कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
प्रस्तुत है शिश्विदान आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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प्रतिदिन की यह सदाचार वेला आचार्य जी के अनुभवों पर आधारित है इसलिये हमें इसका श्रवण कर अधिक से अधिक लाभ लेने का प्रयास करना चाहिये इस पञ्चभूत शरीर को तामसिक शक्ति कहते हैं शुद्ध आत्मतत्त्व सात्विक शक्ति का आधार लेकर हमें जीवन्त रखता है,प्रसन्न रखता है और उच्च विचारों का भी स्रोत है तभी हम कहते हैं वसुधैव कुटुम्बकम् जिस समय हम राजसिक भाव में आते हैं तब कहते हैं कृण्वन्तो विश्वमार्यम् मैं संपूर्ण विश्व को आर्य बनाऊंगा विकृति दूर करूंगा तामसिक भाव अपने अन्दर विकार उत्पन्न करता है विदेशी लोगों के आने के कारण उत्पन्न हुए प्रभाव से तामसिक भाव हमारे देश में बढ़ता गया और हम भौतिकता में लिप्त होते चले गये सत रज तम के सामञ्जस्य को उचित रूप से स्थापित नहीं कर पाये शरीर को तत्त्व समझ लिया शरीर कितना आवश्यक है यह सात्विक समझ है हमारे यहां आयुर्वेद हुआ आरोग्य का सिद्धान्त है जब तक हम जीवित हैं शरीर कर्मशील रहे लेकिन जब यह रहने लायक नहीं रहे तो इससे मोह भी न रहे धुएं के भय से अग्नि को त्यागना सांसारिक सत्य से मुंह मोड़ना है आचार्य जी ने आज पुनः शौर्य प्रमण्डित अध्यात्म पर बल दिया |