स्थान-वंशनगर, एक सड़क
(सलोने और सलारन आते हैं)
सलोने : कहो बाजार का कोई नया समाचार है?
सलारन : इस बात का अब तक वहाँ बड़ा कोलाहल है कि अनन्त का एक अनमोल माल से लदा हुआ जहाज उस छोटे समुद्र में नष्ट हो गया; कदाचित् उस स्थान को लोग दुरूह कहते हैं जो एक बड़ी भयानक बालू की ठेंक है जहाँ कितने ही बड़े-बड़े अनमोल जहाज नष्ट हो गए हैं यदि यह समाचार निरी गप हाँकने वाली कुटनीक न हो।
सलोने : ईश्वर करे वह वैसी ही झूठी कुटनी निकले जो आँसू बहाने के लिए अपनी आँखों में लाल मिर्च मल लेती है, जिसमें लोगों पर अपने तीसरे पति के मरने का दुख प्रकट करे। पर यह सच है और मैं बिना इसके कि बात को बढ़ाऊँ या बातचीत की सीधी राह से मुड़ूँ, कहता हूँ कि सुहृद अनन्त धर्मिष्ठ अनन्त-हाय मुझे तो कोई ऐसा शब्द ही नहीं मिलता जिससे उसकी प्रशंसा सूचित हो सके।
सलारन : अच्छा तो अब तुम्हारा वाक्य समाप्त हुआ।
सलोने : वाह! क्या कहते हो? अच्छा तो उसका परिणाम यह है कि उनका एक जहाज नष्ट हो गया।
सलारन : मैं तो आशीर्वाद देता हूँ कि उनकी हानि यहीं पर समाप्त हो जाय।
सलोने : मैं भी झटपट एवमस्तु कह दूँ, कहीं ऐसा न हो कि भूत मेरी प्रार्थना में विघ्न करे क्योंकि यह देखो वह जैन की सूरत में चला आता है।
(शैलाक्ष आता है)
सलोने : कहो जी शैलाक्ष आज कल सौदागरों में क्या समाचार है?
शैलाक्ष : मेरी बेटी के भागने का हाल तुमको भलीभाँति विदित है तुमसे बढ़कर इस बात को कोई नहीं जानता, कोई नहीं जानता।
सलारन : इसमें भी कोई सन्देह है परन्तु यदि मुझसे पूछो तो मैं केवल इतना ही जानता हूँ कि अमुक दर्जी ने उसके लिये पर बनाये थे जिनके सहारे से उड़ी।
सलोने : और शैलाक्ष भी इस बात को जानता था कि उस चिड़िए के पर जम चुके हैं जिसके होने के सब पक्षियों का नियम है कि अपने माँ बाप के खोन्ते से निकल भागते हैं।
शैलाक्ष : वह इस अपराध के लिए अवश्य नरक में पड़ेगी।
सलारन : अवश्य यदि चेत भूत उसका न्यायकत्र्ता हो।
शैलाक्ष : ऐ! मेरा ही मांस और रुधिर मुझी से विरुद्ध हो!
सलोने : तुम भी पुराने घाघ होकर क्या ही वाही तबाही बकते हो! भला ऐसी युवा कुमारी के ऐसे कृत्य को विरुद्ध कह सकते हैं?
शैलाक्ष : क्या मेरी लड़की मेरा मांस और लहू नहीं है?
सलारन : तुम्हारे और उसके मांस में तो उससे भी अधिक अन्तर है जैसा कि नीलमणि और स्फटिक में होता है, तुम्हारे और उसके रुधिर में उससे भी अधिक अन्तर है जैसा कि सिंगर्फ और गेरू में होता है। पर यह तो कहो कि तुमने भी अनन्त के जहाज के नष्ट होने का कुछ हाल सुना है?
शैलाक्ष : वह मेरे लिये एक दूसरे घाटे की बात है; एक पूरा व्यर्थ व्यय करने वाला और दीवालिया जो अब बाजार में किसी को मुँह नहीं दिखला सकता, एक भिखमंगा जो किस बनावट के साथ बन ठन कर बाजार में आया करता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे; वह मुझे बड़ा ब्याज खाने वाला कहता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे; वह लोगों को बहुत अपनी आर्य दयालुता दिखलाने के लिए व्यर्थ रुपया ऋण दिया करता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे।
सलारन : क्यों, मुझे विश्वास है कि यदि वह अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सके तो तुम उनका मांस न माँगोगे; भला वह तुम्हारे किस काम में आ सकता है?
