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कहीं भी कभी भी

19 अक्टूबर 2016

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मैं न यशोदा न देवकी

मैं न राधा न रुक्मिणी न मीरा

नहीं मैं सुदामा न कृष्ण न राम
न अहिल्या न उर्मिला न सावित्री
.......... मैं कर्ण भी नहीं
नहीं किसी की सारथी
न पितामह न एकलव्य न बुद्ध
नहीं हूँ प्रहलाद ना गंगा न भगीरथ
पर इनके स्पर्श से बनी मैं कुछ तो हूँ
यदि नहीं -
तो फिर क्यूँ लहराता है बोलता हुआ मौन मेरे भीतर
क्यूँ मैं कुम्हार की तरह अपनी ही मिटटी से
हर दिन ये सारे मूरत गढ़ती हूँ
क्यूँ मेरे भीतर ॐ की ध्वनि गूंजती है
अजान के स्वर निःसृत होते हैं
क्यूँ मैं अहर्निश अखंड दीप सी प्रज्ज्वलित हूँ
क्यूँ .............. एक पदचाप मेरे साथ होती है
क्यूँ एक परछाईं मुझमें तरंगित होती है
..........
मैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है
पर ........... प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
खुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???.............


रश्मि प्रभा की अन्य किताबें

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रचनाएँ
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पूरीज़िन्दगी,जिसे हम जीते हैं,वह सम्पूर्णता का सारांश है . जीवन-मृत्यु का सिलसिला शाश्वत है,यदिआत्माअमर है तो - अतीत एक सार है हमारे वर्तमान का, भविष्य के सपने का
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शब्द

2 सितम्बर 2016
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कभी प्यार किया है शब्दों से जो जेहन में उभरते हैं और पन्नों पर उतरने से पहले गुम हो जाते हैं उन शब्दों से रिश्ता बनाया है जो नश्तर बन दिल दिमाग को अपाहिज बना देते हैं ... इन शब्दों को श्रवण बनकर कितना भी संजो लो इन्हें जाने अनजाने मारने के लिए कई ज़हरी्ले व

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कैसे पढोगे ??? कैसे जानोगे ?

16 सितम्बर 2016
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मन .... एक रहस्यात्मक पन्ना जिसे दूसरा लाख पढ़ ले अधूरा ही होता है अपने रहस्य को खुद से बेहतर कोई नहीं जानता !मन सपने बनाता है पर दूसरी छोर पर अज्ञात,ज्ञात आशंका लिए सपनों के टूट जाने की दर्दनाक स्थिति को जीता है !शरीर के परिधान से मन का

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क्या होगा रूबरू होकर

17 सितम्बर 2016
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बेकाबू धड़कनों को काबू में लाते हुए रक्ताभ हो आये चेहरे को सहज करते हुए बंद कमरे में आईने के रंगमंच पर कल्पनाओं की भीड़ में कुछ यूँ कहती हूँ गाहे-बगाहे"मेरा अहोभाग्य, मेरी कलम की लकीरों को आपने पढ़ा … लिखना तो बहुत कुछ और था कोशिश भी जारी है पर बड़ा मुश्किल होता है खुद को

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सत्य

18 सितम्बर 2016
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सत्य को तुमने देखा कहाँ हैझूठ के दलदल में ग्रीवा तक धंसे तुमसब एथेंस के सत्यार्थी को नहीं जानते ?किस मशाल को लेकर किस अँधेरे में निकल पड़े हो वह मशाल जिसमें तुम्हारी अपनी सोच का धुंआ है ?मूर्ख !वह प्रज्ज्वलित होगा ही नहीं जो अँधेरा तुमने किया हैवहाँ सूरज निकलेगा ही नहींसूरज को कैद करने की चाह सूरज क

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महादेवी वर्मा और एक कोशिश सी मैं

