बेकाबू धड़कनों को काबू में लाते हुए
रक्ताभ हो आये चेहरे को सहज करते हुए
बंद कमरे में
आईने के रंगमंच पर
कल्पनाओं की भीड़ में
कुछ यूँ कहती हूँ गाहे-बगाहे
"मेरा अहोभाग्य,
मेरी कलम की लकीरों को आपने पढ़ा
…
लिखना तो बहुत कुछ और था
कोशिश भी जारी है
पर बड़ा मुश्किल होता है
खुद को हूबहू लिखना !
यूँ जितना भी लिखूँ
या कहूँ
- आप हूबहू तो मानेंगे भी नहीं
अटकलें मुहावरों की तो लग ही जाती हैं !!
पढ़ना और वाह' कहना अलग बात है
पर अपनी सोच के कैनवस में
उसे गाहे गाहे मान लेना
बिल्कुल ही अलग बात !
संस्कार की बैठक में
कुसंस्कारी ख्याल के रास्तों पर
हर कोई भटकता है
लेकिन प्रत्यक्ष ज़ुबान
कमाल के शब्द बोलती है
दृष्टि विरोधी आग उगलती है
…
रात के सन्नाटे में
बेनकाब ख्यालों और चेहरों को
अपनी अपनी गिरेबां में
तौलकर देखा है किसी ने
…
अच्छे-बुरे की परिभाषा से
एक सिर्फ एक क्षण
मुक्त होकर देखिये
एक ही गुल्लक में रखे सभी सिक्के हैं
कुछ पाँच के,
कुछ दस के
कुछ हज़ार के कागज़ी रूपये …
कीमत लिबासी हैं !!!
…
तो बोली लगनेवाले बाजार में
संयत स्वर में क्या कहूँ
जो घबराहट है उसे रहने दो दोस्तों
निर्बाध कुछ कहने पर आ गई … तो यह आईने का ख्याली रंगमंच
टूटकर बिखर जायेगा
किसी को चुभ गए शीशे
तो कहानी बन जाएगी मेरी काव्यात्मक सोच
ऐसे में,
क्या होगा रूबरू होकर
न मैं हूबहू कहूँगी
न आप लेंगे हूबहू …"