धरा पर हुआ वज्र का पात
सभी के हृदय हुए स्तब्ध
दुबक कर बैठे सभी सजीव
रूदन यूँ फैल गया अविराम
प्रकृति का नीरस सा बर्ताओ
वृक्ष से कलियाँ हुई विमुक्त
जगत जीवन से हुआ विरक्त
काल फिर हँसता है उनमुक्त
सृष्टि में फैल गयी कुछ धुंध
स्वप्न फिर टूट गये निरद्वंद
विभा से मुक्त नही था विश्व
प्रलय भी हुआ नही था सुप्त
गगन से बरस रहे अंगार
घटायें घेर रही संसार
पदो में ज्वालाओं की धार
अचानक निकला ज्यो ही सुर्य
जगत मे कोलाहल का तुर्य
प्रलय आ हुआ शान्त उदगार
प्रभा ने फैलायी मुस्कान
सुनायी देता कलरव गान
बचे थे भूमा पर जो जीव
प्रलय की बाधाओ को चीर
जगत मे फैलानें को बेल
सृजन का देते हैं सन्देश
पतन की सीमाओं के बीच
निकलता है ये ही सारांश
विभा के बाद सवेरा शान्त
विभा के बाद सवेरा शान्त