20 सितम्बर 2016
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महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य के छायावादी कवियों में एक महत्वपूर्ण स्तंभ मानी जाती हैं ... शिक्षा और साहित्य प्रेम महादेवी जी को एक तरह से विरासत में मिला था। महादेवी जी में काव्य रचना के बीज बचपन से ही विद्यमान थे। छ: सात वर्ष की अवस्था में भगवान की पूजा करती हुयी माँ पर उनकी तुकबंदी कुछ यूँ थी -ठंडे

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आज हकीकत के लिए जागना होगा

21 सितम्बर 2016
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शून्य में कौन मुझसे कह रहा क्या कह रहा ...कुछ सुनाई नहीं देता !सन्नाटों की अभेद दीवारें पारदर्शी तो है इक साया सा दिखता भी है कभी कुछ कहता कभी चीखता सा ...पर क्या कह रहा है कैसे जानूँ !सुनने से पहले देखना चाहती हूँ साया है किसका चेहरे की असलियत मिल जाए तो जानूँ यह विश्वास दे रहा है या चेतावनी !समय क

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गुलज़ार के नाम

28 सितम्बर 2016
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आई थी मिलने एक बार वक़्त किसी और रफ़्तार में था तो मुलाकात नहीं हुई मायूसी हुई कुछ शिकायत भी पर फिर वक़्त ने निगाहें बदलीं और मैंने सोचा -तुमसे मिलूँ ना मिलूँ लिखूँगी ज़रूर आज लिख रही हूँ ………गीत के बोल तुम्हारे ख्याल इनका नशा है तो सही पर जिस एहसास को मैंने अपनी मटकी में रखना चाहा वह था "प्यारी बेटी बोस

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पाप मानो या नियति !!!

30 सितम्बर 2016
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किसी के लिए कुछ करना आसान नहीं तुम्हें बढ़ना ही होगा आगे हर हाल में !!!दुर्घटना,मृत्यु,गरीबी-अमीरी … रोते हुए उपहास करते हुए आलोचना करते हुए घृणा से देखते हुए अंततः तुम्हें बढ़ ही जाना होगा क्योंकि तुम्हारे साथ जो घटना-दुर्घटना है उसे भी तो तुम्हें ही जीना है उनकी व्यवस्था भी तो करनी है … तुम कर्म से

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एक वसीयत बच्चों के नाम ...

2 अक्टूबर 2016
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बहुत सोचा एक वसीयत लिख दूँ अपने बच्चों के नाम ...घर के हर कोने देखे छोटी छोटी सारी पोटलियाँ खोल डालीं आलमीरे में शोभायमान लॉकर भी खोला ....... अपनी अमीरी पर मुस्कुराई !छोटे छोटे कागज़ के कई टुकड़े मिले गले लगकर कहते हुए - सॉरी माँ,लास्ट गलती है अब नहीं दुहराएंगे ... हँस दो माँ 'अपनी खिलखिलाहट सुनाई

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उस दिन तुम क्या करोगे ?

4 अक्टूबर 2016
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अलगनी सी रोज उतारती हूँ एक चुप्पी मिट्टी के इस तन में हौसला भरती हूँ चुप्पी की बाती को डुबोकर एक और दिन की तीली से उसे जलाकर ख्यालों ख़्वाबों को प्रकाशित करती हूँ ... जितना संभव था जो हो सकता था वो मैंने किया बंधू फिर भी, तुम शिकायतों को हवा देते हो मेरे ख़्वाबों, ख्यालों को नकारात्मक दृष्टि से देखते

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मुक्त होना चाहते हो ?

