष के साथ अपने दुःख को खाऊँगा।
(आर्यग्राम का राजकुमार अपने साथियों के सहित जाता है)
पुरश्री : वाह इस कर्पूरवर्ति का ने तो अच्छे उस पतंग के पंख जला दिए। समझदार मूर्ख ऐसों ही को कहते हैं। जिस समय वह सन्दूकों को चुनते हैं तो अपने मन की स्फूर्ति में सब बुद्धि को खो देते हैं।
नरश्री : यह पुरानी कहावत मिथ्या नहीं है-फाँसी और स्त्री दोनों का मिलना भाग्य से होता है।
पुरश्री : नरश्री आओ पर्दे को गिराओ।
(एक भृत्य आता है)
भृत्य : रानी साहिब कहाँ हैं?
पुरश्री : इधर, राजा साहिब क्या आज्ञा करते हैं?
भृत्य : सर्कार की डेवढ़ी पर वंशनगर का एक नवयुवक अपने स्वामी के आगमन का समाचार लेकर आया है। यह मनुष्य अपने स्वामी के प्रणाम के साथ बहुमूल्य सौगात भी लाया है। अब तक मैंने अभिलाष का ऐसा मनोहर दूत न देखा था। बसन्त ऋतु जो कि सुहावन ग्रीष्म के आगमन का समाचार देता है ऐसा प्रिय नहीं प्रतीत होता जैसा कि यह दूत जो अपने स्वामी के पहुँचने का समाचार लाया है।
पुरश्री : किसी भाँति चुप भी रह; मैं सोचती हूँ कि थोड़ी ही देर में तेरे मुँह से सुनूँगी कि वह मनुष्य तेरा कोई सम्बन्धी है क्योंकि उसकी प्रशंसा तू अत्यन्त कर रहा है। आओ नरश्री आओ; मैं इस अभिलाष के दूत को जो ऐसी नम्रता के साथ आता है अभी देखा चाहती हूँ।
नरश्री : ऐ कामदेव वह मनुष्य बसन्त का हो? जाती है,
। इति