स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा
(बसन्त, पुरश्री, गिरीश, नरश्री, और उनके साथी आते हैं। सन्दूक रक्खे जाते हैं)
पुरश्री : भगवान के निहोरे थोड़ा ठहर जाइए। भला अपने भाग्य की परीक्षा के पहले एक दो दिन तो ठहर जाइए, क्योंकि यदि आप की रुचि ठीक न हुई तो आप के साथ रहने का आनन्द तुरन्त ही हाथ से जाता रहेगा। इसलिए थोड़ा धीरज धरिए, न जाने क्यों मेरा जी आप से पृथक् होने को नहीं करता, पर मैं समझती हूँ कि इसका कारण अनुराग नहीं है और यह तो आप भी कहेंगे कि घृणा का इससे सम्बन्ध नहीं हो सकता। किन्तु कदाचित् आप मेरे जी की बात न समझे हों इसलिए मैं आप को भाग्य की परीक्षा करने से पहले दो एक महीने तक ठहराऊँगी, परन्तु इससे क्या होना है? कुमारी अपने जी की बात को जिह्ना पर कब ला सकती है। मैं आप को पते का सन्दूक बता सकती हूँ पर मेरी सौगन्ध टूट जायेगी और यह मुझे किसी तरह पर अंगीकार नहीं। कदाचित् मैं आप को न मिलूँ, पर यदि ऐसा हुआ तो मेरा चित्त यही कहेगा कि तू ने अपराध क्यों न किया और शपथ क्यों न तोड़ डाली। मेरा मन करता है कि आपकी आँखों को कोसूँ, इन्हीं ने तो मुझे मोल ले लिया और मेरे दो भाग कर डाले-आधी तो मैं आप को हूँ, और शेष आधी भी आप ही को, क्योंकि यदि मैं यों कहूँ कि अपनी हूँ तो भी तो आपही की हुई, इसलिए सब आप ही की ठहरी। क्या बुरा समय आ गया है कि अपनी वस्तु पर भी अपना बस नहीं! अतएव यद्यपि मैं आप ही की हूँ तो भी क्या? हुई न हुई दोनों बराबर-यदि कहीं भाग्य ने धोखा दिया तो उसके कारण मैं क्यों दुःख में पडँ़ई, पड़े तो भाग्य पड़े जिसका दोष है। मैं बहुत कुछ बक गई पर तात्पर्य मेरा यह है कि बातचीत में कुछ समय कटे और आपके सन्दूक पसन्द करने के लिए जाने में इसी बहाने कुछ देर हो।
बसन्त : मुझे झटपट चुन लेने दीजिए, यों रहने से तो मेरा जी सूली पर टँगा है।
पुरश्री : सूली पर, तो कहिए कि आप के प्रेम के साथ दगा कैसी मिली हुई है?
बसन्त : दगा का क्या काम, हाँ यदि कुछ है तो अपने चित्त के अभिलाष पूरे होने की ओर से अविश्वास। मेरे प्रेम के साथ तो दगा का होना ऐसा है मानो आग और बर्फ की मित्रता।
पुरश्री : जी हाँ, पर मुझे भय है कि आप का जी तो सूली पर टँगा है, और सूली पर लोग प्रायः विवश होकर बे सिर पैर की बका करते हैं।
बसन्त : जीवदान दीजिए तो यथार्थ कह दूँ।
पुरश्री : अच्छा तो फिर कहिए, आप का जीवन आपको मुबारक।
बसन्त : कह दूँ, मेरा प्राण मुझको मुबारक! तौ तो मेरा मनोरथ बर आया, वाह जब सताने वाला आप ही वह राह दिखलाता है जिससे जी बचे तो कष्ट भी परम सुख है परन्तु अच्छा अब मुझे सन्दूकों के साथ अपने भाग्य की परीक्षा के लिए छोड़ दीजिए।