शैलाक्ष : मछली फँसाने के लिये चारे के काम में यदि वह और किसी वस्तु का चारा नहीं हो सकता तो मेरे बदले का चारा तो होगा। उसने मुझे अप्रतिष्ठित किया है और कम से कम मेरा पाँच लाख का लाभ रोक दिया है; वह सदा मेरी हानि पर हँसा है, मेरे लाभ की निन्दा की है, मेरी जाति की अप्रतिष्ठा की है, मेरे व्यवहारों में टाँच मारी है, मेरे मित्रों को ठंढा और मेरे शत्रुओं को गर्म किया है; और यह सब किस लिए? केवल इसलिये कि मैं जैनी हूँ। क्या जैनी की आँख, नाक, हाथ, पाँव और दूसरे अंग आर्यों की तरह नहीं होते? क्या उसकी सुधि, सुख और दुःख, प्रीति और क्रोध आर्यों की भाँति नहीं होता? क्या वह वही अन्न नहीं खाता उन्हीं शस्त्रों से घायल नहीं होता, वही रोग नहीं झेलता, उन्हीं औषधियों से अच्छा नहीं होता, उसी गर्मी और जाड़े से सुख और कष्ट नहीं उठाता जैसा कि कोई आर्य? क्या यदि तुम चुटकी काटो तो हम लोगों के रुधिर नहीं निकलता? क्या यदि तुम गुदगुदाओ तो हम लोगों को हँसी नहीं आती? क्या यदि तुम विष दो तो हम लोग मर नहीं जाते? तो फिर जो तुम हम पर अत्याचार करोगे तो क्या हम बदला न लेंगे? यदि हम लोग और बातों में तुम्हारे सदृश हैं तो इस बात में भी तुम्हारे तुल्य होंगे। यदि कोई जैनी किसी आर्य को दुःख दे तो वह किस भाँति अपनी नम्रता प्रकट कर सकता है? बदला लेकर। तो यदि कोई आर्य किसी जैन को क्लेश पहुँचावे तो इसे उसके उदाहरण के अनुसार किस प्रकार से सहन करना चाहिए? अवश्य बदला लेकर। जो पाजीपन तुम लोग मुझे अपने उदाहरण से सिखलाते हो उसे मैं कर दिखलाऊँगा और कितनी ही कठिनता क्यों न पड़े मैं बदला लेने में अवश्य तुमसे बढ़कर रहूँगा।
(एक भृत्य आता है)
भृत्य : महाशयो मेरे स्वामी अनन्त अपने घर पर हैं और आप दोनों से कुछ बातचीत किया चाहते हैं।
सलारन : हम लोग तो उनको चारों ओर खोज ही रहे थे।
(दुर्बल आता है)
सलारन : यह देखो एक दूसरा जैनी आया; अब तीसरा इनकी बराबरी का नहीं निकल सकता पर हाँ उस दशा में कि भूत आप ही एक जैन बन जाय।
(सलोने, सलारन और भृत्य जाते हैं)
शैलाक्ष : कहो जी दुर्बल जयपुर से क्या समाचार लाए? मेरी बेटी का पता लगाया?
