स्थान-विल्वमठ में पुरश्री के घर का एक कमरा
(पुरश्री और नरश्री आती हैं)
पुरश्री : नरश्री मैं सच कहती हूँ कि मेरा नन्हा सा जी इतने बड़े संसार से बहुत ही दुःखी आ गया है।
नरश्री : मेरी प्यारी सखी यह बात तो आप तब कहतीं जब, भगवान न करे, जैसा आपका सुख है उसके बदले उतना ही दुख होता। परन्तु न जाने क्यों प्रायः ऐसा देखा है कि जो बहुत धनवान हैं वह भी संसार से वैसे ही घबड़ाए रहते हैं जैसे वह लोग जो भूखों मरते हैं। इसी से निश्चय होता है कि मध्यावस्था कुछ साधारण भाग्य की बात नहीं। लक्ष्मी बहुत शीघ्र श्वेत बाल करती है पर तृप्ति बहुत दिन तक जिलाती है।
पुरश्री : क्यों न हो तुमने कैसे मनोहर वाक्य कहे और कैसी अच्छी तरह।
नरश्री : यदि उनका बरताव किया जाय तो और उत्तम हो।
पुरश्री : यदि अच्छी बात का करना उतना ही सहज होता जितना कि उसका जानना तो सब मढ़ियाँ मंदिर और सब झोंपड़ियाँ महल हो जातीं। अच्छा गुरु वही है जो अपनी शिक्षा पर आप भी चलता है। बीस अच्छी बातें दूसरों को सिखलाना सहज हैं। किन्तु उनमें से अपनी शिक्षा के अनुसार एक पर भी चलना कठिन है। बुद्धि स्वभाव के ठण्डा करने के लिये बहुत से उपाय बतलाती है किन्तु समय पर क्रोध की गर्मी को कब रोक सकती है। यौवन का हिरन शिक्षा के फन्ते में से बहुत सहज से छूट जाता है। किन्तु इस बात से और पतिवरण करने से कोई सम्बन्ध नहीं। हाय! भला मेरे वरण करने का फल ही क्या? मैं तो न जिसे चाहूँ उसे स्वीकार कर सकती हूँ और न जिसे न चाहूँ, उसे अस्वीकार कर सकती हूँ। हाय! एक जीती लड़की को आशा एक मरे हुए बाप के मृतपत्र से कैसी रुक रही है। नरश्री क्या यह घोर दुःख की बात नहीं है कि न मैं किसी को स्वीकार कर सकती हूं और न अस्वीकार?
नरश्री : आपके बाप बड़े अच्छे और धर्मिष्ठ मनुष्य थे और ऐसे महात्माओं को मरने के समय अनुभव हुआ करते हैं। इससे सोने चाँदी और जस्ते के तीन सन्दूकों के निश्चय करने में जो बात उन्होंने सोची थी (जिसके अनुसार वह मनुष्य जो उनका बतलाया हुआ सन्दूक ग्रहण करेगा उसी का विवाह आपसे होगा) वह कभी बुराई न करेगी। मुझे निश्चय है कि चिंतित सन्दूक को वही मनुष्य चुनेगा जिसे आप जी से प्यार करती होंगी। परन्तु यह तो कहिए कि इतने राजकुमार और धनिक जो विवाह की आशा में आए हैं उनमें से किसी की ओर आपको कुछ भी स्नेह है या नहीं?
पुरश्री : तुम उनके नामों को मेरे सामने कहती जाओ तो मैं प्रत्येक के विषय में अपना विचार दर्शन करती जाऊंगी। इसी से तुम मेरे प्रेम का वृत्तान्त जान लोगी।
नरश्री : अच्छा तो नैपाल के राजकुमार से आरंभ कीजिए।
पुरश्री : छिः छिः! वह तो निरा बछेड़ा है, और कोई काम नहीं, बस रात दिन अपने घोड़ों ही का वर्णन। सारे अस्तबल की बला अपने सिर लिये रहता है और बड़ा भारी अभिमान इस बात पर करता है कि मैं अपने घोड़े की नाल आप ही बाँध लेता हूँ। वह तो बिल्कुल खोगीर की भरती है। निखट्टई नैपाली टट्टई।
नरश्री : और पाटन वाला?