पुरश्री : अच्छा तो आप जायँ, उन सन्दूकों में से एक में मेरा चित्र है; यदि आप मुझे चाहते होंगे तो वह आपको मिल जायगा। नरश्री तुम अब अलग खड़ी हो जाओ और जब आप सन्दूक पसन्द करने लगें तो कुछ गाना का भी आरंभ हो, जिसमें यदि आप कहीं चूक जायँ तो जैसे बत्तक अपना दम निकालने के समय गाता है वैसे ही आप के बिदा होने के समय भी गाना होता रहे। यदि कहिए कि बत्तक की समाधि पानी में होती है तो मेरी आँखें नदी बनकर आप के शत्रुओं की समाधि बन जायँगी। यदि कहीं आप ने दाँव मारा तो गाना क्या है मानो उस समय की सलामी का बाजा है जब कोई नया राजा सिंहासन पर बैठता है और उसकी शुभचिन्तक प्रजा उसके अभिनन्तन को आती है, या वह मीठी तान है जिसे सुन कर नया वर विवाह के दिन सबेरे ही उठ कर ब्याह की तैयारी करता है। देखिए (वह जाते हैं) जब रुद्र उस कुमारी को छुड़ाने गया था जिसे त्रयम्बक ने समुद्र की एक आपत्ति को सौंप दिया था तो जैसा तेज उसके मुख पर बरसता था वैसा ही उनके मुँह पर बरसता है परन्तु प्रेम तो उसकी अपेक्षा कई अंश अधिक है। मैं भी उस कुमारी की भाँति बलिदान के लिए प्रस्तुत हूँ और यह स्त्रियाँ मानो त्रयम्बक की रहने वाली हैं और वियोगिन बनी हुई खड़ी देख रही हैं कि इस दुस्तर कर्म का क्या परिणाम होता है। अच्छा मेरे रुद्र जाओ, अब तो मेरा जीवन तुम्हारे प्राण के साथ है और निश्चय रखिए कि आप का चित्त, यद्यपि आप स्वयं लड़ने जाते हैं, इतना न धड़कता होगा जितना मेरा धड़कता है यद्यपि मैं केवल दूर से खड़ी हुई कौतुक देख रही हूँ।
गीत
अहो यह भ्रम उपजत किय आय।
जिय मैं कै सिर मैं जनमत है बढ़त कहाँ सुख पाय।
ता को यह उत्तर जिय उपजत बढ़त दृष्टि में धाय ।
पै यह अति अचरज कै जित यह जनमत तितहि नसाय।
देखि ऊपरी चमक चतुर हूँ जद्यपि जात भुलाय ।
पै जब जानत अथिर ताहि तब निज भ्रम पर पछिताय।
तासों टनटन बजै कहौ अब घंटा हू घहराय ।
बसन्त : सच है पदार्थ देखने में भले और भड़कीले होते हैं वस्तुतः कुछ नहीं होते। संसार के लोग बाहरी चमक दमक में भूल जाया करते हैं। देखिए कानून में कोई दलील कैसी ही झूठी और बे सिर पैर की क्यों न हो यदि उसी को साधु भाषा में नमक मिर्च लगाकर कहिए तो उसका सब अवगुण छिप जाता है। उसी भाँति धर्म में देखिए तो कैसी ही घृणा के योग्य भूल क्यों न हो कोई न कोई उपयुक्त युक्ति मनुष्य उसके प्रमाण में देकर उसे सराहेगा और उसके दोषों पर सुवर्ण का पर्दा डाल देगा। निरी बुराई पर भी बाहरी भलाई का मुलम्मा चढ़ जाता है। देखिए कितने ऐसे डरपोक मनुष्य, जिनके चित्त बालू की भीत की भाँति निर्बल हैं, दाढ़ी और रूप रंग में मानसिंह और विजयसेन को तुच्छ करते हैं और भीतर देखिए तो उनका दुर्बल अन्तःकरण दूध सा स्वच्छ है। उन लोगों को कहना चाहिए कि यह केवल वीर पुरुषों का उतरन अपना प्रभाव दिखलाने के निमित्त पहिन लेते हैं। सुन्दरता की ओर दृष्टि कीजिए तो विदित होगा कि वह केवल चाँदी का न्यौछावर है जितना रुपया लगाइए उतनी ही भड़क हो। वास्तव में तत्वनिरूपण करने पर करामात प्रतीत होने लगती है, जिसके सिर पर जितना अधिक भार है उतना ही विशेष तुच्छ है। यही दशा उन घुँघरवाले सुन्दर कचकलापों