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लाखों दर्द सहकर

28 नवम्बर 2021

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लाखों   दर्द   सहकर   एक कविता   बनती  है
अनेकों   काँटें   सहे   तब  जाकर   होठों  को  एक
                    मुस्कान    मिलती   है
वरना   तो   जीवन    है..…बड़ा    कठिन
      जैसे   काँटों  के बीच  एक  गुलाब  खिलता है
ठीक    वैसे   ही   अनेकों  समझौतों  के  बीच एक
         परिवार   बनता   है
कहाँ   है...ज़िन्दगी   आसान  ...यहॉं   तो    पग   पग
में    काँटें    हैं.....
       सेज    काँटों   की   है,   यहाँ   तो   दिन   में   भी
निकलते     तारे    हैं
        यहाँ    तो   कफ़न   को    भी   चादर   का नाम
देना     पड़ता  है....
कौन    बच    पाया   है....इस   जीवन   की कठिनाइयों
से
    वरना    तो     यहाँ  ज़िंदा  को भी  मुर्दे  का नाम
देकर   ज़िंदा   गाड़ा   जाता   है ....ज़मीं   में

स्वरचित मौलिक रचना  अनीता  अरोड़ा

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