दुर्बल : मैंने जहाँ जहाँ उसका समाचार सुना, वहाँ वहाँ पहुँचा परन्तु कहीं पता न लगा।
शैलाक्ष : वही, वही, वही वह हीरा ले गई जो मैंने दो सहस्र अशरफी से फरीदकोट में लिया था! ऐसा बड़ा ईश्वर का कोप हमारी जाति पर आज तक न गिरा था। मुझे तो आज तक उसका अनुभव न हुआ था-तो सहस्र अशरफी का एक हीरा और दूसरे अमूल्य रत्न अलग। अच्छा होता कि मेरी लड़की मेरी आँखों के सामने मर गई होती और वह रत्न उसके शरीर पर होते! अच्छा होता कि उसका शव मेरे पावों के नीचे गड़ता और अशरफियाँ उसके कफन में होतीं। उनका कुछ पता नहीं लगा? यही परिणाम हमारे प्रयत्नों का है और विदित नहीं कि इस खोज में कितना व्यय पड़ा-हाय यह हानि पर हानि! ‘मुफलिसी में आटा गीला!’ इतना तो चोर ले गया और इतना चोर की खोज में नष्ट हुआ। तिस पर न कुछ उसके सन्ती मिलने की आशा और न बदला निकलने की। किसी और के घर दुःख भी दृष्टि पड़ता जिसे देख धीरज हो। हाँ यदि है तो मेरी गर्दन पर सवार, कहीं से आह भी नहीं सुनाई देती सिवाय उसके जो मेरे हृदय से निकलती है, और न सिवाय मेरे किसी के आँसू गिरते हैं।
दुर्बल : ऐसा तो नहीं और लोग भी अपने अपने दुःख से खाली नहीं हैं। अभी मैंने जयपुर में समाचार पाया कि अनन्त का-
शैलाक्ष : क्या, क्या, क्या? दुःख दुःख?
दुर्बल : उसके जहाजों का एक बेड़ा त्रिपुल से आते समय राह में नष्ट हो गया।
शैलाक्ष : धन्य है ईश्वर को, धन्य है ईश्वर को, क्या यह समाचार सच्चा है? क्या यह समाचार सच्चा है?
दुर्बल : मैं आप उन खलासियों के मुँह से सुन आया हूँ जो जहाज के नष्ट होने से बच कर आए हैं।
शैलाक्ष : मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ अच्छे दुर्बल, बड़ा अच्छा समाचार लाए, बड़ा अच्छा समाचार लाए, अहाहा-कहाँ? जयपुर में?
दुर्बल : मैंने जयपुर में सुना कि तुम्हारी बेटी ने एक रात में अस्सी अशरफियाँ व्यय कीं!
शैलाक्ष : तू मेरे कलेजे में छुरी मारता है। अब मैं फिर अपनी अशरफियों को इन आँखों से न देखूँगा; हाय! अस्सी अशरफियाँ! एक बार में अस्सी अशरफियाँ!
दुर्बल : अनन्त के कई ऋणदाता मेरे साथ वंशनगर को आए जो शपथ खाकर कहते थे कि अब उसके काम का बिगड़ना किसी भाँति नहीं रुक सकता।
शैलाक्ष : बडे़ हर्ष की बात है; में उसे बहुत रुलाऊँगा, मैं उसे कोच कोच कर मारूँगा; बडे़ हर्ष का विषय है।
दुर्बल : उनमें से एक ने मुझे एक अँगूठी दिखलाई जो तुम्हारी बेटी ने उसे एक बन्दर के मोल में दी है।
शैलाक्ष : उसका नाम मत लो दुर्बल! तुम मेरे हृदय में रह रह के घात करते हो! वह मेरी नीलम की अँगूठी थी; मैंने उसे कमलाक्षी से पाया था जब कि मेरा ब्याह नहीं हुआ था; यदि मुझसे कोई बन्दरों का जंगल का जंगल देता तो भी मैं इस अँगूठी को अपने से पृथक् न करता।
दुर्बल : लेकिन अनन्त तो निस्सन्देह नष्ट हो गया।
शैलाक्ष : इसमें भी कोई सन्देह है, यह तो स्पष्ट है, यह तो भलीभाँति प्रकट है। जाओ दुर्बल उसके पकड़ने के लिए एक प्रधान ठहराओ, उसे पन्द्रह दिन पहले से पक्का कर रक्खो। यदि यह मुझे अपने प्रण के अनुसार रुपया न दे सका तो मैं इसका पित्ता निकलवा लूँगा, क्योंकि यदि यह काटा वंशनगर से निकल जाए तो मेरा व्यापार मनमाना चले। अच्छा दुर्बल अब जाओ और मुझसे मंदिर में मिलो, जाओ प्यारे दुर्बल; देखो हम लोगों को मंदिर में मिलना।
दोनों जाते हैं,