मैं न यशोदा न देवकी
मैं न राधा न रुक्मिणी न मीरा
नहीं मैं सुदामा न कृष्ण न राम
न अहिल्या न उर्मिला न सावित्री
.......... मैं कर्ण भी नहीं
नहीं किसी की सारथी
न पितामह न एकलव्य न बुद्ध
नहीं हूँ प्रहलाद ना गंगा न भगीरथ
पर इनके स्पर्श से बनी मैं कुछ तो हूँ
यदि नहीं -
तो फिर क्यूँ लहराता है बोलता हुआ मौन मेरे भीतर
क्यूँ मैं कुम्हार की तरह अपनी ही मिटटी से
हर दिन ये सारे मूरत गढ़ती हूँ
क्यूँ मेरे भीतर ॐ की ध्वनि गूंजती है
अजान के स्वर निःसृत होते हैं
क्यूँ मैं अहर्निश अखंड दीप सी प्रज्ज्वलित हूँ
क्यूँ .............. एक पदचाप मेरे साथ होती है
क्यूँ एक परछाईं मुझमें तरंगित होती है
..........
मैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है
पर ........... प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
खुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???.............