7 अक्टूबर 2016
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नहीं हो सकते मुक्तजब तक हो खामोशजीतने की प्रखरता होऔर हो हार स्वीकार.... नहीं हो सकते मुक्तसत्य असत्य का फर्क मालूम हैपर हों जुबां पर तालेनहीं हो सकते मुक्तभय की आगोश में भीकिसी उम्मीद की मुस्कान होनहीं हो सकते मुक्त.......मुक्त होना चाहते होऐसे में - यदि जीत नहीं सकतेतो खेलो ही मतधरती पर हिकारत से

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तस्वीर से निकले एहसास

8 अक्टूबर 2016
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अपने थेदेना था -कुछ वक़्त, कुछ ख्याल लेकिन,इस देने में मैं रह गया खाली हँसी भी गूँजती है खाली कमरे सी !मैंने सबको बहुत करीब से देखा यूँ जैसे उसे देखने के सिवा कुछ नहीं है मेरे पास कभी समझ सको,सोच सको तो देखना तस्वीरों में मेरी आँखें स्थिर,मृतप्रायः लगती हैं !इसका अर्थ यह नहीं कि मैंने किसी को अपना न

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मुज़रिम ... ========

12 अक्टूबर 2016
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मित्र,हवा में भटकते पत्ते की तरहतू मेरे पास आया...बिखरे बाल , पसीने से लथपथ,घबराहट और भय से तुम्हारी आँखें फैली हुई थीं...तार तार होती तुम्हारी कमीज़ पर,खून के छींटे थे ,उफ़!तुमने लाशों से ज़मीन भर दी थी,मैंने कांपते हाथों उन्हें दफना दिया...तुम थरथर काँप रहे थे,बिना

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काल्पनिक हीर

16 अक्टूबर 2016
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यह 'प्यार' मेरा ख्याल है किसी जीवित या मृत से इसे मत जोड़ना जीवित,मृत चेहरे तो बहुत गुजरे हमारी राहों से पर मेरे ख्याल जैसा कोई नहीं था …………। तुम्हें अपलक देखना तुम्हारे नाम पे हथेलियाँ रखना बर्फ़ से घिरी वादियों में तुम्हें कोट की तरह महसूस करना गर्म चाय की उठती भाप से तुम्हें देखना और कान के पास धीम

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मेरे कुछ आंतरिक शाब्दिक विचार

18 अक्टूबर 2016
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साहित्य का सहज अर्थ है अपनी सभ्यता-संस्कृति,अपने परिवेश को अपने शब्दों में अपने दृष्टिकोण के साथ पाठकों, श्रोताओं के मध्य प्रस्तुत करना . पर यदि दृष्टिकोण,शब्द कृत्रिम आधुनिकता या आवेश से बाधित हो तो उसे साहित्य का दर्जा नहीं दे सकते। साहित्य, जो सोचने पर मजबूर कर दे,उत

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कहीं भी कभी भी

19 अक्टूबर 2016
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मैं न यशोदा न देवकी मैं न राधा न रुक्मिणी न मीरा नहीं मैं सुदामा न कृष्ण न राम न अहिल्या न उर्मिला न सावित्री .......... मैं कर्ण भी नहीं नहीं किसी की सारथी न पितामह न एकलव्य न बुद्ध नहीं हूँ प्रहलाद ना गंगा न भगीरथ पर इनके स्पर्श से बनी मैं कुछ तो हूँ यदि नहीं - तो फिर क्यूँ लहराता है बोलता हुआ मौन

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खुद से विमुख खुद की जड़ें ढूँढने लगती हूँ ...

21 अक्टूबर 2016
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सबको आश्चर्य हैशिकायत भीदबी जुबां में उपहास भी कि बड़े से बड़े हादसों के मध्य भीमैं सहज क्यूँ और कैसे रह लेती हूँ !!!चिंतन तो यह मेरा भी है क्योंकि मैं भी इस रहस्य को जान लेना चाहती हूँ ...क्या यह सत्य है कि मुझ पर हादसों का असर नहीं होता ???यह तो सत्य है कि जब चारों तरफ से प्रश्नों और आरोपों की अग्

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यूँ कहने का क्या तात्पर्य ?

