प्रकृति को घेर रहा है काल
गगन में घोर घटा का जाल
धरा में दहक रहे अंगार
मचा जीवन मे हाहाकार
विभा मे जब घिरना था सूर्य
बजा क्यो जग मे उसका तुर्य
सृष्टि मे सृष्टा का व्यवहार
जगत में होता क्यो संहार
कौंधता प्रश्न लिये अम्बार
विधाता का कैसा संसार
सृजन क्यो होता है हर बार
पतन का ये कैसा व्यापार
नियति को घूर रहा क्यो व्याल
मुखो से उगल रहा क्यो ज्वाल
प्रलय का होता क्यो उदगार
जगत मे ये क्यो बारम्बार
जगत मे ये क्यो बारम्बार