आई थी मिलने एक बार
वक़्त किसी और रफ़्तार में था
तो मुलाकात नहीं हुई
मायूसी हुई
कुछ शिकायत भी
पर फिर वक़्त ने निगाहें बदलीं
और मैंने सोचा -
तुमसे मिलूँ ना मिलूँ
लिखूँगी ज़रूर
आज लिख रही हूँ ………
गीत के बोल
तुम्हारे ख्याल
इनका नशा है तो सही
पर जिस एहसास को मैंने अपनी मटकी में रखना चाहा
वह था
"प्यारी बेटी बोसकी
बूंद गिरी है ओस की
ओस का दाना मोती है
बोसकी जिसमे सोती है "
और अब जो आवाज़ मेरे जेहन में तैरती है
वह कहती है,
" ये खेल आखिर किसलिए
मन नहीं ऊबता
कई कई बार तो खेल चुके हैं
………………… "
खेल चुके हैं
पर नए खिलाडी तो खेलेंगे न
कई कई बार
जब तक सबकुछ धुंधला न नज़र आने लगे
कुछ कम न सुनाई देने लगे
लिखना भी एक प्यार है
जब हाथ थक जायेंगे
तो लिख नहीं पाएँगे .... पर लिखा तो जायेगा ही
ख्यालों को लिखने का खेल चलता ही रहेगा
क्योंकि,
कोई भी खेल व्यर्थ नहीं खेला जाता
पूरी ज़िन्दगी का अधिकांश लम्हा ९९ की डंक से गर छटपटाता है
तो क़दमों को मजबूती भी देता है ..... है न ?