🌿दिनांक :- 06/05/22 🌿
🌺सुनो न! दैनन्दिनी,
आज दिया जी की डायरी पढी। पढ़कर मन बहुत व्यथित हो गया।
हम बुमन्स डे मनाते हैं ,मदर्स डे मनाते हैं, परिवार डे मनाते हैं। स्त्रियों के पढ़ने, पढ़ने, उड़ने की बातें करते हैं.....
खूब स्टेटस डालते हैं इतने कि गैलरी भर जाए ....
नारी उत्थान की बातें करते हैं।
लेकिन हकीकत!
हकीकत कुछ और ही है ।आज भी कई परिवारों में महिलाओं के सपनों को अपनों द्वारा रौंदा जाता है। कई हुनर चारदीवारी में कैद होकर वहीं दम तोड़ देते हैं। उन्हें निखरने की आजादी नहीं होती है ।
आज भी स्त्रियाँ अपनों की तिरस्कार को झेलती हैं। परिवार में उन्हें यातनाएं मिलती हैं...।
और इन सब का जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ पुरुष ही नहीं होता है।
महिलाएं भी महिलाओं के अधिकारों का हनन करतीं हैं।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । समाज में, समुदाय में, रिश्तेदारों में ,परिवार में वह अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है। अपनों के बीच होंसला मिलता है। खुशी और गमों को बांटता है।
लेकिन जब परिवार में ही तिरस्कार मिले। सपनों को रौंदा जाए। असहयोग मिले तो इंसान कहां जाए ?
क्या यही परिवार होता है ?
सोचनीय है ....
मैं तो यही कहूंगी कि जिस परिवार में बड़े बुजुर्ग गलत को गलत और सही को सही नहीं कह पाते अक्सर उस घर के सदस्य साथ में कभी खुश नहीं रह पाते हैं।
आज बस इतना ही,
कल मिलते हैं ......😑