साहित्य का सहज अर्थ है अपनी सभ्यता-संस्कृति,अपने परिवेश को अपने शब्दों में अपने दृष्टिकोण के साथ पाठकों, श्रोताओं के मध्य प्रस्तुत करना . पर यदि दृष्टिकोण,शब्द कृत्रिम आधुनिकता या आवेश से बाधित हो तो उसे साहित्य का दर्जा नहीं दे सकते। साहित्य, जो सोचने पर मजबूर कर दे,उत्कंठा से भर दे।
प्राचीन हिन्दी साहित्य की परंपरा काफी समृद्ध और विशाल रही है और आज भी है। हिन्दी साहित्य को सुशोभित-समृद्ध करने में मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र', सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', रामधारी सिंह 'दिनकर', रामवृक्ष बेनीपुरी, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, कबीर, रसखान, मलिक मोहम्मद जायसी, रविदास (रैदास), रमेश दिविक, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, डॉ. धर्मवीर भारती, जयशंकर प्रसाद, डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन, अज्ञेय, अमीर खुसरो, अमृतलाल नागर, असगर वजाहत, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, आचार्य रजनीश, अवधेश प्रधान, अमृत शर्मा, असगर वजाहत, अनिल जनविजय, अश्विनी आहूजा, देवकीनंदन खत्री, भारतेंदु हरीशचंद्र, भीष्म साहनी, रसखान, अवनीश सिंह चौहान आदि का कमोबेश महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
मोहम्मद इक़बाल की इन दो पंक्तियों को आज भी हम उदहारण मानते हैं -
"नहीं है नाउम्मीद इक़बाल अपनी किश्ते-वीरां से
ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बड़ी ज़रखेज़ है साक़ी"
प्रकृति से जुड़े हैं कवि पंत के साथ -
"प्रथम रश्मि का आना रंगिणी तूने कैसे पहचाना
कहाँ-कहाँ हे बाल विहंगिणी पाया तूने यह गाना"
और रहस्यवाद से छायावाद तक की परिक्रमा करते हैं
रहस्य का अर्थ है -"ऐसा तत्त्व जिसे जानने का प्रयास करके भी अभी तक निश्चित रूप से कोई जान नहीं सका। ऐसा तत्त्व है परमात्मा। काव्य में उस परमात्म-तत्त्व को जानने की, जानकर पाने की और मिलने पर उसी में मिलकर खो जाने की प्रवृत्ति का नाम है-रहस्यवाद।"
छायावाद को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने शैली की पद्धतिमात्र स्वीकारा है तो नंददुलारे वाजपेयी ने अभिव्यक्ति की एक लाक्षणिक प्रणाली के रूप में अपनाया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे रहस्यवाद के भुल-भुलैया में डाल दिया तो डॉ. नगेंद्र ने 'स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह' कहा। आलोचकों ने छायावाद की किसी न किसी प्रवृत्ति के आधार पर उसे जानने-समझने का प्रयास किया। छायावाद संबंधी विद्वानों की परिभाषाएँ या तो अधूरी हैं या एकांगी। इस संदर्भ में नामवर सिंह का छायावाद (1955) संबंधी ग्रंथ विशेष अर्थ रखता है। उन्होंने एक नए एंगल से छायावाद को देखा। उनके शब्दों में - 'छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से। इस जागरण में जिस तरह क्रमशः विकास होता गया, इसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी विकसित होती गई और इसके फलस्वरूप छायावाद संज्ञा का भी अर्थ विस्तार होता गया।'1
परिभाषाओं से इतर है हमारी कल्पना - जिसमें रहस्य भी है, छायावाद भी, नौ रसों का अद्भुत स्वाद भी … किसी भी युग का एक दृष्टिकोण नहीं, न धर्म का - अर्थ वही है, जो आपकी दिशा बदल दे, आपको सोचने पर मजबूर करे … इसी उद्देश्य में मेरे कुछ आंतरिक शाब्दिक विचार -
बातें अनगिनत होती हैं
कुछ मन को सहलाती हैं
कुछ बिंधती हैं
कुछ समझाती हैं …
समझते समझते मन को सहलाना खुद आ जाता है
क्योंकि सहलानेवाली बातेँ खत्म हो जाती हैं - अचानक !
इसी समापन के आगे शब्द भाव जन्म लेते हैं
मन को सहलाते हुए
कब ये वृक्ष बढ़ने लगते हैं
कब ख्यालों के पंछी
अपनी अभिव्यक्ति के कलरव से
धऱती आकाश गुंजायमान करते हैं … कुछ भी पता नहीं चलता और एक दिन 'पहचान' मिल जाती है !
इसी ठहराव सी पहचान के लिए मैं कहना चाहती हूँ -
रिश्ता,प्यार,दोस्ती
सिर्फ इन्हें ही नहीं निभाना होता
अपमान भी निभाना पड़ता है !
प्यार का सम्मान ज़रूरी है
तो शांति से जीने के लिए
अपमान का सम्मान कहीं अधिक ज़रूरी है !
निःसंदेह,
अपमान ग्राह्य नहीं होता
पर जीवन का बहुत बड़ा
गहन, गंभीर अध्याय
इसे ग्राह्य बनाता है
कितने भी हाथ-पाँव मार लो विरोध के
ग्राह्य बनाना पड़ता है !
