प्रस्तुत है वृत्तशस्त्र आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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मनुष्यत्व की अनुभूति करते हुए हम लोग संसार की समस्याओं को सुलझाते हुए चलते हैं सफल न होने पर खीजें नहीं अपितु इस पर विचार करें कि सफलता क्यों नहीं मिलीऔर यह कैसे मिल सकती है शरीर को साधन मानें तो प्रसन्नता की अनुभूति होती है मन तत्त्व अत्यधिक तात्विक और महत्त्वपूर्ण है और मन को महत्त्व देना ही पड़ता है मन को सहज करना आवश्यक है कल अपने गांव सरौंहां में खराब मौसम के कारण बैठक नहीं हो रही है तो हमें व्याकुल नहीं होना चाहिये यही व्यवहार जगत है आचार्य जी ने मां सती के मन में संशय आने वाले प्रसंग को बताया आपने बताया कि बहुत लोग विधि विपरीत काम करते हैं |
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।
जो फल की इच्छा के बिना, स्वयमेव जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्टि प्राप्त करता है और जो ईर्ष्या से रहित, द्वन्द्वों से दूर व सिद्धि असिद्धि में बराबर है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता। आचार्य जी ने बताया कि अन्तिम दिनों में श्रद्धेय नाना देशमुख कहते थे मेरा मन बुद्धि पेट दुरुस्त हैं बाकी अंग सेवा करते करते थक गये तो क्या हुआ वे कहते थे परमात्मा की कृपा है इसी तरह बैरिस्टर साहब और शर्मा जी भी महापुरुष हैं विडम्बना है कि जो हमारे साथ रहते हैं हम उनको महत्त्व नहीं देते हम लोग तो अपने को भी महत्त्व नहीं देते अपने को समझने का प्रयास करें यदि मैं संसार के मालिन्य को हटाने वाला कर्मशील योद्धा नहीं बन पाया तो भक्त तो बनूंगा ही यह प्रण करें सफलता पर दम्भ नहीं असफलता पर निराशा न हों सफलता असफलता दोनों में स्थिर रहें आचार्य जी ने कुछ कवियों के नाम लिये जिन्होंने बहुत प्रेरणा दी कवि यदि श्रोताओं को अपने काव्यपाठ पर ताली बजाने के लिये बाध्य करता है तो यह उचित नहीं है