बहुत मुश्किल होता है
अपने को हुबहू लिखना
लिखो, फाड़ो
यही क्रम चलता है !
एक अंतराल
कुछ समाप्ति के बाद
किसी बात का कोई महत्व नहीं रह जाता।
समाप्ति के बाद
लिखो, न लिखो
कोई फर्क नहीं पड़ता
पढ़नेवालों के लिए
वह सिर्फ कहानी होती है
होती है एक अर्थहीन भूमिका
क्षणिक प्रभावित करते उपसंहार !
जब तक लिखने का उत्साह रहता है
अपनी व्याख्या अवरुद्ध होती है
परिवार,समाज का अव्यक्त भय
एक हलचल मचा देता है
निर्भय मन,मस्तिष्क
कुछ कुछ भयभीत रह ही जाता है !
कोशिश करते हुए
नाम बदला
स्थान बदला
फिर भी नहीं लिखा गया
कोई न कोई रुकावट रही ही
मन की अशांति को मैंने काल्पनिक मंच पे खड़ा किया
जो लिख नहीं सकी
उसे बोलती गई
ओह ! बहुत गंभीर, सार्थक
लेकिन
वक्ता मैं,
श्रोता मैं
आपस में एक दूजे को सराहा
थोड़ी सी राहत लिए सो गए
सुबह हुई
फिर सोचा
आज कोशिश होगी हुबहू लिखने की
पर लिखने-मिटाने से आगे
अब तक नहीं बढ़ सकी !
आत्मकथा में कंजूसी
और स्वरक्षा की भावना आ ही जाती है
अज्ञात डर
हुबहू होने से रोक देता है !!!