(स्थान-शैलाक्ष के घर के सामने)
(गिरीश और सलारन भेस बदले हुए आते हैं)
गिरीश : यही बरामदा है जिसके नीचे लवंग ने हमें खड़े रहने को कहा था।
सलारन : उनका समय तो हो गया।
गिरीश : आश्चर्य है कि उन्होंने देर की क्योंकि अनुरागियों की चाल तो सदा घड़ी से तीव्र रहती है।
सलारन : ओह! नये अनुरागी कामदेव के कबूतर की भाँति अनुराग की दस्तावेज पर मुहर करने को तो दस गुने तेज उड़ते हैं पर फिर उसकी उलझन में उतने ही सुस्त हो जाते हैं।
गिरीश : यह तो नियम की बात है। किसी को भी खाने के पश्चात् वह भूख नहीं रह जाती है जो खाने पर बैठने के समय थी? कोई घोड़ा भी उस तीव्रगति के साथ लौट सकता है जिसके साथ वह चला था? संसार में जितनी वस्तुएँ हैं उनके मिलने से पूर्व जो उत्साह रहता है वह उनके मिलने पर नहीं रहता जैसा कि कहा भी है। "जो मजा इंतिजार में देखा, वह नहीं वस्ले यार में देखा।" जिस समय जहाज अपनी खाड़ी से रवाना होता है तो कैसा एक युवा व्यसनी अथवा बहुव्ययी के भाँति झंडियाँ फहराए हुए और दुष्ट वायु के गले लगा हुआ चला जाता है! पर जब वह लौटता है तो उसी बहुव्ययी की भाँति उसकी कैसी दुरव्यवस्था हो जाती है अर्थात् तूफान से किनारे टूटे हुए, पाल फटे हुए, निरातंक और व्याकुल! और यहा सब बुराइयाँ उसी कठोर वायु के द्वारा होती है।
(लवंग आता है)
गिरीश : वह देखो लवंग आ पहुँचे। उस विषय में हम लोग फिर बातचीत करेंगे।
लवंग : मेरे प्यारे मित्रो, मुझे विलम्ब के लिये क्षमा करना। इसमें अपराध मेरा न था वरंच आवश्यक कामों का। जब स्त्री चुराने की तुम्हारी बारी आवेगी तब मैं भी इतनी देर तक तुम्हारी राह देखूँगा। अच्छा इधर आओ, यहीं मेरा ससुरा जैनी रहता है। ऐ कोई भीतर है?
(जसोदा लड़के का कपड़ा पहिने हुए ऊपर से झांकती है)
जसोदा : तुम कौन हो? शीघ्र बतलाओ जिसमें मेरा पूरा सन्तोष हो जाय। यद्यपि मैं शपथ खा सकती हूँ कि मैं तुम्हारा शब्द पहिचानती हूँ।
लवंग : तुम्हारा प्रेमी लवंग।
जसोदा : निस्सन्देह तुम लवंग हो, और सचमुच मेरे प्यारे, क्योंकि मैं तुम्हारे सिवाय किसको प्यार करता हूँ? किन्तु प्यारे इस बात को सिवाय तुम्हारे कौन जान सकती है कि मैं भी तुम्हारी प्यारी हूँ या नहीं?
लवंग : इस बात का साक्षी तो ईश्वर और तुम्हारा मन है।
जसोदा : लो इस सन्दूक को सम्हालो, इसमें हम लोगों के परिश्रम का पूरा मिहनताना मिलेगा। मुझे हर्ष है कि रात का समय है और तुम मेरी सूरत नहीं देख सकते क्योंकि मुझे अपने इस वेष पर बड़ी लज्जा आती है; पर प्रेम अंधा होता है और प्रेमी अपनी मूर्खता की बातों को कभी नहीं देख सकते, क्योंकि यदि वह देख सकें तो कामदेव आप मुझे लड़के के वेष में देख कर लज्जित हो जाय।
लवंग : उतरो, क्योंकि तुम्हें मशाल दिखलानी होगी।
जसोदा : क्या मैं अपनी निर्लज्जता को आप ही मशाल लेकर दिखाऊँ। वह तो स्वयं अत्यन्त प्रकाशमान है। प्यारे, मशालची तो इसलिये होता है कि अंधेरे में की वस्तुओं को प्रकट करे पर मुझे तो उनके विरुद्ध अपने तईं छिपाना चाहिए।
लवंग : प्यारी तुम तो लड़के के सुहावने वेष में आप ही छिपी हो। परन्तु अब शीघ्रता करो क्योंकि रात, जो प्रेमियों की अवलम्ब है, बीतती जाती है और हम लोगों को अभी बसन्त के भोज में कुछ देर ठहरना है।
जसोदा : मैं द्वार बन्द करके और कुछ और रुपये ले कर अभी आती हूँ।
(ऊपर से जाती है)
गिरीश : मैं शपथ खा कर कह सकता हूँ कि यह जैन नहीं वरंच आर्या जान पड़ती है।
लवंग : मेरा बुरा हो यदि मैं इसे जी से न प्यार करता हूँ। यदि मेरी समझ ठीक है तो यह बुद्धिमती है, और यदि मेरी आँखें अन्धी नहीं हो गई हैं तो सुन्दर भी अत्यन्त ही है। सचाई इसकी जैसी कुछ है विदित है, अतः ऐसी बुद्धिमती, सुन्दरी और सच्ची युवती का मैं सदा मन से आज्ञाकारी रहूँगा।
(जसोदा नीचे आती है)
क्या तुम आ गई? चलो महाशयो, चलो, हमारे स्वाँग के साथी लोग हमारी राह देख रहे होंगे।
(जसोदा और सलारन के साथ जाता है)
अनन्त आता है,
अनन्त : कौन है?
गिरीश : अनन्त महाराज?
अनन्त : छी छी गिरीश! और लोग कहाँ हैं? नौ बज गया। हमारे सब मित्र तुम लोगों का बाट जोहते हैं। आज स्वाँग बन्द रहा क्योंकि अभी-अनुकूल वायु चला और वसन्त शीघ्र ही यात्रा करने जायँगे। मैंने बीसियों मनुष्यों को तुम्हारी खोज में चारों ओर दौड़ाया है।
गिरीश : मैं इस समाचार से बहुत प्रसन्न हुआ। मुझे स्वाँग से कहीं बढ़ कर इस बात में आनन्द मिलेगा कि आज ही रात को पाल उड़ाऊँ और चलता फिरता दिखलाई दूँ।
(जाते हैं)