मैं भीष्म
वाणों की शय्या पर
अपने इच्छित मृत्यु वरदान के साथ
कुरुक्षेत्र का परिणाम देख रहा हूँ
या ....... !
अपनी प्रतिज्ञा से बने कुरुक्षेत्र की
विवेचना कर रहा हूँ ?!?
एक तरफ पिता शांतनु के दैहिक प्रेम की आकुलता
और दूसरी तरफ मैं
.... क्या सत्यवती के पिता के आगे मेरी प्रतिज्ञा
मात्र मेरा कर्तव्य था ?
या - पिता की चाह के आगे
एक आवेशित विरोध !
अन्यथा,
ऐसा नहीं था
कि मेरे मन के सपने
निर्मूल हो गए थे
या मेरे भीतर का प्रेम
पाषाण हो गया था !
किंचित आवेश ही कह सकता हूँ
क्योंकि ऐसी प्रतिज्ञा शांत तट से नहीं ली जाती !!
वो तो मेरी माँ का पावन स्पर्श था
जो मैं निष्ठापूर्वक निभा सका ब्रह्मचर्य
.... और इच्छितमृत्यु
मेरे पिता का दिया वरदान
जो आज मेरे सत्य की विवेचना कर रहा है !
कुरुक्षेत्र की धरती पर
वाणों की शय्या मेरी प्रतिज्ञा का प्राप्य था
तिल तिलकर मरना मेरी नियति
क्योंकि सिर्फ एक क्षण में मैंने
हस्तिनापुर का सम्पूर्ण भाग्य बदल दिया
तथाकथित कुरु वंश
तथाकथित पांडव सेना
सबकुछ मेरे द्वारा निर्मित प्रारब्ध था !
जब प्रारब्ध ही प्रतिकूल हो
तो अनुकूलता की शांति कहाँ सम्भव है !
कर्ण का सत्य
ब्रह्मुहूर्त सा उसका तेज …
कुछ भी तो मुझसे छुपा नहीं था
आखिर क्यूँ मैंने उसे अंक में नहीं लिया !
दुर्योधन की ढीढता
मैं अवगत था
उसे कठोरता से समझा सकता था
पर मैं हस्तिनापुर को देखते हुए भी
कहीं न कहीं धृतराष्ट्र सा हो गया था !
कुंती को मैं समझा सकता था
उसको अपनी प्रतिज्ञा सा सम्बल दे
कर्ण की जगह बना सकता था
पर !!!
वो तो भला हो दुर्योधन का
जो अपने हठ की जीत में
उसने कर्ण को अंग देश का राजा बनाया
जो बड़े नहीं कर सके
अपनी अपनी प्रतिष्ठा में रहे
उसे उसने एक क्षण में कर दिखाया !
द्रौपदी की रक्षा
मेरा कर्तव्य था
भीष्म प्रतिज्ञा के बाद
अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका को मैं बलात् ला सकता था
तो क्या भरी सभा में
अपने रिश्ते की गरिमा में चीख नहीं सकता था !
पर मैं खामोश रहा
और परोक्ष रूप से अपने पिता के कृत्य को
तमाशा बनाता गया !
अर्जुन मेरा प्रिय था
कम से कम उसकी खातिर
मैं द्रौपदी की लाज बचा सकता था
पर अपनी एक प्रतिज्ञा की आड़ में
मैं मूक द्रष्टा बन गया !
मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है
कि इस कुरुक्षेत्र की नींव मैंने रखी
और अब -
इसकी समाप्ति की लीला देख रहा हूँ !
कुछ भी शेष नहीं रहना है
अपनी इच्छितमृत्यु के साथ
मैं सबके नाम मृत्यु लिख रहा हूँ
कुछ कुरुक्षेत्र की भूमि पर मर जाएँगे
तो कुछ आत्मग्लानि की अग्नि में राख हो जाएँगे
कहानी कुछ और होगी
सत्य कुछ और - अपनी अपनी परिधि में !