का है जो वायु में इस भाँति बल खाते हैं कि मन को लुभा लेते हैं। देखिए एक के सिर से उतर एक दूसरे के सिर चढ़ते हैं और जिस सिर ने उन्हें पाला था वह अन्त में कीड़ों का आहार है। अतः भूषण बसन क्या हैं मानो किसी बड़े भयानक समुद्र का ऐसा किनारा है जो थाह बता कर गोता दे या किसी हिन्दुस्तानी स्त्री का भड़कीला दुपट्टा है, अर्थात् यह कहना चाहिए कि समय के छली लोग झूठ को ऐसा सच करके दिखा देते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान की बुद्धि चकित हो जाती है। इसलिये चमकीले सोने जिसने महाराज मागधि से उनका खाना लेकर लोहे के चने चबवाए, मैं तुझको न छुऊँगा और न तुझे ऐ कुरूप चाँदी जिसके लिए एक मनुष्य दूसरे की सेवा करता है। परन्तु तुच्छ सीसे जिसके देखने से आशा के बदले भय उत्पन्न होता है-
वचन रचन तजि और के, तोही पै विस्वास।
उदासीन प्रेमी मनहिं, लखि तुव रंग उदास ।
औरन तजि तासों चुनत, सीसक अब हम तोहि।
आनँदघन करुनायतन, करहु अनन्दित मोहि ।
पुरश्री : (आप ही आप)
मिट्या सकल भ्रम भीति नसानी।
नसी निरासा जिय-दुखदानी ।
मोह-कँवल-रुज दृग सों भाग्यौ।
संसय तजि मन आनँद पाँग्यौ ।
प्रेम! धीर धरु किन अकुलाई।
धरत सीवँ तजि पगहि बढ़ाई ।
आनँद नीर इतो हिय-जलधर।
उमगि उमगि जनि बरस धीर धर ।
यह सुख नदी उमड़ि जो आई।
मम घट घट नहिं सकत समाई ।
होइ न कहूँ अनन्त अजीरन।
तासों धरु धीरज चंचल मन ।
बसन्त : देखें तो यह क्या निकला?
(सीसे के सन्दूक को खोल कर) वाह वाह यह तो मेरी परम सुन्दरी पुरश्री का चित्र है! यह किस चितेरे की निपुणता है कि चित्र बोला ही चाहता है? क्या यह आँखें सचमुच फिरती हैं या केवल मेरी आँखों की पुतलियों पर इनकी परछाईं पड़ने से मुझे घूमती हुई दिखाई देती हैं। इधर देखिए तो दोनों ओष्ठ इस भाँति से भिन्न हैं मानो मीठे प्यारे श्वासों के आने जाने का मार्ग है। ऐसे प्यारे साथियों के विरह का कारण ऐसी ही प्यारी वस्तु होनी चाहिए। इधर देखिए तो बालों की छबि खींचने में चित्रकार ने मकड़ी की चातुरी को तुच्छ कर दिखलाया है और सोने के तारों का ऐसा जाल बिना है कि मनुष्य का चित्त पतंग की भाँति उसमें फँस जाय। पर वाह री आँखें! इनके बहाने के समय चित्रकार की दृष्टि किस भाँति ठहरी? मेरी समझ में तो जब एक बन गई थी तो उसकी दोनों आँखें इस एक के न्यौछावर हो जातीं और यह आँख बेजोड़ रह जाती। किन्तु सच पूछिए तो जितनी ही मेरी प्रशंसा की इस चित्र के सामने कुछ गिनती नहीं उतनी ही साक्षात् के सामने इस छबि की कुछ गणना नहीं। देखिए यह भाग्य का लेखा-जोखा है।
(पढ़ता है)
जौ लखि छबि ऊपरी भुलाते। तौ यह दाँव कबहुँ नहिं पाते ।
तुम्हरी बुद्धि धीर नहिं छूटी। लेहु अबै रस संपति लूटी ।
अब जिय चाह करौ जनि दूजी। भ्रमहु न जग इच्छा तुव पूजी ।
जौ तुम याहि भाग निज लेखौ। तौ मुरि निज प्यारी मुख देखौ ।
जीवन सरबस याहि बनाई। रहौ चूमि मुख कंठ लगाई ।
अब जौ प्यारी सुन्दरी तुव अनुशासन होय।