24 अक्टूबर 2016
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i am proud to be a girlसही है लेकिन इसे यूँ कहने का क्या तात्पर्य ?तुम,तुम्हारी प्रतिभा तुम्हारा उद्देश्य … निःशब्द बोलते हैं फिर ज़रूरत क्या है यूँ कहने की कि i am proud to be a girlक्या यह होड़ है ?सिद्ध करने की मंशा है कि मैं' हूँ !मैं यानी लड़की-स्त्री समाज का ही एक अभिन्न अंग हो जैसे है लड़का-पुरुष

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अभिमन्यु की मौत ज़रूरी है

3 नवम्बर 2016
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मन अभिमन्यु मैंने तुम्हें हर बार रोका पृष्ठ खोल महाभारत का दृश्य दिखाया पर तुमने चक्रव्यूह से पलायन नहीं किया ...तुमने हर बार कहा बन्द दरवाज़े की घुटन न हो तो कोई रास्ते नहीं खुलते ना ही बनते हैं !अभिमन्यु सी ज़िद अभिमन्यु सा हौसला और अंततः तुमने सिद्ध कर दिया अभिमन्यु किसी चक्रव्यूह में नहीं मरता वह

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मैं उदाहरण होना नहीं चाहती !

4 नवम्बर 2016
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मैं उदाहरण न थी न हूँ ...होना भी नहीं चाहती ! उदाहरण बनने की चाह में कई बार मरी हूँ ! कभी उंचाई से गिरी कभी अग्नि के बीच जली कभी विश्वास के चक्रव्यूह में घुट घुट कर अर्धजीवित रही .... उदाहरण होने के लिए सिर्फ देना होता है सामनेवाला कितना भी दुखद मज़ाक करे मुस्कुराना होता है एक मज़ाक अपनी तरफ से किया

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स्टेशन पर कुछ भी नहीं बदलता

6 नवम्बर 2016
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ट्रेन की आवाज़ एक शहर से दूसरे शहर एक जगह से दूसरी जगह अनगिनतअनजाने चेहरे परिचित होते हुए नाम का आदान-प्रदान 'चाय' की अनवरत पुकार गले लगकर बिछड़ते लोग !खाने की अलग खुशबू साझा करने का रिश्ता तो कहीं साझे का हादसा .... ट्रेन कहाँ रुकी यह देखने को उमड़ी भीड़ कुछ मिल जाये' की चहलकदमी कई स्टेशन अंदर के सन्ना

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अद्भुत शिक्षा !

7 नवम्बर 2016
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सब पूछते हैं-आपका शुभ नाम?शिक्षा? क्या लिखती हैं?हमने सोचा - आप स्नातक की छात्रा हैंमैं उत्तर देती तो हूँ,परन्तु ज्ञात नहीं,वे मस्तिष्क के किस कोने से उभरते हैं!मैं?मैं वह तो हूँ ही नहीं।मैं तो बहुत पहलेअपने तथाकथित पति द्वारा मार दी गई फिर भी,मेरी भटकती रूह ने तीन जीवन स

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पूरी ज़िन्दगी दूध भात का खेल नहीं होता

9 नवम्बर 2016
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चेहरे पर वाणी में मासूमियत लिए तुम जो अपरोक्ष चाल चलते हो वह मुझे दिखाई देता है !.... .... निःसंदेह, तुम्हारी चाह है कि इसे कारण बनाया जाए फिर तुम मासूम हतप्रभता दिखाओ पर ऐसा होगा नहीं क्योंकि राह चलते जाने-अनजाने मैं कई मेमनों से मिल चुकी हूँ जो सोये शेर पर उछलकूद करते ह

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बहुत मुश्किल है अपने को हुबहू लिखना