पुरश्री : मरकहा बैल। रात दिन फूँ-फूँ किया करता है मानो उसको चितवन कहे देती है कि या तो ब्याह करो या साफ जवाब दो। सैकड़ों हँसी की बातें सुनाता है पर चाहे कि तनिक भी उसका थूथन पिचके। मुस्कुराना तो सपने में नहीं जानता। हँसी मानो जुए में हार आया है। अभी जब हट्टा कट्टा साँड बना है तब तो वह रोनी मूरत है तो बुढ़ापे में तो बात पूछते रो देगा। सिवाय हर हर भजने के और किसी काम का न रहेगा। मेरा ब्याह चाहे एक मुर्दे से हो पर इन भद्दे जानवरों से नहीं। भगवान इन दोनों से बचावे।
नरश्री : और भला फनेश देश के नरेश को आप कैसा समझती हैं?
पुरश्री : बेलगाम का ऊँट। मनुष्य के साँचे में ढल गया है बस इसी से मनुष्य कहा जाता है, नहीं तो निरा पशु। किसी की निन्दा करनी निस्सन्देह पाप है पर सच्ची बात यह है कि नैपाल के राजकुमार से जैसा एक चाशनी बढ़कर यह घुड़चढ़ा है वैसा ही पाटन वाले से बढ़कर नकचढ़ा। आप तो कुछ भी नहीं है पर छाया उसमें सब किसी की है। अभी गौरेया बोले तो आप उसकी तान पर नाचने लगें और अभी अपनी परछाइ देखें तो तलवार लेकर उससे लड़ने चलें। एक उससे न ब्याह किया मानो बीस मनुष्य से एक साथ ब्याह किया। यदि वह मुझसे घृणा करेगा तो मैं उससे कदापि अप्रसन्न न हूँगी वरंच अपना सौभाग्य समझूँगी क्योंकि यदि वह मेरे प्रेम में पागल भी हो जायगा तो मैं उसे प्यार न कर सकूंगी।
नरश्री : अच्छा, अंगदेश के नवयुवक धनी ब्रजपालक को आप क्या कहती हैं?
पुरश्री : तुम जानती हो कि मैं उसको कुछ नहीं कह सकती क्योंकि न वह मेरी बात समझता है न मैं उसकी। वह न हिन्ती जानता है न ब्रजभाषा न मारबारी और तुम शपथपूर्वक कह सकोगी कि मैथिल में मुझे कितना न्यून अभ्यास है। उसकी सूरत तो बहुत अच्छी है पर इससे क्या? खिलौने से कोई भी बातचीत कर सकता है? उसका पहिनावा कैसा बेजोड़ है। उसने अपना अंगा मारवाड़ में मोल लिया है, पाजामा मथुरा में बनवाया है, टोपी गुजरात से मँगनी लाया है, और चालढाल थोड़ी थोड़ी सब जगह से भीख मांग लाया है।
नरश्री : और उसका परोसी मालवा का अधिपति?
पुरश्री : परोस की सी क्षमा तो उसके स्वभाव में निस्सन्देह है क्योंकि उस दिन जब उस अंगवाले ने उसकी कनपटी पर एक घूसा मारा था तो उसने सौगन्ध खाई थी कि अवसर मिलेगा तो अवश्य बदला लूँगा। इस पर फनेश देशवाले के बीच में पड़ कर झगड़ा यों निबटा दिया कि रूसो मत दहिने के बदले बायाँ भी तुमको मिल जायगा।
नरश्री : और उस नवयुवक शम्र्मशय देश के मण्डलेश्वर के भतीजे को आप कैसा पसन्द करती हैं?