तौ हम चुंबन लेहिं अरु निजहु देहिं भय खोय ।
(मुँह चूमता है)
कहँ द्वै जन की होड़ मैं जीतत बाजी कोय।
तौ सब दिसि सों एक सँग ताकी जय धुनि होय ।
सो कोलाहल सुनत ही तासु बुद्धि अकुलाय।
ठाढ़ी सोचत साँच ही जीत्यो मैं इत आय ।
तिमि सुन्तरि सन्देह यह मेरे हू जिय माहिं।
कै जो देखत मैं दृगन तौन साँच की नाहिं ।
सो मम भ्रम तुम करि दया बेगहि देहु मिटाय।
मम जयपत्र सकारि पुनि सुन्तरि मुहि अपनाय ।
पुरश्री : मेरे स्वामी बसन्त आप मुझे जैसी खड़ी हुई देखते हैं वैसे ही मैं हूँ; यद्यपि केवल अपने लिये मेरे जी में यह अभिलाष नहीं है कि मैं अपनी वर्तमान अवस्था से चढ़ जाऊँ किन्तु आपके विचार से मेरा बस चले तो मैं सौगुनी अच्छी हो जाऊँ। रूप में सहस्र बार और धन में लक्षबार अधिक हो जाऊँ, केवल इसलिए कि आपकी दृष्टि में जचूँ। सम्भव है कि मैं गुण, सौन्दर्य, लक्ष्मी और मित्रों में अत्यन्त बढ़ जाऊँ, तथापि इन सब अलभ्य पदार्थों के होते भी मेरी अवस्था यह है कि मैं एक निरी मूर्ख, बेसमझ और सीधी सादी छोकरी हूँ; पर हाँ इस बात से तो प्रसन्न हूँ कि मेरी अवस्था इतनी अधिक अभी नहीं हुई कि मैं कुछ सीख न सकूँ और इस कारण से और भी प्रसन्न हूँ कि इतनी कुंठित भी नहीं हो गई हूँ कि सीखने के योग्य न रही हूँ और सबसे अधिक प्रसन्नता का कारण यह है कि मैं अपने भोले चित्त को आपको सौंपती हूँ कि वह आपको अपना स्वामी, अपना नियन्ता, अपना अधिपति समझकर जो आप कहे सो किया करे। मैं और जो कुछ मेरा है अब वह सब आप का हो चुका। अभी एक साइत हुई कि मैं इस राजभवन और अपने अनुचरों को स्वामिनी और अपने मन की रानी थी, और अभी इस क्षण यह घर, ये नौकर चाकर और मैं आप, सब आप के हो गए। मैं इन सबों को इस अँगूठी के साथ आपको सौंपती हूँ। जब यह अँगूठी आप के पास न रहे, खो जाय या आप इसे किसी को दे देवें तो मैं येे समझूँगी कि आप के प्रेम में अन्दर आ गया और फिर मुझे आप से उपालम्भ देने का पूरा स्वत्व प्राप्त होगा।
बसन्त : प्यारी मेरी जिह्ना को सामथ्र्य नहीं कि तुम्हारे उत्तर में एक अक्षर भी निकाले, पर हाँ मेरा रोम रोम तुम्हारी कृतज्ञता में जिह्ना बन रहा है और मेरी सुधि में ऐसी घबराहट आ गई है जैसी कि प्रजावृन्द में उस समय दृष्टि पड़ती है जब कि वह अपने प्यारे राजा के मुख से कोई उत्तम व्याख्यान सुन कर प्रसन्न हो जाते हैं और वाह वाह करने और आशीष देने लगते हैं। जबकि बहुत से शब्द जिनके कुछ अर्थ हो सकते हैं मिल कर सब व्यर्थ हो जाते हैं और सिवाय इसके कि उनसे प्रसन्नता प्रकट हो और कोई तात्पर्य नहीं समझ में आता। परन्तु यह प्यारी अँगूठी मेरी उँगली से उसी समय जुदा होगी जब कि इस उँगली से सत्ता निकल जायेगी और उस समय तुम निस्सन्देह समझ लेना कि बसन्त मर गया।
नरश्री : मेरे स्वामी और मेरी स्वामिनी अब तक हम लोग खड़े खड़े अपने मन के मनोरथ के पूर्ण होते देखा किए और अब हम लोगों की बारी है कि ‘कल्याण हो’ की ध्वनि मचावें। ‘कल्याण हो’ ऐ मेरे स्वामी और मेरी स्वामिनी।