15 नवम्बर 2016
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बहुत मुश्किल होता है अपने को हुबहू लिखना लिखो, फाड़ो यही क्रम चलता है !एक अंतराल कुछ समाप्ति के बाद किसी बात का कोई महत्व नहीं रह जाता। समाप्ति के बाद लिखो, न लिखो कोई फर्क नहीं पड़ता पढ़नेवालों के लिए वह सिर्फ कहानी होती है होती है एक अर्थहीन भूमिका क्षणिक प्रभावित करते उपसंहार !जब तक लिखने का उत्साह

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कभी शून्य की देहरी पर जाओ, तो …मुझे पढ़ना

18 दिसम्बर 2016
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शून्य में टिकी मेरी आँखें हाथों में एक कलम देखती है और लिखती जाती है - काव्य-महाकाव्य ग्रन्थ-महाग्रंथ कभी शून्य की देहरी पर जाओ तो … पढ़ना उसे हुबहू समझने के लिए कोलाहल में मुझसे बातें करना जब सन्नाटा साँसें अवरुद्ध करने लगे तो लिखे हुए किसी शब्द को रेखांकित करना कई स्वर मुखरित हो उठेंगे !शून्य में म

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मुझे जीवन मानो, मृत्यु मानो या कुछ नहीं

22 दिसम्बर 2016
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कल रात एक घुप्प अँधेरे घने जंगल में शून्य ने मेरा साक्षात्कार लिया .... - कल क्या था ?कुछ नहीं ... आज क्या है ?कुछ नहीं … कल क्या होगा ?कुछ नहीं … फिर जीवन क्या है ?कुछ भी समझने की एक स्थिति … मृत्यु ?उस स्थिति का केंचुल, जिसे समझने की जद्दोजहद के बाद हम उतार देते हैं … नए सिरे से समझने का खेल खेलने

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अभिमन्यु ज़िंदा है

16 जनवरी 2017
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चक्रव्यूह क्या था ?कैसे बना ?अभिमन्यु जाना जानता था निकलना नहीं ! … इन सारी बातों से अलग अहम प्रश्न यह है कि क्या इस व्यूह में सचमुच अभिमन्यु ने दम तोड़ा ?या भीष्म,द्रोण,कर्ण की दूसरी मौत हुई ?विस्मित न हों इस खुलासे से शकुनि की चाल ने सबसे पहले उन्हें भरी सभा में मारा जब द्रौपदी का चीरहरण हुआ फिर उ

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दुआ है इमरोज़ को इमरोज़ मिले

25 जनवरी 2017
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जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ फिर एक बार अपनी सोच दे रही हूँ ...अमृता का तोहफा तो यूँ भी तुमने खुद ही अपने सिरहाने रख लिया है जिल्द तुम्हारे अद्भुत रंगों का वर्तमान की हर करवट हौज़ ख़ास सी बातों में वही कमरा वही छत वही कबूतर वही दाने !.... परे इस सत्य के मैं तुम्हारे ही अंदर की बंद घड़ी की व्यथा तुम्हें

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सुना है उसे ? कभी सुनना ……।

29 जनवरी 2017
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कुछ कविता येँ,यूँ कह लें कुछ अभिव्यक्तियाँ,इतनी पूर्णता में होती हैं कि उन्हें नहीं चाहिए होती है किसी की प्रतिक्रिया अपने भीतर का पाठक उसे अनगिनत नज़रियों से पढता है कुछ मिटाता है कुछ जोड़ता है ...सत्य और कल्पना रक्त में पुरवा की तरह प्

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कत्तई नहीं ! :)

10 फरवरी 2017
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(आस पास कई लोग ऐसे भी मिल जाते हैं - )न तुम तबतब के थेन तुम आजआज के होतुम वह राजा भी नहीं होजिसके सिर पर सिंग थातुम तो बिना सिंग केसिंग होने की बात करते होऔर सोचते हो -कोई तुम्हारे सिंग की चर्चा कर रहा है ...:)दरअसल तुम एक पागल होजो कभी कपड़े में होता हैतो कभी नंगा ...ऐसे

