जुगनु कहता जब शाम हुई
चांदनी रात मेरा फल है
मेढ़क बैठा जब कुआं बीच
कहता ये कूप सृष्टि सब है
जब रात हुई काली काली
उल्लू बोला स्वर्णिम नभ है
फिर कहने लगा स्वान जग में
चलती लढ़िया मेरा बल है
मृग बोल रहा है सिंहो से
जंगल मे अब मेरा डर है
ये ज्वाला बोल रही जल से
हमसे ज्यादा क्या शीतल है
ये जलघि डांटता लहरो को
कहता की ज्वार बस मुझमे है
कुक्डू कूं कर मुर्गा बोला
यह सुबह हमारे मन से है
इक पत्थर बोला पर्वत से
हमसे ऊँचा जग मे कुछ है
टिड्डीयां बोलती चीटो से
हमसे ज्यादा किसमे श्रम है
मिट गयी अस्मिता जीवन की
खा रही विवशता छिन छिन
क्यो भ्रमित कर रहा पतन पतन
है श्रेष्ठ निशा नही सृजन सृजन