ट्रेन की आवाज़
एक शहर से दूसरे शहर
एक जगह से दूसरी जगह
अनगिनत
अनजाने चेहरे
परिचित होते हुए
नाम का आदान-प्रदान
'चाय' की अनवरत पुकार
गले लगकर बिछड़ते लोग !
खाने की अलग खुशबू
साझा करने का रिश्ता
तो कहीं साझे का हादसा
.... ट्रेन कहाँ रुकी
यह देखने को उमड़ी भीड़
कुछ मिल जाये' की चहलकदमी
कई स्टेशन अंदर के सन्नाटे से अधिक
चुप से होते हैं
उतरनेवाले-चढ़नेवाले बहुत चुप होते हैं
उन्हें जल्दी होती है चढ़ने की
सीट मिल जाये
फिर ट्रेन रफ़्तार पकड़ ले
कुछ ऐसी मनःस्थिति में
वे दरवाजे के पास खड़े होते हैं
तेज हवा की गुफ्तगू
उनके चेहरे में सिर्फ सवाल नहीं करती
उनके चेहरे में छुपी बात को कहती भी जाती है
भारी-भरकम आवाज़ लिए "छुक छुक"
ऐसा लगता है ट्रेन पटरी पर नहीं
सीने पर चल रही है
सब साथ हों
तब भी - कुछ छूट गया सा लगता है
अनजान पहाड़ों,नदियों से गुजरती यह ट्रेन
खानाबदोश सी लगती है !
एक शोर चढ़ता है
एक उतरता है
कुली, यात्री की भागमभाग
फिर - तितर,बितर कोई मैगज़ीन ले रहा होता है
कोई टिकट काउंटर पर
अब … एक समूह मोबाइल के साथ लगा होता है
'कहाँ हैं'
'कब पहुँचेंगे'
कुछ मुस्कान,कुछ उदासी
ट्रेन भागती ही जाती है
नए चेहरे उगते ही जाते हैं ................
छुक,छुक,छुक,छुक