कोई जवाब देने से पहले
अपनी अंतरात्मा के घायल वजूद को देखो
और चिंतन करो
- कब
कहाँ
कितनी बार
तुमने परिस्थिति के अपमानजनक हिस्से को
अपनी मुस्कान दी है
आवभगत किया है …
शर्मिंदगी की बात नहीं
ज़िन्दगी की शिक्षा
इन्हीं परिस्थितियों की चुभन से मिलती है …
जब तक सूरज पूरब की ओर से
सर के ऊपर तक होता है
ज़िन्दगी का फलसफा अबोध होता है
हम - तुम
बड़ी बड़ी बातें करते हैं
पर पश्चिम तक बढ़ते
अस्ताचल तक पहुँचते मार्ग में
समझौते ही समझौते होते हैं
अपमान का गरल पीकर
नीलकंठ बनकर
मुस्कुराना ही होता है
अतिथि देवो भवः कहकर
घातक दुश्मन को गले लगाना ही होता है
....
मुश्किलों को आसान बनाने के लिए
अपमान को निभाना ही होता है !!!
सूक्तियों के कोलाहल में मुझे पूछना है -
अन्याय करना पाप है
तो अन्याय सहना भी …
बिल्कुल !
लेकिन अन्याय करना अन्यायी का स्वभाव है
अन्याय सहना स्वभाव नहीं
परिस्थिति की न्यायिक माँग है !
कोर्ट में मसले वर्षों की फाइल में मर जाते हैं
पर जीता हुआ सत्य
पेट की आग
परिवार की सूक्ति
समाज की भर्तस्ना में
खामोश बुत हो जाता है !
इस बुत पर हाथ उठाओ
या घसीटते जाओ
यह मूक रहता है
हँसी भी इसकी शमशान जैसी होती है
उसकी भी आलोचना भरपूर होती है …
'मेरे टुकड़ों पर पलती है' कहता पति हाथ उठाता है
निकल जाए जो स्त्री स्वाभिमान के साथ
तो - कई फिकरे !!!
स्वाभिमान का तमाशा जब होता है
तब उसके विरोध में कोई कैंडल मार्च नहीं होता
सबके अपने व्यक्तिगत कारण होते हैं
'विरोध करके हम अपना रिश्ता क्यूँ बिगाड़ें'
'माहौल नहीं था कहने का' …
सही है
तो … अन्याय सहने की स्थिति को पाप मत कहो
यह पाप करने की ताकत में
सब मिलकर अन्याय का घृत डालते हैं
यानी पाप करते हैं
इसलिए ……धर्म के मायने पूछने से पहले
अपने धर्म का खाता खोलिए
देखिये, अधर्मी की लिस्ट में आपका नाम तो नहीं !!!
निःसंदेह शिक्षा,परिवर्तन और आधुनिकता का व्यापक शोर है, पर सत्य जो है वह टिमटिमाता हुआ … कुछ इस तरह,
वर्तमान की देहरी पर
ख़ामोशी जब भयावह हो उठती है
तब खोल देती हूँ अतीत के कब्रिस्तान का दरवाजा
दहला देनेवाली चुप सी चीखें
रेंगता साया
विस्फारित चेहरों की लकीरें …
अतीत और वर्तमान में
बदलाव तो है
पर उसी तरह -
जिस तरह लड़कियों के जीवन में दिखाई देता है !!!
वक्तव्य ठोस - लड़का लड़की समान
लड़की लड़के से बेहतर !
लड़की कमाने लगी
पर थकान आज भी एक-दो घरों को छोड़
सिर्फ लड़कों की !
दहेज़ की माँग पूर्ववत !
गोरी,काली का भेद नहीं जाता उसकी नौकरी से
और लड़का -
घी का लड्डू टेढ़ो भलो !!!
परिवर्तन का शोर
परिवर्तन -
भाषण और सच के मध्य बारीक लकीर जैसी …
लड़कियों का उच्चश्रृंखल अंदाज परिवर्तन नहीं
कम कपड़े परिवर्तन नहीं
परिवर्तन है -
नौकरी के लिए घर से बाहर अपनी तलाश
तलाश के आगे कई सपनों की हत्या !
परिवर्तन है -
लड़की का लड़का बन जाना
और उस वेशभूषा में सीख -
कुछ लड़की सा व्यवहार करो !
लड़की लड़का सी हो
या संकुचित सिमटी
या व्यवहारिक …
आलोचना होती रहती है !
हादसे के बाद उसकी इज़्ज़त नहीँ होती
नहीं होता कोई न्याय
तमाम गलतियों की जिम्मेदार वही होती है
माशाअल्लाह
लड़के में कोई खामी नहीं होती !
वह खून करे
इज़्ज़त छिन ले
शराब पीकर,क्रोध में हाथ उठाये
फिर भी वह दोषी नहीं होता
परस्त्री को देखे
तो पत्नी में कमी
वह बाँधकर रखने में अक्षम है
पुरुष तो भटकेगा ही !!!
है न परिवर्तन में वही सड़ांध ?
.... हाँ लड़कियाँ पढ़-लिख गई हैं
देश-विदेशों में नौकरी करने लगी हैं
…घर से बाहर वह दौड़ रही है अपना अस्तित्व लिए
घर में कमरे के भीतर वह जूझ रही है
अपने अस्तित्व के लिए
यूँ .... अपवाद कल भी था , आज भी हैं
उदहारण कल भी था, आज भी है
परिवर्तन एक शोर है
संसद भवन जैसा
जहाँ कोई किसी की नहीं सुनता
शहरी सियार की हुआ हुआ है
जो आज भी जंगली है !!!