गिरीश : ऐ मेरे स्वामी बसन्त और मेरी सरल स्वामिनी मेरी यही आसीष है कि आप के सारे मनोरथ पूरे हों क्योंकि मुझे निश्चय है कि आप मेरे हर्ष को तो बाँट लेंगे ही नहीं, अतः मेरी यह प्रार्थना है कि किस समय आप लोग परस्पर अपना मनोभिलाष और प्रतिज्ञा पूरी करें उसी समय मेरा ब्याह भी कर दिया जाय।
बसन्त : मुझे तन और मन से स्वीकार है पर इस शर्त पर कि तुम अपने लिये कोई स्त्री ठहरा लो।
गिरीश : मैं आप को धन्यवाद देता हूं कि आप ही के न्यौछावर में मेरा काम भी निकल आया, क्योंकि ज्योंही आप की प्रेम दृष्टि राजकुमारी पर पड़ी मेरे नेत्रों में भी उसकी सहेली बस गई। उधर आप अनुरक्त हुए इधर मैं प्रेम के फन्दे में फंसा। इसमें न आप को विलंब लगा न मुझे। आप के प्रारम्भ की परीक्षा सन्दूकों के चुनने पर थी वैसे ही मेरा भाग्य भी उन्हीं के साथ अटका हुआ था। तात्पर्य यह है कि मुझे इस सुन्दरी की इतनी सुश्रूषा करनी पड़ी कि शरीर से स्वेद निकल आया और अपनी प्रीति का निश्चय दिलाने के लिये इतनी सौगन्धें खानी पड़ीं कि तालू चटक गया तब कहीं, यदि वाक्दान कोई वस्तु है तो इनके मुख से यह वाक्य निकला कि जो तुम्हारे स्वामी का विवाह मेरी स्वामिनी से हो जायगा तो मैं भी तुम्हें ग्रहण करूँगी।
पुरश्री : नरश्री क्या यह बात सच है?
नरश्री : हाँ सखी यदि आप की इच्छा के विरुद्ध न हो तो सच ही समझी जायगी।
बसन्त : और तुम गिरीश धर्मपूर्वक यह विचार करते हो न?
गिरीश : धर्मावतार सब सच्चे जी से।
बसन्त : तुम्हारे ब्याह से हमारे समाज का आनन्द दूना हो उठेगा।
गिरीश : ऐ यह कौन आता है? अहा लवंग और उनकी प्राण-प्यारी! और हमारे पुराने वंशनगर के मित्र सलोने भी साथ हैं।
(लवंग, जसोदा और सलोने आते हैं)
बसन्त : अहा लवंग और सलोने आए परन्तु मैं अपनी अवस्था में बिना अपनी प्यारी की आज्ञा के प्रसन्नता प्रकट करने का कब अधिकार रखता हूँ। प्यारी पुरश्री यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं अपने सच्चे मित्रों और स्वदेशियों के आने पर प्रसन्नता प्रकट करूँ।
पुरश्री : मेरे स्वामी इस में मेरी परम प्रसन्नता है, ऐसे लोगों का भाग्य से आना होता है।
लवंग : मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, किन्तु सच पूछिए तो मेरी इच्छा आप से यहाँ भेंट करने की न थी परन्तु मार्ग में सलोने मित्र मिल गए और मुझे यहाँ लाने के विषय में इतना हठ किया कि मैं नहीं न कर सका और साथ आना ही पड़ा।
सलोने : जी हाँ मैं इनको वस्तुतः खींच लाया पर इसका एक मुख्य कारण है। अनन्त महाशय ने आपको सलाम कहा है।
(बसन्त के हाथ में एक पत्र देता है)
बसन्त : इससे पहिले कि मैं उनके पत्र को खोलूँ मुझे भगवान के लिये इतना बता दो कि मेरे सुहृन्मित्र प्रसन्न तो है।