पुरश्री : राम राम! वह तो बड़ा भारी घनचक्कर है। सबेरे जब वह अपने आपे में रहता है तभी बहुत बुरा रहता है तो तीसरे पहर जब मद में चूर होता है तब तो और भी बुरा हो जाता है। अच्छी दशा में वह मनुष्य से कुछ न्यून रहता है और बुरी दशा में पशु से भी नीच हो ही जायगा। भगवान न करे यदि यह आपत्ति पड़े कि मुझको उससे विवाह करना हो तो जैसे हो सके वैसे मैं उससे दूर रहूँ।
नरश्री : भला यदि ऐसा हुआ कि उसने वही मंजूषा चुना जिसके चुनने से यह आपको पावे तब क्या कीजिएगा क्योंकि फिर तो विवाह न करना अपने बाप की इच्छा के विरुद्ध चलना है।
पुरश्री : इसीसे मैं तुम से कहती हूँ कि जिस मंजूषा में भूत की मूर्ति है उसके ऊपर एक उत्तम मद्य से भरा हुआ पाव रख दो क्योंकि भीतर भूत ऊपर मद्य बस यह उसी सन्दूक को चुनेगा। जैसे ही उस समुन्दर सोख अगस्त से बचाने का कोई उपाय करना ही पड़ेगा।
नरश्री : सखी आप इस बात का ताप मत कीजिए कि इन लोगों में से किसी से आप को विवाह करना पड़ेगा क्योंकि मैं सब के जी का हाल ले चुकी हूँ। यदि आप अपने बाप की आज्ञा के अनुसार मंजूषा के चुनने ही पर अपना निश्चय रक्खेंगी और कोई दूसरी प्रतिज्ञा न करेंगी तो यह सब के सब यहाँ से चले जायँगे और फिर विवाह की इच्छा प्रकट करके आपको कष्ट न देंगे।
पुरश्री : तुम निश्चय जानो कि यदि मुझे मारर्कंडेय की आयु मिले तो भी मैं अम्बालिका की तरह क्वारी मर जाऊँगी पर अपने पूज्य पिता की इच्छा के विरुद्ध कभी ब्याह न करूँगी। मुझको बड़ा आनन्द है कि इन सन्दूकों में ऐसी चातुरी है कि यह सब आपत्ति बिना मंत्र जंत्र के आप से आप दूर हो जाती है क्योंकि इनमें से ऐसा कोई नहीं जिसका मैं घड़ी भर रहना भी सह सकती हूँ।
नरश्री : क्यों सखी आपको स्मरण है कि नहीं कि आप के पिता के समय में फनित मठ के राजा के साथ वंशनगर का एक युवक बुद्धिमान और शूर मनुष्य आया था?
पुरश्री : हाँ वह बसन्त था-क्यों यहा न उसका नाम था?
नरश्री : हाँ सखी-जहाँ तक कि मुझ मूर्ख की समझ है सुन्दरी स्त्री के योग्य उससे उत्तम और कोई वर मुझे दृष्टि नहीं पड़ा।
पुरश्री : मुझको भलीभाँति स्मरण है और जो कुछ तुमने उसकी प्रशंसा की बहुत ठीक है।
(एक नौकर आता है)
क्यों क्यों! कोई नई बात है?
नौकर : बबुई साहिब ऊ चारों आदमी आप से बिदा होए कै ठाढ़ होएँ और एक पाँचवाँ का हरकारा आयल हौ सो कहत हौ की मोरकुटी कै राजकुमार ओकर मालिक आज राती के इहाँ पहुँचि हैं।
पुरश्री : यदि यह पाँचवाँ मनुष्य ऐसा होता है कि मैं उसके आने पर वैसी ही प्रसन्नता प्रकट कर सकती जैसी प्रसन्नता से इन चारों को विदा करती हूँ तो क्या बात थी। परन्तु यदि इसका रूप भूत का सा है और चित्त देवता का सा तो मैं उसका शाप देना इसकी अपेक्षा उत्तम समझूँगी कि वह मुझसे ब्याह करे। नरश्री चलो। नौकर तू आगे जा। एक गाहक जाने ही नहीं पाता कि दूसरा आ उपस्थित होता है। (सब जाते हैं)