प्रस्तुत है वीरन्धरोन्मुख आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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क्योंकि हम लोग ऋषित्व को प्राप्त नहीं किये हुए हैं इसलिए ऐसा तो नहीं हो सकता कि संसार का संस्पर्श ही न हो लेकिन इसका प्रयास तो करते हैं और चूंकि संसार वक्रीय गति से चलता है इसलिए कोई काम नियत समय पर नहीं हुआ आदि के लिए व्यथित नहीं होना चाहिए किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।4.16।।
कर्म क्या है व अकर्म क्या है? इस विषय में बुद्धिमान भी भ्रमित होते हैं। अतः मैं तुम्हें कर्म और अकर्म समझाऊँगा जिसे नने के बाद तुम संसार बन्धन से मुक्त हो जाओगे |
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।।
कर्म ,अकर्म,विकर्म का तत्त्व जानना चाहिये क्योंकि कर्म की गति गहन है। हमें इन छोटी व्याख्याओं से ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये अपितु अधिक से अधिक विस्तार में जाना चाहिये क्योंकि ज्ञान असीम है अनन्त है इसलिये इसके विस्तार का प्रयास सदैव करना चाहिये इसी ज्ञान की अनन्तता को प्राप्त करने का प्रयास ही अध्यात्म में मोक्ष है आचार्य जी ने कल की एक घटना का उल्लेख किया जिसमें कल प्रधानमन्त्री के दौरे में व्यवधान उत्पन्न करने का प्रयास किया गया इसका अर्थ है देश में गद्दारों की फौज है गद्दारी हमेशा स्वार्थ आधारित होती है स्वार्थ कि हमें यह मिल जाये अपनी नासमझी के कारण इस देश में प्रधानमन्त्रियों की हत्याएं हो चुकी हैं हत्या हत्या ही है शौर्य शौर्य ही है पक्ष विपक्ष नहीं देखना चाहिये प्रातःकाल का यह संबोधन अध्यात्म आधारित है इसलिये अध्यात्म के पक्ष को समझना चाहिये महाभारत भीष्म पर्व के नवें अध्याय में भारत के स्वरूप का बहुत अच्छा वर्णन है जो विस्तार से भी है हमें इसे पढ़ना चाहिये हीन भावना से मुक्त रहना चाहिये कि हम इतना सिमट गये हैं आदि आदि निन्दनीय की निन्दा करने का उत्साह भी हो लेकिन भाषा कटु न हो हीनबोधत्व विनष्ट हो इसका व्यक्ति व्यक्ति में प्रकाश जलना चाहिये पहले स्वयं फिर परिवार फिर समाज तक विस्तार करें
गरिमा का भाव सदैव रखें -
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।।
का उल्लेख करते हुए आचार्य जी ने बताया कि शिक्षा पद्धति, व्यापार पद्धति, चिकित्सा पद्धति सभी इसी पर आधारित हैं कि हमारी भूख तृप्त होती रहे लोमश ऋषि को देखें तब ?
और यह देश अब ऐसा तैयार हो गया कि हमारी तृप्ति होती ही नहीं
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।4.20।।
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।4.21।।
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।
का उल्लेख करते हुए आचार्य जी ने बताया यह भाव जब पच जायेगा तो जो हम कहेंगे वह प्रभावशाली होगा आदर्श बनेगा व्यक्ति की साधना से लेकर समाज की सेवा तक के सोपानों पर हम चढ़ें आचार्य जी यह चाहते हैं समय की गम्भीरता को पहचानें हम देश के रक्षक हैं वाणी व्यवहार से ही नहीं कर्म से भी जाग्रत हों लोक में सद्भाव भरने की आवश्यकता है दिनचर्या व्यवस्थित करें सामाजिक कामों का, स्वाध्याय चिन्तन मनन का रोज हिसाब लगायें समाजोन्मुखी होने पर हमें आनन्द की अनुभूति होगी |