सलोने : देखने में तो वह पीड़ित नहीं हैं परन्तु आन्तरिक हो तो हो और न अच्छे ही दृष्टि आते हैं किन्तु चित्त का हाल मैं नहीं कह सकता। अच्छा उस पत्र से उनका वृत्तान्त आपको भलीभाँति सूचित हो जायगा।
गिरीश : नरश्री अपने पाहुनों का सत्कार करो और उनका मन बहलाओ। सलोने नेक इधर ध्यान दीजिए, कहो तो वंशनगर का क्या समाचार है, सब सौदागरों के सिरताज हमारे सुहृद अनन्त किस भाँति हैं? हमारे पूर्ण मनोरथ होने का समाचार सुन कर तो वह फूले न समाएँगे, हम लोग अपने समय के महाबीर हैं क्योंकि सोने की खाल हमने ही जीती है।
सलोने : मेरी जान तो यदि तुम उस खाल को जीतते जिसे बसन्त हारे हैं तो अच्छा होता।
पुरश्री : कदाचित् पत्र में कोई बुरा समाचार है कि जिससे बसन्त के मुख की कांति बढ़ी जाती है। कोई प्रिय मित्र मर गया हो, नहीं तो कौन ऐसी बात है कि जिससे ऐसे धीर मनुष्य की अवस्था हीन हो जाय। ऐं! यह तो क्षण प्रतिक्षण मुख की पाण्डुता बढ़ती जाती है। बसन्त मुझे क्षमा कीजिएगा, मैं आपके शरीर का अद्र्धांग हूँ, और इसलिए जो कुछ कि उस पत्र में लिखा है उस में से आधा हाल सुनने की मैं भी अधिकारी हूँ।
बसन्त : ऐ मेरी प्यारी पुरश्री इस पत्र में कई एक ऐसे दुखदाई शब्द हैं कि जिनका वर्णन नहीं हो सकता। मेरी सुजान प्यारी तुम भलीभाँति जानती हो कि जब मैंने तुम्हें अपना मन दिया था तो यह पहले ही कह दिया था कि जो, कुछ कि मेरी पूँजी है वह मेरा शरीर है अर्थात् मैं अपने कुल का कुलीन हूँ और इस में कोई बात मिथ्या न थी, परन्तु प्यारी यद्यपि मैंने अपनी क्षमता तुम पर स्पष्ट प्रकट कर दी तो भी यदि सच पूछो तो मैंने अभिमान किया क्योंकि जिस समय मैंने तुमसे यह कहा कि मेरे पास कुछ नहीं है मुझे यों कहना चाहिये था कि मेरी अवस्था उससे भी गई बीती है। खेद है कि मैंने केवल अपना मनोरथ पूरा करने के लिये अपने प्यारे मित्र को उसके परम शत्रु के पंजे में फँसा दिया। देखो यह पत्र वर्तमान है जिसे मेरे मित्र का शरीर समझना चाहिए और प्रति शब्द उसका नया घाव जिससे रक्त टपक रहा है। पर क्यों सलोने क्या यह सत्य है कि उनका सारा काम बिगड़ गया? क्या एक भी ठीक न उतरा? ऐ विपुल, मौक्षिक, अंगदेश नन्दन बरबर और हिन्दुस्तान सब देशों के जहाजों में से एक को भी व्यापारियों को निराश करनेवाली चट्टानों ने अखण्ड न छोड़ा।
सलोेने : महाराज एक भी नहीं। तिस पर यह और आपत्ति है कि यदि वह उस जैन को नकद रुपया देने का कहीं से प्रबन्ध भी करें तो वह न लेगा। मेरी दृष्टि में तो ऐसा व्यक्ति मनुष्य की उन्नति तथा उसकी अवनति का साथी अब तक नहीं आया! इसी सोच में वह प्रति दिन सायं प्रातः मण्डलेश्वर को जाकर घेरता है और कहता है कि यदि मेरे साथ न्याय न बरता जायेगा तो इस राज्य के इस सिद्धान्त पर कि वह प्रतिवर्ण के लोगों को एक दृष्टि से देखता है बट्टा लग जायेगा। बीस सौदागरों और कितने और बड़े बड़े नामी लोगों ने और मण्डलेश्वर ने आप भी उसे समझाया और उसने एक की भी न सुनी। अब बतलाइए क्या किया जाय। उस पर तो ईर्षा के मारे यही धुन सवार है कि बस जो कुछ होता था सो हो चुका अब तमस्सुक के प्रण के अनुसार मेरा विचार हो।
