कल रात
एक घुप्प अँधेरे घने जंगल में
शून्य ने मेरा साक्षात्कार लिया ....
- कल क्या था ?
कुछ नहीं ...
आज क्या है ?
कुछ नहीं …
कल क्या होगा ?
कुछ नहीं …
फिर जीवन क्या है ?
कुछ भी समझने की एक स्थिति …
मृत्यु ?
उस स्थिति का केंचुल, जिसे समझने की जद्दोजहद के बाद हम उतार देते हैं … नए सिरे से समझने का खेल खेलने के लिए …
यह 'कुछ नहीं' क्यूँ है ?
क्योंकि तुम ही सत्य हो …
मैं क्या हूँ ?
कहा न - सत्य …
वो कैसे ?
जिस अँधेरे में हाथ-पाँव नहीं सूझते, तुम प्रश्न कर रहे हो … क्या यह काफी नहीं …
ख्याल आया, कुछ सवाल मैं भी करूँ …
पूछा,
तुमने अँधेरे में कैसे देखा कि मैं हूँ ?
अँधेरे में ही ज़िन्दगी की असलियत मिलती है …
कैसी असलियत ?
ज़िन्दगी को जानने की …
मैंने क्या जाना ?
यही कि कभी कहीं कुछ नहीं,
सिर्फ मैं हूँ - एक शून्य !
शक्तिशाली शून्य, जो गढे जाने का भ्रम देता है
ज्ञान का अपरिमित विस्तार देता है
जिसका आधार शून्य, यानि मैं
अब मुझे जीवन मानो , मृत्यु मानो या कुछ नहीं
पर हूँ बस मैं, सिर्फ मैं ....