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.......... इस तरह प्रेम को जीया मैंने

13 फरवरी 2017
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प्रेम को जब भी एक शक्ल देना चाहातो या तो मैं दीवारों में चुन दी गईया फिर वह शक्ल बड़ी डरावनी हो गई .........ऐसे में अच्छा लगासहज लगाकभी रेत परकभी बादलों मेंकभी आँखों की पुतलियों मेंएक चित्र बनानाउसे प्रेम का नाम देनामान मनुहार करनाफिर उसे समेट देना ...ऐसे में -मैं सती हुई , पार्वती बनीसीता, राधा, मी

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कहानी कुछ और होगी सत्य कुछ और

21 फरवरी 2017
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मैं भीष्मवाणों की शय्या परअपने इच्छित मृत्यु वरदान के साथकुरुक्षेत्र का परिणाम देख रहा हूँया ....... !अपनी प्रतिज्ञा से बने कुरुक्षेत्र कीविवेचना कर रहा हूँ ?!?एक तरफ पिता शांतनु के दैहिक प्रेम की आकुलताऔर दूसरी तरफ मैं.... क्या सत्यवती के पिता के आगे मेरी प्रतिज्ञामात्र

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जिजीविषा का सिंचन जारी है ..........

28 फरवरी 2017
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अपनी उम्र मुझे मालूम है मालूम है कि जीवन की संध्या और रात के मध्य कम दूरी है लेकिन मेरी इच्छा की उम्र आज भी वही है अर्जुनकर्ण और सारथि श्री कृष्ण बनने की क्षमता आज भी पूर्ववत है हनुमान की तरह मैं भी सूरज को एक बार निगलना चाहती हूँ खाइयों को समंदर की तरह लाँघना चाहती हूँ माथे पर उभरे स्वेद कणों की अल

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परिवर्तन यूँ लाओ ...

21 मार्च 2017
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हम सपनों के बहते खून से लिखना चाहते हैं सपनों की रूहानी बातें एक क्षण के लिए ज़ोर से चीखना चाहते हैं पींगे लेते हुए झूले को ज़िंदा करना चाहते हैं हम ... खुद को सुरक्षित करना चाहते हैं हमें मारते हुए हमारे आगे से हमारा निवाला छीनते हुए हमें चूल्हे में झोंकते हुए तुम्हें खौफ़ नहीं होता हमारी हर मौत का ज़

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कुछ वक़्त दो खुद को

27 मार्च 2017
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नियति को सकारात्मक लो या नकारात्मक -मर्ज़ी तुम्हारी !पर कुछ वक़्त दो खुद को तो कारण, उद्देश्य स्पष्ट होंगे …राम वनगमन नहीं होता तो भरत के मन में भी मंथरा ज़हर घोलती सारे रिश्ते दरार में जीते सम्मान की सत्य की कोई गुंजाइश नहीं होती …सीता अपहरण न होता - तो हनुमान नहीं मिलते समुद्र में रास्ता नहीं बनता वि

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उतरो सलीब से

29 मार्च 2017
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समय चूकते तुमने सुनी है समय की हँसी चूकने का दर्द भी भोगा है फिर समय की सलीब पर हर बार क्यूँ रख देते हो खुद को ?तुम अनुभव की खाइयों से गुजर चुके हो जानते हो खाई किसी और ने बनाई वो जो खड़ा था खाई और समतल के बीच डगमगाता हुआ तुम्हें स्पर्श देता हुआ वह गलत नहीं था उसके एक तरफ खाई थी एक तरफ कुआँ फिर भी वह

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तुम्हारे लिए !