जसोदा : जबकि मैं उनके साथ थी मैंने उन्हें प्रायः दुर्बल और अक्रर अपने स्वदेशियों से इस बात की सौगन्ध खाते हुए सुना था कि यदि मुझे कोई ऋण के बीस गुने रुपये भी दे तो अनन्त के मांस के अतिरिक्त उसकी ओर आँख उठा कर न देखूँगा और महाराज मुझे निश्चय है कि यदि वहाँ के विचाराधीश कानून के अनुकूल उसे हठपूर्वक रोक न रक्खेंगे तो विचारे अनन्त के सिर पर बुरी बीतेगी।
पुरश्री : क्या वह आपके कोई प्यारे मित्र हैं जिन पर यह आपत्ति आई है।
वसंत : (आह भर कर) यह वही मेरा सबसे प्यारा मित्र है जो उपकार करने में अपना जोड़ी नहीं रखता, उपकार करने में कभी नहीं थकता और शील का राजा है। इस समय मारवाड़ में वही अकेला एक मनुष्य है जिसमें मारवाड़ के प्राचीन समय के लोगों की उत्तम बातें और उच्च विचार पूरे पूरे पाए जाते हैं।
पुरश्री : उन्हें इस जैन का कितना देना है?
वसंत : मेरे ही कारण छः हजार रुपये के ऋणी हो गए हैं।
पुरश्री : बस इतना ही? आप बारह सहस्र देकर तमस्सुक फेर लीजिए। यदि आवश्यकता हो तो बारह सहस्र के भी दूने कर डालिए और इस दूने के तिगुने, पर ऐसा कदापि न होने पावे कि बसन्त के कारण उनके ऐसे अनुपम मित्र का एक रोम भी टेढ़ा हो। चलिए अभी मंदिर में चल कर ब्याह की रीति कर लीजिए और इसके उपरान्त सीधे अपने मित्र के पास वंशनगर को चले जाइए; क्योंकि जब तक आपका शोच दूर न हो लेगा, मुझे आप के साथ सोना धिक्कार है। उस छोटे ऋण के चुका देने के लिये उनका बीस गुना रुपया लेते जाइए और उसे देकर अपने मित्र को यहाँ साथ लेते आइए। इस बीच में मैं और मेरी सहेली नरश्री कुमारी और विधवा स्त्रियों की भाँति अपना समय काटेंगी। आइए चलिए क्योंकि आपको आज ही अपने ब्याह के दिन यहाँ से जाना है। अपने मित्रों से प्रसन्नतापूर्वक मिलिए और अपना मन विकसित रखिए। आप से मिलने में जितनी कठिनता होवेगी उतने ही अधिक आप मुझे प्यारे प्रतीत होंगे। परन्तु तनिक अपने दोस्त का पत्र तो सुनाइए।
वसंत : (पढ़ता है)-
मेरे प्यारे बसन्त, सब जहाज नष्ट हो गए, मेरे ऋणदाता निर्दयता से वर्त ते हैं, मेरी अवस्था अत्यन्त ही नष्ट है और मेरी प्रतिज्ञा जैन के साथ टल गई और जो कि ऋण के चुका देने में संभव नहीं कि मैं जीता बचूँ, इसलिये मैं सब हिसाब अपने और तुम्हारे बीच साफ समझूँगा कि मैं अपने मरने के समय तुम्हें एक आँख देख लूँ। परन्तु हर हालत में यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। यदि मेरा प्रेम तुम्हें यहाँ तक न खींच ला सके तो मेरे पत्र का कुछ ध्यान न करना।
पुरश्री : मेरे प्यारे सब काम को झटपट पूरा करके एकबारगी चले ही जाओ।
वसंत : जब तुमने प्रसन्नता से जाने की आज्ञा दी तो अब मुझे क्या विलम्ब है। परन्तु जब तक कि मैं लौट न आऊँ मेरे लिये नींद हराम और सुख दुख से अधम है।