नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा। भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥ (भावार्थ:- हे रघुनाथजी! आप सभी के दिल में आत्मा रूप में स्थित हैं, फिर भी मैं सच कहता हूँ कि मेरे दिल में अन्य कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुल श्रेष्ठ! आप मुझे केवल आप पर ही जो आश्रित हो ऐसी भक्ति प्रदान करिये व मेरे मन को काम आदि दोषों से मुक्त करिये l) प्रस्तुत है विशोक आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण https://sadachar.yugbharti.in/ , https://youtu.be/YzZRHAHbK1w , https://t.me/prav353 आज आचार्य जी निर्भरा भक्ति को विस्तार से बताने का प्रयास कर रहे हैं सभी के अपने अपने इष्ट होते हैं जैसे महात्मा तुलसी के इष्ट भगवान् राम हैं राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥
(श्री राम तारक मंत्र या श्री राम रक्षा स्तोत्रं मन्त्र)
राम को ब्रह्म का स्वरूप मानकर मानस में उसी ब्रह्म का विस्तार कर दिया मनुष्य जब ब्रह्म के विस्तार से अपने को संयुत कर लेता है तो वह सरलता से इस संसार की समस्याओं के हल खोजते हुए संसार के रहस्यात्मक स्वरूप को जानते हुए इस संसार में अपने शरीर को होम देता है हमारी भारतीय संस्कृति यज्ञमयी संस्कृति है और इस संसार में हम यज्ञ करने के लिये आये हैं जहां हम सब कुछ समर्पित कर रहे हैं वैदिक ज्ञान में यज्ञों के विभिन्न स्वरूपों को विस्तार से बताया गया है किन्हीं कारणों से मार्गान्तरित होने पर हम स्व को भूल गये और हमारी शक्ति अस्त व्यस्त हो गई हम भ्रमित हुए अस्ताचल वाले देशों को जब देखा साध्य को भूलकर धन और साधन के पीछे चलने लगे और आज तक इसी कारण हर क्षेत्र में संघर्षरत हैं यद्यपि स्थूल सूक्ष्म में परिवर्तित होता चला जाता है लेकिन तब भी भारतवर्ष समाप्त नहीं होगा देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।3.11।।
आप लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करें और देवतागण आपकी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते परम श्रेय को आप प्राप्त होंगे भारत की भाव शैली अद्भुत है वरुण, पृथ्वी, वायु,अग्नि, सूर्य, अन्न सभी कुछ देवकोटि में हैं और उनको प्रसन्न करने के लिये हम यज्ञ करते हैं निर्भरा भक्ति वह है जिसे प्राप्त करने के बाद कुछ न चाहने की भावना प्राप्त हो जाये कितनी factories लगाईं कितनी नौकरियां मिलीं से इतर हमें इस पर विचार करना चाहिये कि गंगा शुद्ध करने के लिये,प्रदूषण समाप्त करने के लिये, हरियाली की वृद्धि के लिये क्या किया घर में छोटा सा यज्ञ अवश्य करें स्नान ध्यान पूजा भजन सभी यज्ञ हैं यज्ञ से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।3.13।। यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन श्रेष्ठता का प्रतीक है जो केवल अपने लिये ही भोजन पकाते हैं वे पापी हैं अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।3.14।।
अक्षरब्रह्म >वेद कर्म >यज्ञ >वर्षा >अन्न >संपूर्ण प्राणी यह क्रम है अतः यह परमात्मा यज्ञ में प्रतिष्ठित है हम सब इनसे प्रेरणा लें और नई पीढ़ी को इससे अवगत करायें प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम रखें |