कुछ कविता येँ,
यूँ कह लें
कुछ अभिव्यक्तियाँ,
इतनी पूर्णता में होती हैं
कि उन्हें नहीं चाहिए होती है किसी की प्रतिक्रिया
अपने भीतर का पाठक
उसे अनगिनत नज़रियों से पढता है
कुछ मिटाता है
कुछ जोड़ता है ...
सत्य और कल्पना
रक्त में पुरवा की तरह प्रवाहित होते हैं
आँखों की खिड़की जब तक बंद हो
जाने कितना कुछ तितर-बितर हो जाता है
सोचने का विषय बदल जाता है
जीने के मायने सख्त हो जाते हैं !
जिसने हवाओं का हर रूख देखा हो
वह युगों को अपने नज़रिये से देखता है !!
सच है
ऊपर से गिरी वस्तु नीचे आती है
लेकिन किसी चीज से टकराकर
दिशा बदलकर
कहीं टिक भी तो सकती है !
टुकड़े टुकड़े
चिंदी चिंदी ज़िन्दगी को जो बटोर ले
वह सूँघकर ही बहुत कुछ जान लेता है
भले ही उसका चेहरा
करीने से रखी कोई किताब लगे
पर जब तुम पृष्ठों से रूबरू न हुए
तो रहने दो
- कुछ मत कहो
उसे तुम्हारी प्रतिक्रिया की ज़रूरत ही नहीं
....
समंदर के बारे में तुम जो कहते हो
वह सब उसका ऊपरी अस्तित्व है
वह भी वहीँ तक,
जहाँ तक तुम देख पाते हो
आगे, बहुत आगे जाना
गहरे,बहुत गहरे जाना मुमकिन नहीं
ना वक़्त है
ना हिम्मत !
ब्रश से लकीरें खींचो
या लहरों को लिखो
कुछ भी पूरा नहीं …
समंदर को क्या सुनना
क्या देखना है !
वह अपनी रौशनी,
अपने अंधेरों
अपने रहस्यों से वाकिफ है
ठीक वैसे ही
जो पूर्णता को लिखते हैं
उन्हें किसी प्रतिक्रिया की चाह नहीं होती
हाँ कोई सहयात्री
मिल जाता है उन्हें
उनके जैसा
जो लिख जाता है बहुत कुछ मन की रेत पर
उड़ते रेतकणों की भाषा अद्भुत होती है
…
सुना है उसे ?
कभी सुनना ……।