30 मार्च 2017
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वह सन्नाटाजो तुम्हारे दिल में नदी की तरह बहता हैउसके पानी से मैं हर दिनअपने एहसासों का घड़ा भरती हूँउस पानी की छुवन सेमिट्टी से एहसास नम होते हैंऔर तेरे चेहरे की सोंधी खुशबूउस घड़े से आती है ...दूर दूर तक खाली तैरतीतुम्हारी पुतलियों कोअक्सर मैंने छुआ है यह सोचकरकि कुछ ना सहीमेरे स्पर्श की लोरी तो तु

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सत्य यही है

1 अप्रैल 2017
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मैंने तुमसे कहा -आकाश पाने के ख्वाब देखो सूरज तो मिल ही जायेगा ...'जब कभी किरणें विभक्त हुईंमैंने उनको हथेली में भरकर सूरज बना दिया ... मिलने की अपनी सार्थकता होती है पर क्या नहीं मिला क्यूँ नहीं मिला के हिसाब का फार्मूला बहुत जटिल होता है तुम उसे सुलझाने में न उसे सुलझा सकते हो न पाने की ख़ुशी जी स

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निरर्थक अभिमन्यु बनकर क्या होगा ?

5 अप्रैल 2017
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किसी बात के बीच में ही जब मैं कहती हूँ 'चुप हो जाओ' इसका अर्थ ये नहीं कि तुम गलत हो … इसका अर्थ ये है कि तुम गलत समझे जा रहे हो और कोई ऊँगली उठाए उससे पहले - चुप हो जाओ !प्रश्नों के जाल में उलझकर स्पष्टीकरण में तुम सही नहीं रह पाओगे !लीक से हटकर हर प्रश्न तुम्हें गुमराह करने के लिए ही होते हैं अपनी

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परिवर्तन का आह्वान करो .....

7 अप्रैल 2017
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शब्दों की झोपड़ी में तुम्हें देखा था !!!...इतनी बारीकी से तुमने उसे बनाया था कि मुसलाधार बारिश हतप्रभ ...- कोई सुराख नहीं थी निकलने की कमरे में टपकने की !दरवाज़े नहीं थे -पर मजाल थी किसी की कि अन्दर आ जाए एहसासों की हवाएँ भी इजाज़त लिया करती थीं !न तुम सीता थी न उर्मिला न यशोदा न राधा न ध्रुवस्वामिनी

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अनपढ़ समझदार

20 अप्रैल 2017
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घबराहट और साहस दृढ़ता और शून्यता डबडबाई आँखें और खोने की हँसी … अजीब तालमेल है पर अक्सर किसी ढलान पर मिल जाते हैं !वह मुझे ऐसे ही ढलान पर मिली थी अनपढ़ समझदार अपने वजूद को तलाशती !आतंरिक जड़ें ईश्वरीय होती हैं उसकी भी हैं आँधी तूफ़ान को बेख़ौफ़ झेलना उसकी अनोखी शक्ति है मर्यादापुरुषोत्तम राम की भाँति समंद

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कौन देगा जवाब ???

21 अप्रैल 2017
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आत्महत्या यानि खुद की हत्या जिसे अंजाम देते हुए कोई भी हिंसक नहीं होता !बड़ी सन्नाटे सी होती है यह हत्या हुम् हुम् सी आवाज़ पंखे को देखती है देखती है अपनी नसों को या माचिस की तीली को … दिमाग -शायद संभवतः नहीं सोच पाता कि हत्या के बाद क्या होगा !यह स्थिति ना ही निर्वाण है ना ही आवेश निरीह भी बिल्कुल नह

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दहशत ही जीने का पर्याय है

17 जुलाई 2017
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किसे धिक्कार रहे ?क्या यह पहला हादसा है ?गन्दी-विकृत फिल्मों को कौन बढ़ावा देता है ?कभी सोचा है इसे बनाना और देखना एक विकृति है विकृति के सिवा कुछ भी नहीं … जब बादल जमा होते हैं तो बारिश होती है जब दर्द जमा होता है तो आँसू और जब विकृति जमा होती है तो हादसे !गौर से देखिये ये सारे मानसिक रोगी हमारे आस-

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