जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ
फिर एक बार अपनी सोच दे रही हूँ ...
अमृता का तोहफा तो यूँ भी
तुमने खुद ही
अपने सिरहाने रख लिया है
जिल्द तुम्हारे अद्भुत रंगों का
वर्तमान की हर करवट हौज़ ख़ास सी
बातों में वही कमरा
वही छत
वही कबूतर
वही दाने !
....
परे इस सत्य के
मैं तुम्हारे ही अंदर की बंद घड़ी की व्यथा तुम्हें सौंपती हूँ
ताकि रात के बीतते प्रहर तक
तुम सोचते रहो
फिर एक सुकून भरी मुस्कुराहट
तुम्हारे चेहरे पर उभरे
कि सारी कहानियों से अलग
किसी ने मुझे
सिर्फ मुझे समझा तो !
...
हाँ इमरोज़
मैं उस अकेले इमरोज़ से मिली हूँ
जो अपनी समस्त सहृदयता में
बीतते वक़्त को
अपनी मुट्ठी में कसकर पकड़ना चाहता है
अमृता को बताते हुए
खुद को बताना चाहता है
जो सिर्फ देने का प्रतिमान बनकर रह गया
वह क्या है
कहाँ था
कहाँ आ गया !
.....
वह बनकर रह गया सिर्फ प्रेम
संगमरमर से तराशा हुआ व्यक्तित्व
...
इमरोज़,
तुम मानो न मानो
प्रेम के रंग में रंगा जीवन
बहुत एकाकी होता है
आदर्श के फ्रेम में जकड़ा
उसके हिस्से मुस्कुराने के सिवा कुछ नहीं होता
जबकि
एक एक मुस्कान भारी होती है
...
कोई समझे न समझे
तुम इस तोहफे को समझोगे
क्योंकि मैं तुमसे आज भी हौज ख़ास में ही मिलती हूँ
और तुम्हारे हर कहे से एक अनकहा चुनती हूँ
०००
दुआ है इमरोज़ को इमरोज़ मिले