प्रस्तुत है जाजिन्आ चार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण : -
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मनुष्य के जीवन जीने का मर्म यही है कि वह मनुष्योचित व्यवहार करता है अतीत से शिक्षा ग्रहण कर, वर्तमान में सात्विक कर्मों द्वारा अपने को जाग्रत रख, भविष्य की योजनाएं बनाता है तीनों कालों में जाग्रत रहना मनुष्य का ही स्वभाव होता है और यदि स्वभाव के साथ स्वकर्म संयुत हो जाएं तो भाव -विचार- क्रिया की त्रिवेणी सफलीभूत होती है और इससे हम अपने मनुष्यत्व का अनुभव करने लगते हैं और अनेक समस्याओं से ग्रस्त संसार को आनन्द मिलता है क्योंकि कथा में मनुष्य का मन रमता है इसीलिये हमारे यहां कथात्मक साहित्य की भरमार है | प्रारम्भ में अपना विद्यालय हाराजा देवी सरस्वती शिशु मन्दिर तिलक नगर में लगता था वहां आचार्य जी को तीसरी कक्षा में जाने का निवेदन किया गया जहां बच्चों को आचार्य जी ने कथा सुनाई (वहीं 1978 बैच के भैया अरविन्द तिवारी जी ने भी एक प्रश्न किया था) बालकों की जिज्ञासा शमित करना आसान नहीं है हम सभी बालबुद्धि सदैव धारण किये रहते हैं और हमारी जिज्ञासा शमित करने के लिये ज्ञानीजन होते हैं समय पर किसका ज्ञान खुल जाए यह तो परमात्मा की कृपा है अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः॥' ये चिरजीवी सारे ब्राह्मण हैं इनके व्यवहार परिस्थिति के अनुकूल होते हैं सहस्रार्जुन के द्वारा भीषण अत्याचार की वृद्धि पर परशुराम अवतार उत्पन्न हुआ परशुराम भगवान् विष्णु के आवेशावतार हैं परशुराम हमेशा क्रोध करते थे ऐसा भी नहीं है आचार्य जी ने राजा अम्बरीष और ऋषि दुर्वासा की कथा सुनाई ttp://kathapuran.blogspot.com/2012/10/blog-post.html अपनी संस्कृति की गहराई और विशेषता को बताने वाली इन कथाओं को हमें बच्चों को सुनाना चाहिये यही करणीय है इस शरीर को पुष्प के समान प्रफ़ुल्लित रखने के लिये परमात्मा के प्रति आत्मार्पित हों 23 जनवरी को होने वाले कार्यक्रम में इसी तरह का चिन्तन मनन होना चाहिये |