बरसे मेघा उमड़े बादल
चली हवा मस्तानी
खुले खेत सोंधी महक
करती देखो दीवानी
ऐसे महके धरती जैसे
कर रही हो श्रृंगार
किसान भी मन में हरषाये
शायद इस वर्ष होगा त्यौहार
नदियां बहती सींचे तट को
यह विश्वास दिलाती
हरती किसान का दर्द
तो कभी पूर्ण यौवन सा इठलाती
वह महक वह खुशबू
हम गांव की माटी संग छोड़ आए
खाली पेट ना सोए कोई
इस वासते खेतों से रिश्ता छोड़ आए
शहर में खो गई जिंदगी
क्योंकि गांव में हर वर्ष
ना होती वर्षा
न जाने कितनी फसलें नष्ट हो गयी
किसान खुद अन्न के लिए तरसा
मजबूर है मायूसी सा
वह जब घर से निकला था
रोया क्या खुद वो ही
बादल भी थोड़ा बरसता
मजबूरी में निकला घर से
क्योंकि खाने को नहीं थे पैसे
जा तो रहा हूं शहर में
सोचता गुजारा होगा कैसे
आज है शहर में छोटा मकान
मकान में एक बगीचा
यहाँ बारिश का क्या करें इंतजार
इस नल की टोटी ने ही सींचा
फर्श से ढका जमीं को
सारा जल यूं ही बह जाता
वर्षा की चंद बूंद में ही कभी-कभी
मेरा बाग भी सोंधी
महक से महक जाता
अब यही बगीचा मुझे
जोड़े रखा जमीं से
खेतों की याद दिलाता है
याद दिलाता उस मजबूरी को
कभी अपनों से मिलने को तरसता
लेकिन सुना है अब गांव में बने डेम
और उसमें पानी भी है भरपूर
खेतों में अब पानी आ गया
रास्ते तरक्की के अब नहीं होंगे दूर
यही सोच हमने भी टिकट कटवाया
घर वापसी का
दिल में उठी चहक
दिल खुश है कि
फिर सब साथ होगे
और बारिश में फिर होगी
मिट्टी की वो सौंधी सी महक.......